Thursday, November 21, 2019

ब्रिटीशर्स ने महुआडाबर नाम से ही नया गांव बसा दिया ------ कृष्ण प्रताप सिंह




अवध में गांवों के उजड़ने व बसने का सिलसिला करीब-करीब उसके इतिहास जितना ही लंबा है। इस लिहाज से वहां आज भी गांवों का मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभाजन किया जाता है। इनमें पहली श्रेणी चिरागी गांवों की है और दूसरी गैरचिरागी गांवों की। चिरागी श्रेणी में ऐसे गांव आते हैं जहां चिराग जलते हैं यानी ग्रामीण आबाद हैं। इनके विपरीत गैरचिरागी वे गांव हैं, जो वक्त की मार कहें या सत्ता, सामंतों व जमींदारों के अनाचार-अत्याचार नहीं झेल पाए, उजड़ जाने को अभिशप्त हो गए और अब उनमें कोई ‘दीया-बाती’ तक करने वाला नहीं है।

जानकारों के अनुसार प्रायः हर गैरचिरागी गांव के उजड़ने के पीछे कोई न कोई विचलित कर देने वाला वाकया हुआ करता था। दो तीन दशक पहले तक गैरचिरागी गांवों के इस तरह के वाकये उनके पड़ोसी गांवों के बड़े-बुजर्गों की जुबान पर रहा करते थे। लेकिन अब बदलती पीढ़ियों के साथ वे विस्मृति के गर्त में डूबते जा रहे हैं।

इनमें बस्ती जिले के बहादुरपुर ब्लॉक में ऐतिहासिक मनोरमा नदी के तट पर बसे और हथकरघों का केंद्र रहे महुआडाबर गांव का वाकया इतना अनूठा और अलग है कि पुराना पड़ जाने के बावजूद अब तक जनश्रुतियों का हिस्सा बना हुआ है।

दरअसल, 1857 में दस जून को अवध के फैजाबाद जिले से बिहार के दानापुर जा रही ब्रिटिश सेना कोई पांच हजार की आबादी वाले इस गांव के निकट पहुंची तो बागी ग्रामीणों में उसे लेकर जाने कितना गुस्सा भरा हुआ था कि उन्होंने उसे असावधान पाकर आव देखा न ताव, चारों ओर से घेरकर उस पर हमला बोल दिया। ऐसा विकट हमला, जिसमें न सिर्फ उसे उलटे पांव लौटने को मजबूर होना पड़ा, बल्कि पांच लेफ्टिनेंटों क्रमशः लिंडसे, थामस, इंग्लिश, रिची व काकल के साथ सार्जेंट एडवर्ड की जानें भी चली गईं। 

सच पूछिए तो आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित उस नियमित सेना के लिए यह डूब मरने जैसी बात थी कि वह ग्रामीणों से अप्रत्याशित मुकाबले में उनके लाठियों, भालों व बर्छियों जैसे पारंपरिक हथियारों से भी पार नहीं पा सकी और शिकस्त खाकर बिखर गई। लेकिन उसका सार्जेंट बुशर किसी तरह अपनी जान बचाकर भागने में सफल हो गया तो उसने खुद को खुशकिस्मत समझ ईश्वर को धन्यवाद दिया और शर्मिंदगी का तमगा गले में लटकाए हुए सैन्य शिविर में जाकर वरिष्ठ अधिकारियों को वस्तुस्थिति की जानकारी दी। लेकिन उन अधिकारियों ने, संभवतः रणनीति के तौर पर, और कुमुक लेकर उक्त बागी गांव पर फौरन धावा बोलने से परहेज रखा।

दस दिनों तक इंतजार करने के बाद 20 जून को ,जब उन्होंने समझा कि अब ग्रामीण असावधान हो चुके होंगे, डिप्टी मैजिस्ट्रेट विलियम्स पेपे के नेतृत्व में घुड़सवार सैनिकों से घिरवाकर समूचे गांव में आग लगवा दी। इस अग्निकांड में कितने ग्रामीणों की बलि चढ़ी, कितनी मांओं की गोद सूनी हुई, कितने बच्चे यतीम हुए और कितने सुहाग उजड़ गए, इतिहास की पुस्तकों में इसकी कोई तफसील दर्ज नहीं है। अलबत्ता, ये पुस्तकें बताती हैं कि उस दिन की बदले की कार्रवाई में ब्रिटिश सेना ने गांव के जले हुए मकानों, मस्जिदों व हथकरघों को सायास जमींदोज कर डाला और उसके बाहर एक बोर्ड लगाकर उस पर लिखा दिया था-‘गैरचिरागी’।

यही नहीं लौटते हुए अंग्रेजी सेना पड़ोसी गांव के पांच निवासियों- गुलाम खान, गुलजार खान, निहाल खान, घीसा खान व बदलू खान को अपने साथ लेती आई। महुआडाबर के ग्रामीणों को भड़काने के आरोप में इन पांचो पर मुकदमे चलाए गए और 18 फरवरी, 1858 को इन सबको फांसी दे दी गई। 

ब्रिटिश अधिकारियों की प्रतिहिंसा इतने से ही संतुष्ट हो जाती तो भी गनीमत थी। उन्होंने तब तक चैन नहीं लिया, जब तक सरकारी नक्शों व रिपोर्टों से महुआडाबर का नाम तक नहीं मिटा दिया गया। इसीलिए आज की तारीख में किसी गजेटियर में भी उस गांव का जिक्र नहीं मिलता। 


हां, जानें क्यों इस कांड के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने इस गांव से पचास किलोमीटर दूर बस्ती और गोंडा जिलों की सीमा पर गौर ब्लॉक में बभनान के पास महुआडाबर नाम से ही नया गांव बसा दिया, जो आज भी आबाद है।

http://epaper.navbharattimes.com/details/75933-75599-2.html





 ~विजय राजबली माथुर ©

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