प्रशांत किशोर जैसे लोग इस तथ्य के प्रतीक हैं कि भारतीय राजनीति किस तरह जनता और उसकी वास्तविक समस्याओं से पलायन कर एक छद्म माहौल की रचना के सहारे वोटों की फसल काटने की अभ्यस्त होती जा रही है।
यह अकेले कोई भारत की ही बात नहीं है। चुनाव अब एक राजनीतिक प्रक्रिया से अधिक प्रबंधन का खेल बन गया है और यह खेल अमेरिका से लेकर यूरोप के देशों तक में खूब खेला जाने लगा है।
ऐसा प्रबंधन, जिसमें मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिये भ्रम की कुहेलिका रची जाती है, छद्म नायकों का निर्माण किया जाता है और उनमें जीवन-जगत के उद्धारक की छवि देखने के लिये जनता को प्रेरित किया जाता है।
दुनिया में कितनी सारी कंपनियां हैं जो राजनीतिक दलों को चुनाव लड़वाने का ठेका लेती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव हो या ब्राजील, तुर्की से लेकर सुदूर फिलीपींस के राष्ट्रपति का चुनाव हो, इन कंपनियों ने नेताओं का ठेका लेकर जनता को भ्रमित करने में अपनी जिस कुशलता का परिचय दिया है उसने राजनीति को प्रवृत्तिगत स्तरों पर बदल कर रख दिया है।
जैसे, बाजार में कोई नया प्रोडक्ट लांच होता है तो उसकी स्वीकार्यता बढाने के लिये पेशेवर प्रबंधकों की टीम तरह-तरह के स्लोगन लाती है। ये स्लोगन धीरे-धीरे लोगों के अचेतन में प्रवेश करने लगते हैं और उन्हें लगने लगता है कि यह नहीं लिया तो जीवन क्या जिया।
भारत में नरेंद्र मोदी राजनीति की इस जनविरोधी प्रवृत्ति की पहली उल्लेखनीय पैदावार हैं जिनकी छवि के निर्माण के लिये न जाने कितने अरब रुपये खर्च किये गए और स्थापित किया गया कि मोदी अगर नहीं लाए गए तो देश अब गर्त्त में गया ही समझो।
प्रशांत किशोर इस मोदी लाओ अभियान के प्रमुख रणनीतिकारों में थे। तब उन्होंने मोदी की उस छवि के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था जो राष्ट्रवाद, विकासवाद और हिंदूवाद के घालमेल के सहारे गढ़ी गई थी।
सूचना क्रांति के विस्तार ने प्रशांत किशोर जैसों की राह आसान की क्योंकि जनता से सीधे संवाद के नए और प्रभावी माध्यमों ने प्रोपेगेंडा रचना आसान बना दिया था।
अच्छे दिन, दो करोड़ नौकरियाँ सालाना, चाय पर चर्चा, महंगाई पर लगाम, मोदी की थ्रीडी इमेज के साथ चुनावी सभाएं आदि का छद्म रचने में प्रशांत किशोर की बड़ी भूमिका मानी जाती है।
वही किशोर अगले ही साल "बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है" का स्लोगन लेकर बिहार विधानसभा चुनाव में मोदी की पार्टी के विरोध में चुनावी व्यूह रचना करते नजर आए।
दरअसल, ठेकेदारों या प्रबंधन कार्मिकों की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती। हो भी नहीं सकती और न ही इसकी जरूरत है। वे जिसका काम कर रहे होते हैं उसके उद्देश्यों के लिए सक्रिय होते हैं।
कभी प्रशांत किशोर मोदी की चुनावी रणनीति बनाने के क्रम में राष्ट्रवाद का संगीत बजा रहे थे, बाद के दिनों में ममता बनर्जी के लिये काम करने के दौरान बांग्ला उपराष्ट्रवाद की धुनें बजाते बंगाली भावनाओं को भड़काने के तमाम जतन कर रहे थे। कोई आश्चर्य नहीं कि तमिलनाडु में स्टालिन के लिये काम करने के दौरान वे उन्हें हिंदी के विरोध, सवर्ण मानस से परिचालित भाजपा के हिंदूवाद के विरोध के फायदे समझाएं। जब जैसी रुत, तब तैसी धुन।
बार-बार चर्चा की लहरें उठती हैं और फिर चर्चाओं के समंदर में गुम हो जाती हैं कि प्रशांत किशोर देश की सबसे पुरानी पार्टी की जर्जर संरचना को नया जीवन, नया जोश देने का ठेका ले रहे हैं। मुश्किल यह खड़ी हो जा रही है कि अब वे ठेकेदारी से आगे बढ़ कर अपनी ऐसी राजनीतिक भूमिका भी तलाशने लगे हैं जो किसी भी दल के खुर्राट राजनीतिज्ञ उन्हें आसानी से नहीं देंगे।
प्रशांत किशोर, उनकी आई-पैक कंपनी या इस तरह की दुनिया की अन्य किसी भी कंपनी की बढ़ती राजनीतिक भूमिका राजनीति में विचारों की भूमिका के सिमटते जाने का प्रतीक है।
