Friday, June 19, 2020

मंजुल भारद्वाज की कविताओं ने मोड़ा राजनैतिक बहस का रुख ! ------ सायली पावसकर ,रंगकर्मी

  
मंजुल भारद्वाज की कविताओं ने मोड़ा राजनैतिक बहस का रुख !




आपदा मनुष्य को एक नयी पहचान देती है। आज की विकट स्थिति ने समाज, मानव प्रकृति और व्यवस्था के असली चेहरे को उजागर किया है, ऐसी स्थिति आमतौर पर हमारे सामने नहीं आती और यह दुनिया के इतिहास में पहली बार है (कम से कम मेरे जीवन में मैंने इसे पहली बार देखा और अनुभव किया है) जहां सत्ता, संविधान, व्यवस्था, सामाजिक स्थिति, मानवी प्रवृत्ति के विभिन्न पहलू सामने आ रहें हैं।



आज, पूरे विश्व के सामने प्रकृति में हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप, 'कोरोना' यह आपदा हमारे सामने है।  इस आपदा ने पूरी दुनिया में एक बड़ी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक तबाही का प्रभाव डाला है।  यह तबाही बिना किसी भेदभाव के सभी को प्रभावित कर रही है।  जीवन बचाने का संघर्ष सभी का अनवरत जारी है।



उत्पन्न हुई आपदा के कारण समाज में सभी लोग जिम्मेदारी से काम कर रहें हैं।  स्वास्थ्य कर्मी जान बचाने के लिए काम कर रहें हैं। जरूरतमंदों की मदद के लिए सेवार्थी संगठन कार्य कर रहें हैं। लेकिन मौलिक मानवी अधिकारों के लिए कौन लड़ रहा है? जो स्थिति उत्पन्न हुई है, उसकी जड़ में कौन जा रहा है?  उसका निष्पक्ष विश्लेषण कौन कर रहा है?



किसी आपदा से उभरने के लिए समेकित प्रयास की आवश्यकता है । आज हमारे पास कितना भी धन या विलासिता क्यों न हो, स्वास्थ्य सेवाएं और कल्याणकारी राज्य संस्थाएं बहुमूल्य संसाधन हैं और ऐसी आपदाओं के समय उनकी अपरिहार्यता सिद्ध होती है। आज काल इंसानों पर कहर ढा रहा है, लेकिन इस काल को इंसान ने स्वयं निर्माण किया है।  मानवता को नष्ट करनेवाला यह भूमंडलीकरण का भयावह काल है!



फासीवादी शासन और उनका शासक, लोकतंत्र का भीड़तंत्र में परिवर्तन होना, धार्मिक रंगों के साथ समाज को लगातार विभाजित करती पूंजीवादी दलालों की मीडिया, समाज संवेदनहीन हो रहा है, वहाँ "मानवता" अपनी अंतिम सांसे ले रही है । इन आपदाओं से निपटने के दौरान हमारी व्यवस्था की खामियां हमारे सामने आयी हैं।  अब मुख्य मुद्दा यह है कि क्या इन खामियों को नजरअंदाज किया जाए या उन्हें महत्वपूर्ण बिंदुओं के रूप में प्रस्तुत किया जाए।  इस तरह के और कई मुद्दे सामने आने हैं, लेकिन वे सामने नहीं आ पाते।



ऐसे समय में, कलाकार, रचनाकार, नाटककार और साहित्यकार इनकी विशेष भूमिका है, जहाँ वे अपनी कला को माध्यम बनाते हुए अपने साहित्य रचनाओं के माध्यम से हेतुपूर्ण मौलिक प्रश्न, मौलिक अधिकार और उद्देश्य प्रस्तुत करेंगे। कलासत्व को मानवता के लिए एवं विश्व के सौहार्द के लिए रचनेवाले सृजनकार शाश्वत विचार स्वरूप इस काल से लड़ते हैं । इसी भूमिका के लिए रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज प्रतिबद्ध हैं ।



