Wednesday, October 12, 2011

प्रगतिशील लेखक संघ की 75वी वर्षगांठ -अप्रकाशित/अचर्चित बातें

हालांकि मै प्रगतिशील लेखक संघ का सदस्य नहीं हूँ परंतु इसके 75वी वर्षगांठ के अवसर पर जारी खुले निमंत्रण पत्र के आधार पर  08 और 09 अक्तूबर के कार्यक्रमों मे क्रमशः नेहरू युवा केंद्र एवं कैफी आज़मी एकेडमी मे उपस्थित रहा। विभिन्न समाचार पत्रों मे जो बातें प्रकाशित हुई हैं अथवा रवीन्द्र प्रभात जी के परिकल्पना ब्लागोत्सव पर मनोज पांडे जी द्वारा,अमलेंन्दू उपाध्याय जी के हस्तक्षेप पर डॉ संजय श्रीवास्तव द्वारा एवं भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी पर तथा उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ पर प्रदीप तिवारी जी द्वारा जो कुछ ब्लाग्स मे उद्घाटित किया गया है उनकी पुरावृत्ति मै नहीं कर रहा हूँ। समारोह मे चर्चाओं के दौरान जो महत्वपूर्ण बातें विद्वानों ने कहीं थीं और अप्रकाशित हैं तथा मेरे खुद अपनी समझ से जिन बातों की चर्चा की जानी चाहिए थी और हुई नहीं केवल उन्हीं पर प्रकाश डालना मेरा अभीष्ट है। 

समारोह मे जो स्मारिका वितरित की गई उसके कवर का स्कैन यह है -




निम्न लिंक पर हिंदुस्तान लखनऊ के 09 और 10 अक्तूबर के अंकों मे प्रकाशित समाचार की स्कैन कापियाँ देख सकते हैं-

http://vijaimathur.blogspot.com/2011/10/75.html

दोनों दिन समारोह मे वक्ताओं ने खुल कर अपने विचार रखे यह तो अच्छी बात रही किन्तु प्रत्येक के वक्तव्य से यह झलक रहा था कि वह ही सर्व-श्रेष्ठ हैं यह अहं संस्थापक अध्यक्ष मुंशी प्रेमचंद जी की भावनाओं के विपरीत था।क्योंकि उन्होने अपने अध्यक्षीय भाषण मे ही कहा था-"हमारे पथ मे अहंवाद अथवा अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को प्रधानता देना वह वस्तु है,जो हमे जड़ता,पतन और लापरवाही की ओर ले जाती है और ऐसी कला हमारे लिए न व्यक्तिगत -रूप मे उपयोगी है और न समुदाय -रूप मे। "

उसी भाषण मे उन्होने यह भी कहा था-"जिन्हें धन -वैभव प्यारा है ,साहित्य-मंदिर मे उनके लिए स्थान नहीं है । यहाँ तो उन उपासकों की आवश्यकता है,जिनहोने सेवा को ही अपने जीवन की सार्थकता मान लिया हो ,जिनके दिल मे दर्द की तड़प हो और मुहब्बत का जोश हो अपनी इज्जत तो अपने हाथ है। अगर हम सच्चे दिल से समाज की सेवा करेंगे तो मान,प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि सभी हमारे पाँव चूमेंगी। फिर मान-प्रतिष्ठा की चिन्ता हमे क्यों सताये?और उसके न मिलने से हम निराश क्यों हों?सेवा मे जो आध्यात्मिक आनंद है,वही हमारा पुरस्कार -हमे समाज पर अपना बड़प्पन जताने,उस पर रोब जमाने की हवस क्यों हो?दूसरों से ज्यादा आराम के साथ रहने की इच्छा भी क्यों सताये?हम अमीरों की श्रेणी मे अपनी गिनती क्यों कराएं?हम तो समाज के झण्डा लेकर चलने वाले सिपाही हैं और सादी  जिंदगी के साथ ऊंची निगाह हमारे जीवन का लक्ष्य है। जो आदमी सच्चा कलाकार है,वह स्वार्थमय जीवन का प्रेमी नहीं हो सकता। उसे अपनी संतुष्टि के लिए दिखावे की आवश्यकता नहीं-उससे तो उसे घृणा होती है। वह तो इकबाल के साथ कहता है -
          
