Thursday, November 21, 2019

ब्रिटीशर्स ने महुआडाबर नाम से ही नया गांव बसा दिया ------ कृष्ण प्रताप सिंह




अवध में गांवों के उजड़ने व बसने का सिलसिला करीब-करीब उसके इतिहास जितना ही लंबा है। इस लिहाज से वहां आज भी गांवों का मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभाजन किया जाता है। इनमें पहली श्रेणी चिरागी गांवों की है और दूसरी गैरचिरागी गांवों की। चिरागी श्रेणी में ऐसे गांव आते हैं जहां चिराग जलते हैं यानी ग्रामीण आबाद हैं। इनके विपरीत गैरचिरागी वे गांव हैं, जो वक्त की मार कहें या सत्ता, सामंतों व जमींदारों के अनाचार-अत्याचार नहीं झेल पाए, उजड़ जाने को अभिशप्त हो गए और अब उनमें कोई ‘दीया-बाती’ तक करने वाला नहीं है।

जानकारों के अनुसार प्रायः हर गैरचिरागी गांव के उजड़ने के पीछे कोई न कोई विचलित कर देने वाला वाकया हुआ करता था। दो तीन दशक पहले तक गैरचिरागी गांवों के इस तरह के वाकये उनके पड़ोसी गांवों के बड़े-बुजर्गों की जुबान पर रहा करते थे। लेकिन अब बदलती पीढ़ियों के साथ वे विस्मृति के गर्त में डूबते जा रहे हैं।

इनमें बस्ती जिले के बहादुरपुर ब्लॉक में ऐतिहासिक मनोरमा नदी के तट पर बसे और हथकरघों का केंद्र रहे महुआडाबर गांव का वाकया इतना अनूठा और अलग है कि पुराना पड़ जाने के बावजूद अब तक जनश्रुतियों का हिस्सा बना हुआ है।

दरअसल, 1857 में दस जून को अवध के फैजाबाद जिले से बिहार के दानापुर जा रही ब्रिटिश सेना कोई पांच हजार की आबादी वाले इस गांव के निकट पहुंची तो बागी ग्रामीणों में उसे लेकर जाने कितना गुस्सा भरा हुआ था कि उन्होंने उसे असावधान पाकर आव देखा न ताव, चारों ओर से घेरकर उस पर हमला बोल दिया। ऐसा विकट हमला, जिसमें न सिर्फ उसे उलटे पांव लौटने को मजबूर होना पड़ा, बल्कि पांच लेफ्टिनेंटों क्रमशः लिंडसे, थामस, इंग्लिश, रिची व काकल के साथ सार्जेंट एडवर्ड की जानें भी चली गईं। 

सच पूछिए तो आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित उस नियमित सेना के लिए यह डूब मरने जैसी बात थी कि वह ग्रामीणों से अप्रत्याशित मुकाबले में उनके लाठियों, भालों व बर्छियों जैसे पारंपरिक हथियारों से भी पार नहीं पा सकी और शिकस्त खाकर बिखर गई। लेकिन उसका सार्जेंट बुशर किसी तरह अपनी जान बचाकर भागने में सफल हो गया तो उसने खुद को खुशकिस्मत समझ ईश्वर को धन्यवाद दिया और शर्मिंदगी का तमगा गले में लटकाए हुए सैन्य शिविर में जाकर वरिष्ठ अधिकारियों को वस्तुस्थिति की जानकारी दी। लेकिन उन अधिकारियों ने, संभवतः रणनीति के तौर पर, और कुमुक लेकर उक्त बागी गांव पर फौरन धावा बोलने से परहेज रखा।

दस दिनों तक इंतजार करने के बाद 20 जून को ,जब उन्होंने समझा कि अब ग्रामीण असावधान हो चुके होंगे, डिप्टी मैजिस्ट्रेट विलियम्स पेपे के नेतृत्व में घुड़सवार सैनिकों से घिरवाकर समूचे गांव में आग लगवा दी। इस अग्निकांड में कितने ग्रामीणों की बलि चढ़ी, कितनी मांओं की गोद सूनी हुई, कितने बच्चे यतीम हुए और कितने सुहाग उजड़ गए, इतिहास की पुस्तकों में इसकी कोई तफसील दर्ज नहीं है। अलबत्ता, ये पुस्तकें बताती हैं कि उस दिन की बदले की कार्रवाई में ब्रिटिश सेना ने गांव के जले हुए मकानों, मस्जिदों व हथकरघों को सायास जमींदोज कर डाला और उसके बाहर एक बोर्ड लगाकर उस पर लिखा दिया था-‘गैरचिरागी’।