मजदूरों के साथ हो रहे इस घातक प्रकरण के बारे में सभी को सहानुभूति है । आज के परिस्थिति में भी मजदूरों के मुद्दे, उनके प्रश्न विकास के जुमलों में फंसे हैं। पहले ही मजदूरों कि यह हालत, उसपर उनके मौलिक अधिकारों का हनन, इससे यह स्पष्ट होता है कि, मजदूरों का इस यंत्रणा में कोई स्थान नहीं।



इस तथ्य से कोई इनकार नहीं करता है कि यह बीमारी ऊपरी और मध्यम वर्गों से शोषित-गरीब वर्गों तक फैल गई है।  फिर भी, गरीब और मजदूर, शोषित और पीड़ित हैं।  कुल मिलाकर, यह स्पष्ट है कि नव-उदारवादी व्यवस्था में, राजनैतिक क्षेत्र और समाज में श्रमिकों के लिए कोई सहवेदना नहीं बची है।  क्योंकि राजनैतिक कोष होने के बावजूद, मजदूर चलने के लिए मजबूर हैं।  भले ही धान के गोदाम भरे पड़े हैं, फिर भी भुखमरी होती है।  यह भूमंडलीकरण का भयावह सच है।



मंजुल भारद्वाज सर के अंदर बेचैनी थी, उनके अंदर का एक हिस्सा जहां विश्वास था, आस्था थी। उन्होंने इस तबाही में संसद, न्यायपालिका, इनके संवेदनहीनता को महसूस किया ।  सत्ता और पूंजीवादी व्यवस्था नग्न रूप में सामने आ गए। लॉकडाउन में प्रगतिशील, बुद्धिजीवी, परिवर्तनवादी, मध्यम वर्ग सभी घर में तालेबंद हैं।  लेकिन ये मजदूर जहां मार्ग दिखा, उस दिशा में चल रहें हैं, तेज धूप में भोजन और पानी के बिना।  क्योंकि वे सरकार की शर्तों पर जीने को तैयार नहीं हैं।  वे जानवरों की तरह नहीं रहना चाहते। वे नए तरीके खोज रहें हैं और यह उनका एक सचेत आंदोलन है।  यह नयी, अनोखी, अलग दृष्टि मंजुल जी की कविता से व्यक्त होती है।



जहां मध्यम वर्ग इस बात पर सहमत था कि थाली और ताली पिट कर, दीये जलाकर सब कुछ पहले जैसे हो जाएगा, वहां सरकार मजदूरों के पहल से हिल गई। मजदूरों ने सरकार को जवाबदेही के लिए मजबूर किया।



एकांत की परिधि को भेदते हुए यह कवि अपने जीवित होने का अर्थ तलाश रहा है।  वह मानवीय प्रवृत्ति, यथार्थ, संवेदनाओं, पाखंडी सत्ता और मृत्यु का वर्णन अपनी काव्य रचनाओ में उजागर करता है।



अपने ज़िंदा होने पर शर्मिंदा हूँ !

- मंजुल भारद्वाज



आजकल मैं श्मशान में हूँ

कब्रिस्तान में हूँ



सरकार का मुखिया हत्यारा है

सरकार हत्यारी है



अपने नागरिकों को मार रही है

सरकारी अमला गिद्ध है



नोंच रहा है मृत लाशों को

देश का मुखिया गुफ़ा में छिपा है



भक्त अभी भी कीर्तन कर रहे हैं

इस त्रासदी पर



देश की सेना पुष्प वर्षा कर रही है

बैंड बजा रही है



मैं हूँ जलाई और दफनाई

लाशें गिन रहा हूँ



रोज़ ज़िंदा होने की

शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूँ



क्या क्या गुमान था

कोई संविधान था



कोई न्याय का मंदिर था

एक संसद थी



कभी एक लोकतंत्र था

आज सभी मर चुके हैं



ज़िंदा है सिर्फ़ मौत !



मजदूरों के सत्याग्रह ने जीवन संघर्ष की मशाल जलाई। इसने मृत लोकतंत्र को पुनर्जीवित किया।  आज, उन्होंने अपनी विवशता को अपना हथियार बना लिया है, मौत से लड़ रहें हैं। जीने के लिए, मानवता को जिंदा रखने के लिए !