        मर्दुम आज़ादमआगूना रायूरम कि मरा,
         मीतवा कुश्तव येक जामे जुलाले दीगरा।


(अर्थात मै आज़ाद हूँ और इतना हयादार हूँ कि मुझे दूसरों के निथरे हुये पानी के एक प्याले से मारा जा सकता है। )"

प्रेमचंद जी के ये उद्गार वितरित की गई स्मारिका से ही लिए गए हैं। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव का. अतुल 'अनजान' ने अपने उद्बोधन मे प्रगतिशील लेखकों का आह्वान किया कि वे जनोपयोगी साहित्य का सृजन कर राजनेताओं का मार्ग दर्शन करें जिससे जनता को शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने का कार्य सहज सम्पन्न हो सके।

 डॉ रुदौल्वी ने स्थापना सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष चौधरी मोहमद अली साहब रुदौलवी साहब का नामोलेख न किए जाने की ओर तथा डॉ नामवर सिंह जी द्वारा मजाज साहब को पर्याप्त सम्मान न दिये जाने की ओर ध्यानकर्षण किया था। एक विद्वान लेखक का सुझाव था कि ब्राह्मण वाद पर प्रहार करने की बजाए 'पुरोहितवाद' पर प्रहार किया जाना चाहिए क्योंकि ब्राह्मण से एक जाति की बू आती है और पुरोहित चाहे किसी भी धर्म के ठेकेदार हों अपनी-अपनी जनता को ठगते और लूटते हैं। मै समझता हूँ कि उनके सुझाव को 'प्रस्ताव'के रूप मे पारित किया जाना चाहिए था। 
मूल संकट ही पुरोहितों( अर्थात तथाकथित धर्म के ठेकेदारों जिनके लिए दलाल शब्द ज्यादा उपयुक्त है ) द्वारा अपने-अपने तथाकथित धर्मों मे पैदा किया गया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य मे तो इन पुरोहितों/दलालों ने धर्म की गलत व्याख्या करके कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत जाति-व्यवस्था मे परिणत करके एक बड़ी आबादी को प्रगति/विकास करने से रोक दिया उनके ज्ञानार्जन को प्रतिबंधित कर दिया और उनके स्थाई आर्थिक/सामाजिक शोषण को पुख्ता कर दिया। यही वजह रही कि अध्यक्ष नामवर जी से अंबेडकर महासभा के लोगों ने लिखित विरोध दर्ज कराया। 


वस्तुतः 'प्रलेस' का गठन ही शोषण और साम्राज्यवाद के विरुद्ध हुआ था किन्तु लगभग चार माह बाद ही मुंशी प्रेमचंद जी का निधन हो जाने से उनकी बातें पीछे चली गई होंगी। अब तो उनके द्वारा तैयार घोषणा-पत्र को ही बदले जाने की मांग हो रही है। यदि मुंशी प्रेमचंद जी के साहित्य की तर्ज पर दूसरे रचनाकार भी दमित-शोषित तबकों की आवाज बुलंद करके उन्हें लामबंद करते तो आज किसी को शिकायत करने का मौका ही न मिलता। 