यही नहीं लौटते हुए अंग्रेजी सेना पड़ोसी गांव के पांच निवासियों- गुलाम खान, गुलजार खान, निहाल खान, घीसा खान व बदलू खान को अपने साथ लेती आई। महुआडाबर के ग्रामीणों को भड़काने के आरोप में इन पांचो पर मुकदमे चलाए गए और 18 फरवरी, 1858 को इन सबको फांसी दे दी गई। 

ब्रिटिश अधिकारियों की प्रतिहिंसा इतने से ही संतुष्ट हो जाती तो भी गनीमत थी। उन्होंने तब तक चैन नहीं लिया, जब तक सरकारी नक्शों व रिपोर्टों से महुआडाबर का नाम तक नहीं मिटा दिया गया। इसीलिए आज की तारीख में किसी गजेटियर में भी उस गांव का जिक्र नहीं मिलता। 


हां, जानें क्यों इस कांड के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने इस गांव से पचास किलोमीटर दूर बस्ती और गोंडा जिलों की सीमा पर गौर ब्लॉक में बभनान के पास महुआडाबर नाम से ही नया गांव बसा दिया, जो आज भी आबाद है।

http://epaper.navbharattimes.com/details/75933-75599-2.html





 ~विजय राजबली माथुर ©

Monday, November 18, 2019

क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त : जिन्हें आजाद भारत में न नौकरी मिली न ईलाज! ------ ओम प्रकाश

  


बटुकेश्वर दत्त: एक क्रांतिकारी की दर्दनाक कहानी, जिन्हें आजाद भारत में न नौकरी मिली न ईलाज!
NOVEMBER 18, 2019, 11:42 AM IST
Batukeshwar Dutt Birth Anniversary: देश की आजादी के लिए कालापानी सहित करीब 15 साल तक जेल की सजा काटने वाले क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के फैन थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह (Bhagat Singh), लेकिन आजादी (Independence) मिलने के बाद हमारे सिस्टम ने उनके साथ कैसा सलूक किया. जयंती पर इस महान क्रांतिकारी को श्रद्धांजलि.------ओम प्रकाश

नई दिल्ली. बटुकेश्वर दत्त (Batukeshwar Dutt) ऐसे महान क्रांतिकारी हैं जिनके फैन शहीद-ए-आजम भगत सिंह (Bhagat Singh) भी थे. तभी तो उन्होंने लाहौर (Lahore) सेंट्रल जेल में दत्त का ऑटोग्राफ लिया था. लेकिन आजाद भारत की सरकारों को दत्त की कोई परवाह नहीं थी. इसका जीता जागता उदाहरण उनका जीवन संघर्ष है. देश की आजादी के लिए करीब 15 साल तक सलाखों के पीछे गुजारने वाले बटुकेश्वर दत्त को आजाद भारत (India) में नौकरी के लिए भटकना पड़ा. उन्हें कभी सिगरेट कंपनी का एजेंट बनना पड़ा तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर पटना की सड़कों पर घूमना पड़ा. जिस आजाद भारत में उन्हें सिर आंखों पर बैठाना चाहिए था उसमें उनकी घोर उपेक्षा हुई.


'गुमनाम नायकों की गौरवशाली गाथाएं' नामक अपनी किताब में विष्णु शर्मा ने दत्त के बारे में विस्तार से लिखा है. उनके मुताबिक दत्त के दोस्त चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, 'क्या दत्त जैसे कांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है. खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है.'

कहां हुआ था जन्म

बटुकेश्वर दत्‍त, बर्धमान (बंगाल) से 22 किलोमीटर दूर 18 नवंबर 1910 को औरी नामक एक गांव में पैदा हुए थे. हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए वो कानपुर आए और वहां उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से हुई. वह 1928 में गठित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य बने. यहीं पर उनकी भगत सिंह से मुलाकात हुई. उन्होंने बम बनाना सीखा. दोनों क्रांतिकारियों में दोस्ती कितनी गहरी थी इसकी एक मिसाल हुसैनीवाला में देखने को मिलती है.

तत्कालीन बिहार सरकार ने नहीं दिया ईलाज पर ध्यान

1964 में बटुकेश्वर दत्त बीमार पड़े. पटना के सरकारी अस्पताल में उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था. जानकारी मिलने पर पंजाब सरकार ने बिहार सरकार को एक हजार रुपए का चेक भेजकर वहां के मुख्यमंत्री केबी सहाय को लिखा कि यदि पटना में बटुकेश्वर दत्त का ईलाज नहीं हो सकता तो राज्य सरकार दिल्ली या चंडीगढ़ में उनके इलाज का खर्च उठाने को तैयार है. इस पर बिहार सरकार हरकत में आई. दत्त का इलाज शुरू किया गया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली (Delhi) लाया गया. यहां पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था जिस दिल्ली में उन्होंने बम फोड़ा था वहीं वे एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाए जाएंगे.