अंतिम व्यक्ति लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहा है!

 - मंजुल भारद्वाज



भारतीय समाज और व्यवस्था का

अंतिम व्यक्ति चल रहा है



वो रहमो करम पर नहीं

अपने श्रम पर

ज़िंदा रहना चाहता है



व्यवस्था और सरकार

उसे घोंट कर मारना चाहती है

अपने टुकड़ों पर आश्रित करना चाहती है

उसे खोखले वादों से निपटाना चाहती है



अंतिम व्यक्ति का विश्वास

सरकार से उठ चुका है

उसे अपने श्रम शक्ति पर भरोसा है



जब भगवान, अल्लाह के

दरबार बन्द हैं

उनकी ठेकेदारी करने वाली

यूनियन लापता हैं

तब अंतिम व्यक्ति ने

अपनी विवशता को ताक़त में बदला है



मरना निश्चीत है तो

स्वाभिमान से जीने का संघर्ष हो

अंतिम व्यक्ति अपनी मंज़िल पर चल पड़ा है



वो हिंसक नहीं है

पुलिस और व्यवस्था की हिंसा सह रहा है

मुख्य रास्तों की नाका बन्दी तोड़

नए रास्तों पर चल रहा है



उसके इस अहिंसक सत्याग्रह ने

सरकार को नंगा कर दिया है

सोशल मीडिया, ट्विटर ट्रेंड के

छद्म को ध्वस्त कर दिया है

गोदी मीडिया को 70 महीने में

पहली बार निरर्थक कर दिया है



अंतिम व्यक्ति का

यह सविनय अवज्ञा आंदोलन है

लोकतंत्र की आज़ादी के लिए

वो कभी भूख से मर रहा है

कभी हाईवे पर कुचला जा रहा है

कहीं रेल की पटरी पर मर रहा है

पर अंतिम व्यक्ति चल रहा है



जब मध्यम वर्ग अपने पिंजरों में

दिन रात कैद है

तब भी यह अंतिम व्यक्ति

दिन रात चल रहा है



सरकार को मजबूर कर रहा है

अपनी कुर्बानी से मध्यम वर्ग के

ज़मीर को कुरेद रहा है



ज़रा सोचिए देश बन्दी में

यह अंतिम व्यक्ति लोकतंत्र के लिए

लड़ रहा है

यह गांधी की तरह

अपनी विवशता को

अपना हथियार बना रहा है

शायद गांधी को पहले से पता था

उसके लोकतंत्र और विवेक का

वारिसदार अंतिम व्यक्ति होगा !



गांधी ने कहा था, गांव की ओर चलो !  गांधी के इन शब्दों को आज मजदूरों ने सार्थक किया है।  गांधी का विचार है कि देश की वास्तविक प्रगति ग्रामीण विकास पर आधारित हो।  मजदूरों के इस सत्याग्रह ने बताया कि आत्मनिर्भरता की असली जड़ गांव में है।  (इसीलिए संकट के समय सभी लोग अपने गांव गए)।  यदि गांवों में शाश्वत विकास की जड़ें मजबूत होती, तो मजदूरों को अपने गांवों, घरों और परिवारों को छोड़कर परजीवी शहरों में आने की आवश्यकता ही नहीं होती।



उपरोक्त कविता की रचना उसी अंतिम व्यक्ति के बारे में है, जो गांधी का अंतिम (हाशिये का व्यक्ति) व्यक्ति, कार्ल मार्क्स का सर्वहारा और अंबेडकर का शोषित व्यक्ति है।  गांधी ने इस हाशिये के व्यक्ति को राजनैतिक प्रक्रिया से जोड़ा और भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाया। अंबेडकर ने जातिवाद के शोषण और शोषितों के दमन को उजागर किया। जन्म के संयोग को चुनौती दी और व्यवस्था में सहभागी होने के लिए समान अधिकार प्राप्त कराए।  कार्ल मार्क्स ने वर्ग संघर्ष की रूपरेखा को तोड़कर सर्वहारा की सत्ता को स्थापित करने का सूत्र दिया।