प्रगतिशील लेखक संघ ने भी कम्यूनिस्टों  की भांति ही 'धर्म' का वह अर्थ लिया जो अधार्मिकों द्वारा परिभाषित किया गया था। विद्वान लेखकों ने यह मान लिया कि पूंजीवाद और विज्ञान के बढ़ते प्रभाव से देश मे जाति-प्रथा की समाप्ती हो जाएगी जबकि कुछ विद्वानों ने निर्भीकता से कहा भी कि यह आंकलन गलत निकला। दरअसल यही सच्चाई है कि आप शोषण -उत्पीड़न को 'धर्म' की वास्तविक व्याख्या प्रस्तुत किए बगैर कभी भी समाप्त नहीं कर सकते हैं। परंतु खेद के साथ कहना चाहता हूँ कि,प्रलेस के विद्वान भी 'धर्म' को कम्यूनिस्टों की भांति ही सीधे-सीधे खारिज कर देते हैं क्योंकि 'मार्क्स' ने धर्म का विरोध किया था। वे यह भूल जाते हैं कि मार्क्स ने भी उसे ही 'धर्म'मान लिया था जिसे वहाँ के पुरोहित बताते थे।  अतः मार्क्स ने जिस बात का विरोध किया है वह तो 'पुरोहितवाद' का विरोध है और वह जायज था। हमे इस बात को ठीक से समझना और साहित्य के माध्यम से बताना चाहिए था जैसे कि मुंशी प्रेमचंद जी करते थे। 'प्रलेस' के अब तक के 75 वर्षों मे लेखकों ने यह मूल कर्तव्य  नहीं निबाहा इसीलिए जनता से कट गए हैं। आज लेखक अपने-अपने को श्रेष्ठ मान रहे हैं और सच्चाई से दूर भाग रहे हैं। रस्मों-अदायगी से कोई 'क्रान्ति' ऐसे लेखक कभी नहीं कर पाएंगे। 


एक प्रगतिशील पत्रकार साहब का मुझसे कहना है-"तुम धर्म और मार्क्स का घालमेल कर देते हो यह नहीं चलेगा। " लगभग दूसरे लोग भी ऐसा ही सोचते होंगे क्योंकि सभी 'धर्म'उसे मानते हैं जिसे पूँजीपतियों/साम्राज्यवादियों के दलाल पुरोहितों द्वारा बताया जाता है।समारोह मे एक विद्वान ने तुलसीकृत रामचरितमानस की कड़ी आलोचना की और ज्योतिष का मखौल उड़ाया। वह यह भूल गए या छिपाना चाहते थे कि तुलसी के इसी ग्रंथ को शोषक पुरोहित जला दिया करते थे जब वह संस्कृत मे लिखते थे और इसी कारण उन्हें काशी छोड़ कर एवं संस्कृत की बजाए 'अवधी' मे रचना करनी पड़ी जो जन-भाषा थी। इसमे भी कुछ पोंगा-पंथियों ने कुछ विक्षेपक लगा दिये हैं जिनका विरोध करते हुये किसी ने गीता-प्रेस गोरखपुर पर मुकदमा भी दायर कर दिया है। उत्तर प्रदेश इप्टा के सचिव राकेश जी ने तुलसीदास द्वारा मस्जिद मे शरण लेने और सम -भाव प्रदर्शन के लिए सराहना भी की। मेरे समझ से उनका दृष्टिकोण जन-हितैषी है। ऐसे ही विचारों को अपना कर हम अपनी बात मजबूती से जन-मानस मे बैठा सकते हैं। 


 मैंने अपने इस ब्लाग के माध्यम से एक नहीं अनेक बार 'धर्म'की अर्वाचीन व्याख्या प्रस्तुत की है कि 'धर्म' का अर्थ पोंगापंथी रीति-रिवाजों को बंदरिया के मरे बच्चे की तरह चिपटाए रखना नहीं है। 'धर्म' का अर्थ हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने 'धारण करने वाला' बताया है। अर्थात जो शरीर को धारण करने मे सहायक है वह धर्म है और जो 'मानव द्वारा मानव के शोषण से रक्षा करे वही धार्मिकता है। ' यदि इस सत्य को स्वीकार कर लें तो 'मार्क्स' सबसे बड़े धार्मिक ज्ञाता सिद्ध होते हैं। 'मार्क्स वाद' ' व्यवहार के धरातल पर रूस मे इसीलिए विफल हुआ क्योंकि वहाँ 'धर्म' वर्जित था अर्थात 'धारण करने वाला तत्व ही उपेक्षित था तो 'मार्क्स वाद' टिकता किस पर?आधारहीनता ही उसके लिए घातक बनी। 