दोस्ती की ऐसी मिसाल कहां मिलेगी?


बटुकेश्वर दत्त को सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया. बाद में पता चला कि उनको कैंसर है और उनकी जिंदगी के कुछ ही दिन बाकी हैं. कुछ समय बाद पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन उनसे मिलने पहुंचे. छलछलाती आंखों के साथ बटुकेश्वर दत्त ने मुख्यमंत्री से कहा, 'मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए.' 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर वो यह दुनिया छोड़ चुके थे. बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा को सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के पास किया गया.

भगत सिंह ने लिया था ऑटोग्राफ



भगत सिंह स्‍वतंत्रता सेनानी बटुकेश्‍वर दत्‍त के प्रशंसक थे. इसका एक सबूत उनकी जेल डायरी में है. उन्‍होंने बटुकेश्‍वर दत्‍त का एक ऑटोग्राफ लिया था. बटुकेश्‍वर और भगत सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में कैद थे. बटुकेश्‍वर के लाहौर जेल से दूसरी जगह शिफ्ट होने के चार दिन पहले भगत सिंह जेल के सेल नंबर 137 में उनसे मिलने गए थे. यह तारीख थी 12 जुलाई 1930. इसी दिन उन्‍होंने अपनी डायरी के पेज नंबर 65 और 67 पर उनका ऑटोग्राफ लिया. डायरी की मूल प्रति भगत सिंह के वंशज यादवेंद्र सिंह संधू के पास है. शहीद भगत सिंह ब्रिगेड के अध्‍यक्ष और उनके प्रपौत्र संधू ने बताया कि शहीद-ए-आजम बटुकेश्‍वर दत्‍त को अपना सबसे खास दोस्‍त मानते थे. यह ऑटोग्राफ भगत सिंह का उनके प्रति सम्‍मान था. शायद दोनों ने भांप लिया था कि अब उनकी मुलाकात नहीं होगी. इसलिए यह निशानी ले ली.



कालापानी की सजा हुई थी

ब्रिटिश पार्लियामेंट (British Parliament) में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया. मकसद था स्वतंत्रता सेनानियों पर नकेल कसने के लिए पुलिस को ज्यादा अधिकार संपन्न करने का. दत्त और भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु इसका विरोध करना चाहते थे. दत्‍त ने 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह के साथ मिलकर सेंट्रल असेंबली में दो बम फोड़े और गिरफ्तारी दी. बटुकेश्‍वर ही सेंट्रल असेंबली में बम ले गए थे. यादवेंद्र संधू कहते हैं कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर बम फेंकने के अलावा सांडर्स की हत्या का इल्जाम भी था. इसलिए उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई. जबकि बटुकेश्वर को काला पानी की सजा हुई. उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया. उन्‍होंने कालापानी की जेल के अंदर भूख हड़ताल की.

वहां से 1937 में वे बांकीपुर सेंट्रल जेल, पटना लाए गए. 1938 में वो रिहा हो गए. फिर वे महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े. इसलिए दत्त को दोबारा गिरफ्तार किया गया. चार साल बाद 1945 में वे रिहा हुए. 1947 में देश आजाद हो गया. उस वक्त वो पटना में रह रहे थे.


यहां उन्हें गुजर-बसर करने के लिए सिगरेट कंपनी का एजेंट बनना पड़ा. टूरिस्ट गाइड की नौकरी करनी पड़ी. उनकी पत्नी अंजली को एक निजी स्कूल में पढ़ाना पड़ा. पूरे सरकारी सिस्टम उनका कोई सहयोग नहीं किया. दत्त ने पटना में बस परमिट के लिए अप्लीकेशन दी. वहां कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का सबूत मांगकर तिरस्कार किया.