आज के इस दौर में जहां बाजारवाद, भूमंडलीकरण लोकतंत्र के मूल्यों को नष्ट कर रहा है, जहां समाज असंवेदनशील होकर तालियां और थालियां बजा रहा है, जहां जनप्रतिनिधि बुनियादी, कल्याणकारी सेवाएं प्रदान करने के बजाय केवल घोषणा कर रहें हैं, वहां मजदूर गांधी के अहिंसा के मार्ग का अनुसरण कर रहें हैं।  इस विचार को ध्यान में रखते हुए, मंजुल भारद्वाज जैसे रचनाकार अपने कार्यों से न्याय, समता और समानता के मूल्यों को भारतीय लोकतंत्र के जड़ों से जोड़  कर नए राजनैतिक सूत्रपात को प्रस्थापित कर रहें हैं।



इन मुद्दों का यहां पूरी तरह से विश्लेषण हो, कि जीन मजदूरों के नाम पर इतने सारे ट्रेड यूनियन और मजदूर यूनियन खड़े हैं, वे श्रमिकों में इस दृष्टि को जागृत करने और उन्हें अपनी ताकत का एहसास कराने में सक्षम नहीं हो पाए। "यूनियन" मालिकों और सरकार से लड़ती है।  मजदूर यूनियन पेंशन और अधिकारों के लिए लड़ती है। पैदल चलते इस सत्याग्रह की शुरुआत किसी ने नहीं की थी। घर जाने की उनकी प्रतिबद्धता, यह उनके होने की और उनके सुरक्षा की प्राथमिकता थी।  इसीलिए ये मजदूर बिना किसी आंदोलन या मोर्चा के संगठित हुए।



भारत आत्मनिर्भर था जब गांव समृद्ध थे। गांव के किसान आज भी विश्व के पोषणकर्ता हैं। राजनैतिक वर्चस्ववाद ने, अपने विकास को बेचने के लिए नव उदारवादी विचारों से शहर निर्माण किए। परजीवी शहरों ने भूमंडलीकरण के बाजारों को सींचा। आजभी अपने गांव स्वावलंबी हैं। हमारे सत्ताधीश जिस आत्मनिर्भरता की बात कर रहें हैं, उनका खोखलापन और भाषणबाजी की निरर्थकता को दर्शाने वाली यह रचना .. 



क्रूर मज़ाक और मौन भारत!

-       मंजुल भारद्वाज



थोथा चना बजा घना



मज़दूरों की मौत

मज़दूरों का पलायन

और

‘आत्म निर्भर भारत’

मोदी का क्रूर मज़ाक !



अंतर जान लीजिये

संसाधन हीन मज़दूर

साधन सम्पन्न मोदी

संकल्प हीन मोदी

संकल्पबद्ध मज़दूर



रस्ते पर बच्चे को

जन्म देती माँ

ग़रीबों को बच्चों को

मौत देता मोदी



श्रमिकों को बर्बाद करने के लिए

12 घंटे का बंधुआ गुलाम बनाता मोदी

पूंजीपतियों को 20लाख करोड़



मज़दूर रस्ते पर पैसे पैसे को मोहताज़

संकट काल में

देश में निर्मित चप्पल पर

चलता आत्म निर्भर भारत



मौन भारत ने आज

अपने टीवी पर

फिर सुना 

प्रधान का क्रूर मज़ाक है !





मैं पिछले कुछ दिनों से इस प्रणाली की कमज़ोरी को महसूस कर रही हूँ, हम सभी कोरोना के साथ अपने जुनून और अथक प्रयासों से लड़ रहें हैं।  लेकिन भूख, भय, भ्रम और मूल कारणों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय दिशा बदलने के कई प्रयास सामने आ रहें हैं।  संवेदनहीन होकर मन को परेशान करने वाले सवालों को अनदेखा नहीं कर सकते, उन्हें अपनी कला के माध्यम से, रचनाओं के माध्यम से, हम रंगकर्मी अभिव्यक्त कर रहें हैं,  इनपर चर्चा - विचार मंथन करके इन मुद्दों को एक सार्थक दिशा दे रहें हैं जिससे हम भी स्वस्थ रहें और विश्व भी।



