Pradeep Sharma
03-06-2020
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर #अमेरिका में चल रहे आन्दोलन और उसके संदर्भ में भारत में #मज़दूरों और मेहनतकश आवाम द्वारा इतना क्रूर हमला होने पर कोई छटपटाहट न होने की #पोस्ट खूब दिख रही है ।
यह पोस्ट जायज़ सवाल उठाती हैं लेकिन इसकी विवेचना के लिए देश की हालात और कसौटियों को भी समझना होगा । भारत में #कमज़ोर तबके के अंदर #शोषण और #उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लड़ने का जज़्बा जो कभी हुआ करता था, जो उन्मांद भावनाओं के रूप में उभरता भी था , उसको योजनाबद्ध तरीके से बिल्कुल #ठंडा कर दिया गया है । शासक वर्ग के साथ साथ इसमे तमाम दूसरी राजनीतिक ताकतों की भी भूमिका है जिन्होंने इनके अंदर की आंच को सामाजिक न्याय के नारे के साथ मंदा हो जाने दिया । बड़ी पूंजी और कॉर्पोरेट ने बड़े योजनाबद्ध तरीके से क्रांतिकारी बदलाव को रोकने के लिए #विदेशी #पूंजी से संचालित होने वाले तमाम #संगठन , #संस्थाएं , #ngo विकसित किये जिन्होंने पूरे वंचित तबकों की लड़ाई को बुनियादी मुद्दों पर बदलाव की लड़ाई के स्थान पर #राहत दिलाने की लड़ाई में बदल दिया , लोगों को भी लड़ने की जगह सहने और थोड़ा सी #राहत पाने की आदत हो गयी । #सामाजिक #न्याय की बात करने वालों की नई पौध ने भी उनके अंदर लड़ने और बदलने की जिजीविषा को ही खत्म कर दिया वो भी #बहनजी और #भैया को सत्ता में लानें को ही अपने उत्पीड़न और शोषण के विकल्प के रूप में देखने लगे ।
पीड़ित और वंचित तबको की भीड़ अगर किसी वैचारिक रूप से बदलाव की ताक़त के साथ लामबद्ध नही है तो वो प्रायः #lumpin ही होती है जो #क्रांतिकारी बदलाव की लड़ाई से बहुत दूर होती है और जिसका इस्तेमाल प्रायः #दंगे और #बलवे में किया जाता है । #मार्क्स ने कहा था कि #class in itself तथा class for itself में बहुत अंतर होता है । इस अंतर को विकसित करने के #वर्गीय_संघर्ष को तीव्र करते रहने की ज़रूरत है जिससे वंचित तबकों में वर्ग चेतना विकसित हो सके ।
ऐसा नही हो पाया उसमे बहुत से कारण हैं पर उतने विस्तार से इस पोस्ट में नही ।
कोरोना काल में स्वंतंत्र भारत का सबसे बड़ा हमला मज़दूरों पर हुआ , #लॉकडाउन ने उनको पूरी तरह तबाह और बर्बाद कर दिया। किस तरह अपने ही देश में बेगाने हो गए , अपने ही घर जाने के लिए हजारों हज़ार किलोमीटर पैदल चलना पड़ा , कितने भूख से मरे , कितने ट्रक से कुचल कर तो कितने रेल से कटकर ।
इन मज़दूरों की बर्दाश्त करने की आदत और सहनशक्ति का अंदाज़ा इस लॉक डाउन से बखूबी लगाया जा सकता है हज़ारों मज़दूरों की भीड़ को कुछ चंद सिपाहियों द्वारा #disinfect से नहलाया जाता है ,वो प्रतिरोध भी नही करते क्योंकि वो प्रतिरोध की आग बुझ चुकी है ।
आज यह सोचने भी शर्म आती है कि हम उनके वारिस है जिन्होंने अंग्रेजी साम्राज्यवाद को घूँटने पर ला दिया था। आज का भारत उस आज़ादी की लड़ाई से निकली विरासत का प्रतिनिधि है । वो दौर में भी आपदा आयी थी लेकिन तब के राजनैतिक लोग सरकार के #कानूनों को मानकर किंककर्तव्यबिमूढ़ हो कर नही बैठे , वो कानून तोड़ने का दौर था ।
आज भी जब कोरोना की आड़ में मज़दूरों और वंचित तबकों पर हमला हुआ तो तमाम राजनैतिक पार्टियां और संगठन सरकार के दिशा निर्देशों के पालन के नाम पर अपने अपने घरों में isolate थे या कुछ जनता के बीच राहत बांटने से अपने अपराधबोध छुपा रहे थे । जब मज़दूर सड़क पर बदहाल और बदहवास था तब यह सरकारी नियमों के पालन में व्यस्त थे । यह दौर मज़दूर पर हो रहे हमले के खिलाफ #नियम ,कानून और दिशा निर्देश तोड़ने और बड़े #सविनय_अवज्ञा_आंदोलन शुरू करने का था ।
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~विजय राजबली माथुर ©
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