फांसी न होने से निराश थे दत्त


भगत सिंह के साथ फांसी न होने से बटुकेश्‍वर दत्त निराश हुए थे. वह वतन के लिए शहीद होना चाहते थे. उन्होंने भगत सिंह तक यह बात पहुंचाई. तब भगत सिंह ने उनको पत्र लिखा कि "वे दुनिया को ये दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते, बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सह सकते हैं." भगत सिंह की मां विद्यावती का भी बटुकेश्वर पर बहुत प्रभाव था, जो भगत सिंह के जाने के बाद उन्हें बेटा मानती थीं. बटुकेश्‍वर लगातार उनसे मिलते रहते थे.
साभार : 

https://hindi.news18.com/news/delhi/batukeshwar-dutt-birth-anniversary-special-painful-story-of-a-freedom-fighter-who-neither-got-a-job-nor-treatment-in-independent-india-bhagat-singh-dlop-2615635.html


~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, November 14, 2019

जब दोनों पावर्स भारत को खुश करने की प्रतियोगिता कर रहे थे ------ मनीष सिंह





Manish Singh
दो ध्रुवीय विश्व हमारी पीढ़ी ने देखा है। हमारी सरकारों को कभी रूस और कभी अमरीका की कृपा के लिए जतन करते देखा है। पर एक वक्त था, जब इनके बीच गुटनिरपेक्ष देश तीसरा ध्रुव थे, भारत इनका अगुआ था, और नेहरू इसका चेहरा।

उस जमाने मे हम न परमाणु ताकत थे, न आर्थिक शक्ति, न विश्वयुद्ध के विजेताओं में शुमार थे। फिर भी नेहरू का स्टेट्स अगर वर्ल्ड लीडर्स के बराबर था, तो इसलिए 120 गुटनिरपेक्ष देश नेहरू की अगुआई में, हर मसले पर दुनिया की बड़ी ताकत को चुनौती देने का माद्दा रखते थे।

अन्तराष्ट्रीय राजनय में पहला विश्वस्तरीय फोरम "लीग ऑफ नेशन्स" था। लीग 1920 में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बनी थी। थ्योरिटिकली इसमें सारे देश बराबर थे। पर असल मे चलती ब्रिटेन की थी, आधी दुनिया पर उसका राज था। अमरीका उसका साइडकिक था। दूसरे विश्वयुद्ध ने इक्वेशन बदल दिया। अमरीका, रूस ताक़तवर हुए। ब्रिटेन- फ्रांस जीतकर भी इतने कमजोर हो गए थे कि धड़ाधड़ कालोनियों को खाली कर वापस जाने लगे। एक और नया विजेता था- चीन। उसने एशिया की वर्ल्ड वार में जापान को हराया था। वो च्यांग काई शेक का चीन था।

ये 1945 का वर्ल्ड आर्डर था। ये पांच विजेता थे, ये पांच बड़े देश थे। इनकी अगुआई में यूनाइटेड नेशन्स बना। विजेताओं ने ताकत बांट ली। परमानेंट मेम्बर, वीटो, न्यूक्लियर ताकत अपने हाथ में रखा। आपस मे छुपा युद्ध लड़े भी, कैपिटलिस्ट- कम्युनिज्म के नाम पर। दुनिया पश्चिम और पूर्व के दो गुटों में बंट गयी।

चीन का किस्सा गजब हुआ। पश्चिमी प्रभाव वाले च्यांग काई शेक के चीन को 1949 में माओ की कम्युनिस्ट पार्टी ने जीत लिया। च्यांग को ताइवान भागना पड़ा। देश रातोरात कम्युनिस्ट हो गया। अमेरिका सहित पश्चिमी देश, चीन की सीट पर कम्युनिस्ट माओ को देखना नही चाहते थे। लेकिन स्टालिन का कम्युनिस्ट रूस, चीन के पक्ष में था। चीन की सीट होल्ड हो गयी।

कुछ गैरसरकारी पत्राचार में रिकार्ड है, की इस वक्त अमरीका ने नेहरू से पूछा था, की क्या वह भारत को चीन की सीट दिलाने की बात चलाये? नेहरू को पता था कि यह सम्भव नही है। इधर स्टालिन वीटो करके प्रस्ताव गिरा देगा, उधर माओ दुश्मनी छेड़ेगा। याने "खाया पिया कुछ नही, गिलास फोड़ा-बारह आना"। अभी भारत की हैसियत इनसे पंगा लेने की नही थी। फिर भी ये अमेरिका का यह पूछना, नेहरू की स्वीकार्यता का पैमाना समझिये।

देखा जाये तो भारत 1945 से ब्रिटिश कालोनी के रूप में भी यूएन का मेम्बर था। मगर सार्वभौम देश के रूप में अब नई चुनोतियाँ थीं। 1947 में आजाद हुआ ही था, की युद्ध मे फंस गया। कश्मीर फँसा था, जूनागढ़ हैदराबाद के एक्सेशन पर राजनीति गर्म थी। भारत पार्टीशन, दंगो में नहाकर सम्विधान निर्माण, प्रथम चुनाव की राह पर था।