सच हमेशा कड़वा होता है इसलिए सच्चाई को सवालों के स्वरूप में सामने रखना पड़ता है, जिसकी आज जरूरत है।  आज व्यवस्था के खोखलेपन पर प्रश्न उठाना आवश्यक है, क्योंकि यदि इन प्रश्नों का अब हल नहीं निकाला, तो वे अधिक भयानक रूप में सामने आएंगे।  इसलिए मेरे लिए इन सवालों को स्वीकारना और इनका सामना करना बहुत सकारात्मक है।  इन कविताओं के माध्यम से, कवि हम सभी से पूछता है कि हम इन सवालों में, यथार्थ में, न्याय और समता के कलात्मक रंगकर्म में और मजदूरों के संघर्ष में कहां हैं ?



रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज ऐसे नाटककार हैं जो प्रश्न उपस्थित करते हैं और सभी को उत्तर खोजने के लिए प्रेरित करते हैं।  पैदल चलते श्रमिकों ने अपने कृति के माध्यम से कई सवाल उठाए हैं। उन्ही प्रश्नों के माध्यम से व्यवस्था को जगाने के लिए वे निरंतर कार्यरत हैं।



समाज की इस फ्रोज़न स्टेट को तोड़ने के लिए, रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज की यह काव्यात्मक रचना -



मज़दूरों को पूछना चाहिए था!

 -  मंजुल भारद्वाज



मज़दूर और गरीब अपने आप

निर्णय नहीं ले सकते

उन्हें अपने मालिकों से

पूछना चाहिए था



मालिक से नहीं तो

अपनी चुनावी रैली में

ट्रकों और बसों में बिठाकर

भीड़ बनाने वाले नेताओं से

पूछना चाहिए था



नेताओं से नहीं पूछा तो

पढ़े लिखे सभ्य नागरिकों से

जो WHO की सलाह पर

सामाजिक दूरी जैसे

नस्लवादी, जाति वादी

नारे को प्रसारित कर थे

उनसे पूछना चाहिए था



हाथ धोने की सलाह का

प्रसार करने वाले मध्यमवर्ग से

पूछना चाहिए था



भगवान के बन्द दरवाजों पर जाकर

पूछना चाहिए था

सरकार को

समाज को सलाह देने वाले

बुद्धिजीवियों से

पूछना चाहिए था



समाज को आईना दिखाने वाले

मनुष्य के दुःख, सुख लिखने वाले

कवियों, साहित्यकारों

मनोरंजन के नाम पर

भावनाओं का व्यापार करने वाले

कलाकारों से पूछना चाहिए था



कमबख्त मजदूरों ने

किसी यूनियन के नेता से भी नहीं पूछा

बिना विचार किए

संगठन बनाए

निकल गए पैदल भूखे प्यासे

अपने घरों की ओर



कैसे कर सकते हैं मज़दूर ऐसे?

मज़दूरों ने बिना पूछे बगावत कर दी

इसका मलाल है

गहरा दुख है

समाज के ठेकेदारों को!



कैसे पुलिस के डंडे से

नहीं टूटे मज़दूर

भूख से मर गए

पर नहीं रुके मज़दूर

कट गए पर

नहीं रुके मज़दूर

खुद मरे

पर जुमला सरकार का

कफ़न बुन गए

अपने श्रम से

मरे हुए लोकतंत्र को

ज़िंदा कर गए

पैरों से बहते खून से

मज़दूर पूरे देश की सड़कों पर

इंकलाब लिख गए!