जहां छद्म धारणाओं के निर्माण के सहारे मतदाताओं की राजनीतिक चेतना पर कब्जे की कोशिशें होंगी वहां जनता के जीवन से जुड़े वास्तविक मुद्दे नेपथ्य में जाएंगे ही।
टीवी और इंटरनेट ने दुनिया में बहुत तरह के सकारात्मक बदलाव लाए हैं। कह सकते हैं कि एक नई दुनिया ही रच दी गई है, लेकिन राजनीति पर इसके नकारात्मक प्रभाव ही अधिक नजर आए। अब प्रोपेगेंडा करना बहुत आसान हो गया और उसे जन मानस में इंजेक्ट करना और भी आसान।
जिस तरह कम्प्यूटर के माध्यम से किसी बौने को बृहदाकार दिखाना आसान हो गया उसी तरह किसी कल्पनाशून्य राजनीतिज्ञ को स्वप्नदर्शी बताना भी उतना ही आसान हो गया।
चुनाव प्रबंधन करने वाली कम्पनियों की सफलताओं ने राजनीति को जनता से विमुख किया है और नेताओं के मन में यह बैठा दिया है कि वे चाहे जितना भी जनविरोधी कार्य करें, उन्हें जनोन्मुख साबित करने के लिये कोई कंपनी चौबीस घन्टे, सातों दिन काम करती रहेगी।
डोनाल्ड ट्रम्प का राष्ट्रपति बनना, ब्राजील के बोल्सेनारो का शिखर तक पहुंचना, तुर्की में एर्दोआन का राष्ट्रनायक की छवि ओढ़ना, फिलीपींस में रोड्रिगो दुतेरते का जरूरत से अधिक बहादुर नजर आना...ये तमाम उदाहरण इन छवि निर्माण कंपनियों की बढ़ती राजनीतिक भूमिका को साबित करते हैं। ट्रम्प अगले चुनाव में हारते-हारते भी कांटे की टक्कर दे गए और आज तक कह रहे हैं कि दरअसल जीते वही हैं।
अपने मोदी जी की ऐसी महिमा तो अपरम्पार है। वे एक से एक जनविरोधी कदम उठाते हैं और प्रचार माध्यम सिद्ध करने में लग जाते हैं कि जनता की भलाई इसी में है, कि यही है मास्टर स्ट्रोक, जो अगले कुछ ही वर्षों में भारत को न जाने कितने ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बना देगा
तभी तो, दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों से भरे देश में 80 करोड़ निर्धन लोगों के मुफ्त अनाज पर निर्भर रहने के बावजूद देशवासियों को रोज सपने दिखाए जाते हैं कि भारत अब अगली महाशक्ति बनने ही वाला है।
उससे भी दिलचस्प यह कि शिक्षा को कारपोरेट के हवाले करने के प्रावधानों से भरी नई शिक्षा नीति के पाखंडी पैरोकार यह बताते नहीं थक रहे कि भारत अब 'फिर से' विश्वगुरु के आसन पर विराजमान होने ही वाला है।
प्रशांत किशोर जैसे राजनीतिक प्रबंधक इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि जनता को उसका सच पता नहीं चले बल्कि जनता उसी को सच माने जो उनकी कंपनी के क्लाइंट नेता समझाना चाहें।
अमेरिका, यूरोप, तुर्की आदि तो धनी और साधन संपन्न हैं भारत के मुकाबले। वहां की जनता अगर राजनीतिक शोशेबाजी में ठगी की शिकार होती भी है तो उसके पास बहुत कुछ बचा रह जाता है। लेकिन भारत में ऐसे प्रबंधकों ने जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति विकसित की है उसमें जनता ठगी की शिकार हो कर बहुत कुछ खो देती है। देश ने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संपत्तियों को निजी हाथों में जाते देखा, गलत नीतियों के दुष्प्रभाव से करोड़ों लोगों को बेरोजगार होते देखा, गरीबों की जद से शिक्षा को और दूर, और दूर जाते देखा, मध्यवर्गियों को निम्न मध्यवर्गीय जमात में गिरते देखा, निम्नमध्यवर्गियों को गरीबों की कतार में शामिल हो मुफ्त राशन की लाइन में लगते देखा...न जाने क्या-क्या देख लिया, लेकिन, अधिसंख्य नजरें इन सच्चाइयों को नजरअंदाज कर उन छद्म स्वप्नों के संसार मे भटक रही हैं जहां अगले 15 वर्षों में अखंड भारत का स्वप्न साकार होना है, उसी के समानांतर हिन्दू राष्ट्र की रचना होनी है और...यह सब होते होते उस महान स्वप्न तक पहुंचना है, जिसे 'राम राज्य' कहते हैं, जहां होगा 'सबका साथ, सबका विकास'।
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