मगर आगे आने वाले दस साल भारत अंतरराष्ट्रीय पहचान में वृद्धि के थे। 1954 में स्टालिन की मौत हुई। ख्रुश्चेव आये, तो नेहरू का 1955 का रूस दौरा माइलस्टोन रहा। इसके बाद भारत मे कारखाने, बांध, हाइड्रोइलेक्ट्रिक, न्यूक्लियर और स्पेस रिसर्च में रशियन तकनीक आयी। अमरीका भी भारत को रिझाने की कोशिश में था। कई व्यापारिक कंशेषन दिए, एड दी, खाद्यान्न दिया।

तो वो भी एक जमाना था जब दोनों पावर्स भारत को खुश करने की प्रतियोगिता कर रहे थे। सिक्युरिटी कॉउंसिल में बार बार भारत को द्विवार्षिक सदस्यता मिलती रही। कोरिया युध्द, इंडोचायना और स्वेज केनाल के विवाद प्राधिकरण में भारत चेयरमैन रहा। रंगभेद, ह्यूमन राइट और निरस्त्रीकरण पर भारत की आवाज बुलंद थी।

भारत के साथ और भी देश आजाद हुए थे। सबने साम्राज्यवाद को भुगता था। पीड़ा झेले हुए छोटे छोटे देश किसी का पिछलग्गू नही होना चाहते थे। नेहरू ने गुटनिरपेक्ष नीति अपनाई थी। 1955 में बांडुंग कांफ्रेंस में इसकी नीतियां बनी। 1961 में गुटनिरपेक्ष देश के फोरम बनाकर सामने आए। ऐसी नीति को पसंद करने वाले 120 देश गुटनिरपेक्ष आंदोलन से जुड़े। नेहरू नेता, प्रवक्ता, मार्गदर्शक थे। ये भारत का जलवा था।

1961 याद करने वक्त इसलिए भी है, की भारत ने योरोपीय देश, पुर्तगाल की कालोनी गोआ के सैनिक हस्तक्षेप से जीत लिया। पुर्तगाल यूएन में गया, मगर नेहरू ने कुछ देशो को पक्ष में लिया, कुछ को अनुपस्थित करवा दिया। मामला बराबरी पर आया तो रूस ने वीटो कर दिया। गोआ दमन और दीव पर भारत का तिरंगा लहराया। ये भारत और नेहरू का पीक टाइम था।

लेकिन इसके बाद अगले 40 साल का किस्सा निराशाजनक है। चीन से युद्ध, हार, नेहरू की मौत, पाकिस्तान से युध्द.. भारत का जलवा ढलता गया। रूस पर निर्भरता बढ़ती गयी। माओ मरे, तो 1970 में चीन को सीट वापस मिल गयी। इकोनमिकली भी वो ताकतवर होता गया।

हमें 1971 में बंगलादेश की जीत के जश्न के बाद, औऱ जश्न के मौके नही आये। चीन- अमरीका से रार बढ़ती गयी। अफगान युद्ध के कारण पाकिस्तान का महत्व बढ़ गया। रूस का घटता जलवा, इमरजेंसी, ढीली ग्रोथ, आतंकवाद, टूटी फूटी सरकारें। नरसिंहराव के वक्त एक बार द्विवार्षिक मेम्बरशिप मिलना ही उपलब्धि थी।

जेब मे पैसे हों, तो सब सलाम करते हैं। आर्थिक सुधारों के बाद भारत एशिया में सबसे तेज बढ़त लेने लगा। तब क्लिंटन के दूसरे कार्यकाल में हमे फिर तवज्जो मिलनी शुरू हुई। जार्ज बुश काल मे हम ऑफिशियल न्यूक्लियर पावर स्वीकार हुए तो ओबामा ने भारत की परमानेंट सदस्यता को समर्थन किया, यूएस कांग्रेस में प्रस्ताव पारित कराया। आठ विकसित देशों की बैठकों में बुलाया जाने लगा। ब्रिक्स बना, तो लगा भारत फिर उभर रहा है।

लेकिन जेब फिर खाली हो रही है। चीन हमें काफी पीछे छोड़ चुका है। रूस शनै शनै दूर हो रहा है। अमरीका की कृपा कभी आती है, अटक जाती है। लेकिन कूटनीति स्टेडियमो में झूम रही है। विदेश नीति, विदेशी नेता की निजी ताबेदारी में बदल गयी है।


हमने नेहरू को गरियाने का फैशन बना लिया है। मगर उंसके वक्त की ऊंचाई हम दोबारा कब पा सकेंगे, यह उत्तर भविष्य के गर्भ में है।
साभार : 
https://www.facebook.com/manish.janmitram/posts/2446917952059174

  ~विजय राजबली माथुर ©
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