इन पैदल चलनेवाले मजदूरों ने बुद्धिजीवियों और परिवर्तनवादीयों के अहंकार को धराशाही कर दिया। नैतिक - सभ्य, सुसंस्कृत समाज को मानवीय भावनाओं से अवगत कराया, मृत समाज की आत्मा को जगाया। घर के पिंजरे में फंसे व्यक्ति को मानव होने का एहसास दिलाया। यह तय है कि कवि की कविता ने एक राजनैतिक सूत्रपात प्रस्थापित किया है जिसपर आज समाज चल रहा है। श्रमिकों के जीवन संघर्ष को देखने की दृष्टि बदल गयी। आज, देश इस कवि की रचना से प्रेरित है, और राजनैतिक परिवेश में इनकी क्रांतिकारी कविता पर चर्चा संवाद हो रहा है।



मजदूर संगठना और उनके प्रतिनिधि इस कविता के माध्यम से अपने राजनैतिक परिदृश्य का विश्लेषण कर रहें हैं। नाटककार - कलाकार वास्तव में मजदूरों के मुद्दों पर क्या समाधान है, इस पर संवाद कर रहें हैं। संपादक और पत्रकार मजदूरों के मुद्दों को प्रार्थमिकता दे रहें हैं। राजनैतिक कार्यकर्ता लोकतंत्र की अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए इन कविताओं के आधार पर संवाद शुरू कर रहें हैं। संक्षेप में, समाज की जड़ता (मानसिकता) टूट रही है।



रंगकर्म, कला और राजनीति का सीधा संबंध है। मूल रूप से, कला और कलाकार विद्रोही है। रंगकर्म मूल रूप से एक राजनैतिक कर्म है। यहाँ कवि ने रचनाकार एवं नाटककार की भूमिका स्पष्ट की है। रंगकर्म सत्याग्रह है, सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध है।



सांस्कृतिक चेतना का दिया जलने के लिए अहिंसात्मक सत्याग्रह जैसे आज की घड़ी में मजदूर कर रहें हैं। राज्य प्रणाली नीतियों और नियमों को बनाती है और कला मनुष्य को मनुष्य बनाती है। रंगकर्मी, रचनाकार, साहित्यकार सत्ता द्वारा दी गई अवधारणाओं को स्वीकार करते हैं और रंग दृष्टि अवधारणाओं को तोड़ती है। रंगकर्म की भूमिका क्या है, इस रचना में लिखी है।



कला दृष्टिगत सृजन

राजनीति सत का कर्म!

-       मंजुल भारद्वाज



कला आत्म उन्मुक्तता की सृजन यात्रा

राजनीति सत्ता,व्यवस्था की जड़ता को

तोड़ने का नीतिगत मार्ग



कला मनुष्य को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया

राजनीति मनुष्य के शोषण का मुक्ति मार्ग



कला अमूर्त का मूर्त रूप

राजनीति सत्ता का स्वरूप



कला सत्ता के ख़िलाफ़ विद्रोह

कला संवाद का सौन्दर्यशास्त्र

राजनीति व्यवस्था परिवर्तन का अस्त्र



कला और राजनीति एक दूसरे के पूरक

बाज़ार कला के सृजन को खरीदता है

सत्ता राजनीति के सत को दबाती है



जिसकी चेतना राजनीति से अनभिज्ञ हो

वो कलाकार नहीं



चाहे बाज़ार उसे सदी का महानायक बना दे

झूठा और प्रपंची सत्ताधीश



चाहे लोकतंत्र की कमजोरी

संख्याबल का फायदा उठाकर



देश का प्रधानमन्त्री बन जाए

पर वो राजनीतिज्ञ नहीं बनता



राजनीतिज्ञ सर्वसमावेशी होता है

सत उसका मर्म एवं संबल होता है



कलाकार पात्र के दर्द को जीता है

राजनीतिज्ञ जनता के दुःख दर्द को मिटाता है



कलाकार और राजनीतिज्ञ जनता की

संवेदनाओं से खेलते नहीं है

उसका समाधान करते हैं



कलाकार व्यक्ति के माध्यम से

समाज की चेतना जगाता है

राजनीति व्यवस्था का मंथन करती है



कला मंथन के विष को पीती है

राजनीति अमृत से व्यवस्था को मानवीय बनाती है



कला एक मर्म

राजनीति एक नीतिगत चैतन्य



दोनों एक दूसरे के पूरक

जहाँ कला सिर्फ़ नाचने गाने तक सीमित हो

वहां नाचने गाने वाले जिस्मों को



सत्ता अपने दरबार में

जयकारा लगाने के लिए पालती है



जहाँ राजनीति का सत विलुप्त हो

वहां झूठा,अहमक और अहंकारी सत्ताधीश होता हो



वहां जनता त्राहिमाम करती है

समाज में भय और देश में युद्धोउन्माद होता है



हर नीतिगत या संवैधानिक संस्था को

ढाह दिया जाता है



इसलिए

कला दृष्टि सम्पन्न सृजन साधना है

और

राजनीति सत्ता का सत है

दृष्टि का सृष्टिगत स्वरूप है

दोनों काल को गढ़ने की प्रकिया

दोनों मनुष्य की ‘इंसानी’ प्रक्रिया ...!



देश की सरहद पर दुश्मनों को खत्म करने वाले, सीमा पर अपना लहू बहाने वाले जवान और लहूलुहान कदमों से भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने वाले, देश के भीतर के शत्रु को राष्ट्रहित का पाठ पढ़ाने वाले, दमनकारी सत्ता के खिलाफ लड़ने वाले मजदूर एक समान हैं। यह दृष्टि देने वाली रचना -



सरहद पर सैनिक और सड़क पर चलता मज़दूर

-       मंजुल भारद्वाज



1

दर्द की चाशनी में पगी

कविता लिखी जा रही है

खूब पढ़ी जा रही हैं

आभासी पटल पर वायरल हैं

पढने वाले दर्द से व्याकुल हो

खूब रो रहे हैं

कवि अभिभूत हैं !



2

कवि दर्द को पिरो

अपने असहाय होने की

गाथा लिख रहा है

अपनी निरर्थकता को

स्वीकार कर रहा है

प्रबुद्ध वर्ग इससे अभिभूत है!



3

पर दर्द सहने

दर्द देने वाले को

साफ़ साफ़ किस चश्में से

कौन कवि देख रहा है?

यह कविता से नदारद है

जैसे शरीर से रीढ़!



4

दर्द के यह शब्द बहादुर कवि

क्या बर्फ़ में पिघलते गलते

सैनिकों को भी लाचार

विवश,विचार हीन,मज़बूर

बताने की हिम्मत करेगें?

या

देश भक्ति में उनके

संघर्ष,साहस,वीरता का

वीर रस में गुणगान करेंगे

क्योंकि वो सरहद पर

दुश्मन से लड़ते हैं

पर

देश के अंदर

देश की सत्ता पर बैठे

संविधान और लोकतंत्र के विध्वंसक से

संघर्ष करने वाले मज़दूर

बदहवास हैं

लाचार हैं

विचार हीन हैं

क्यों?



रंगों का अर्थ, मर्म और अभिव्यक्ति का कर्म को समझने वाले ही "रंगकर्मी" हैं .. विवेक, समग्रता, शोषितों की पक्षधरता .. विकारों पर विचारों की विजय .. यही जीवन की दृष्टि है ... जब जीवन दृष्टि 'रंग' को 'कर्म' से आलोकित करती है तब कलात्मक संवेदनाओं से समानता और न्याय की दृष्टि निर्माण होती है!

- मंजुल भारद्वाज



मंजुल भारद्वाज की काव्यरचना भारतीय लोकतंत्र और राजनीति के परिपेक्ष में गहरा प्रभाव डाल रही है। जिससे संविधान की जड़ें और मजबूत बनेंगी यह सुनिश्चित है।



बदलाव के लिए एक वैचारिक चिंगारी अनिवार्य है। इस वैचारिक चिंगारी को "थिएटर ऑफ़ रेलेवेंस" नाटक सिद्धांत  विगत 28 वर्षों से लोगों के मन में उद्वेलित कर रहा है। हाँ, हम रंगकर्मीयों का यह दृढ़ विश्वास और दृढ़ संकल्प है कि सांस्कृतिक चेतना को जागृत करने वाली ऐसी ज्वलंत रचनाओं से सांस्कृतिक क्रांति का उदय अवश्य होगा !






लेखिका ------
सायली पावसकर


रंगकर्मी



~विजय राजबली माथुर ©

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