इसलिए मेरा ज़ोर भारत मे 'मार्क्स वाद' को सफल बनाने हेतु 'धर्म' की वास्तविक व्याख्या को जन-प्रकाश मे लाने पर रहता है। मैंने अपने पूरे ब्लाग मे धर्म के नाम पर फैले 'अधर्म' और 'अंधविश्वास'का तीखा विरोध किया और संप्र्दायवादियों की गालियां खाई हैं। यदि मेरे लेखन के आधार पर 'प्रगतिशील लेखक संघ' मुझे शामिल करता और बोलने का मौका देता तो मैं वहाँ इन्हीं बातों को रखता। खेद की बात है कि प्रगतिशील लेखकों ने फेस बुक पर मेरे लेख 'दंतेवाड़ा त्रासदी -समाधान क्या  है?'के लिंक को अपनी-अपनी वाल से हटा दिया ,सच्चाई को न जानना या न जानने देना कौन सी 'प्रगतिशीलता'है? यह तो जड़ -दकियानूसीपन हुआ 'महर्षि कार्ल मार्क्स' लेख द्वारा भी मै मार्क्स वाद  को भारत मे सफल बनाने हेतु इसी प्रकार के विचार दे चुका हूँ। 'रावण -वध एक पूर्व-निर्धारित योजना' लेख मे मैंने संत श्याम जी पाराशर द्वारा की गई व्याख्या के आधार पर सिद्ध किया था कि यह साम्राज्यवादी रावण पर जन-नायक राम की जीत थी। इस लेख पर सांप्रदायिक तत्वों ने प्रतिवाद भी किया था किन्तु प्रगतिशील तत्व भी मानने को तैयार नहीं हैं। 


खगेन्द्र ठाकुर साहब ने 'प्रगति' शब्द की व्याख्या करते हुये बताया था कि प्रगति का तात्पर्य है -नीचे से ऊपर आना और पीछे से आगे आना। मुझे यह व्याख्या सर्व-श्रेष्ठ समझ आती है। इस अवधारणा को मान कर प्रगतिशील लेखक संघ वास्तव मे प्रगति कर सकता है। 


ऋग्वेद 10/192/2 मंत्र मे कहा गया है-
संगच्छ्ध्व संवद्ध्व सं वो मनासि जानताम। 
देवा भाग यथा पूरवे संजानानां उपासते। । 


(सम्पूर्ण मानव समाज कदम- से- कदम मिला कर चले,सब मिल कर विचार विमर्श करें ,सब एक साथ मिल कर बोलें-मानव बनने का यही मार्ग है)


किस प्रकार ये विचार मार्क्सवादी नहीं हैं? अथवा 'सर्वे भवनतु सुखिना : ' मे समस्त मानव जाति के सुख-कल्याण की जो कल्पना है वह मार्क्स वाद  के विपरीत कैसे है? क्योंकि शोषक पुरोहितों द्वारा की गई व्याख्या को ही प्रगतिशील भी 'धर्म'कहते हैं सिर्फ इसी लिए उसका विरोध करते हैं। जनता को शोषकों के चंगुल से मुक्त कराने हेतु हमे उसे वास्तविक 'धर्म'के मर्म को समझाना ही होगा। निष्काम परिवर्तन पत्रिका ,नवंबर 2002 के अंक मे श्री मदन रहेजा ने लिखा है -"लोग ईश्वर को ढूँढने यहाँ से वहाँ भटकते रहते हैं,काशी-काबे जाते हैं,मंदिरों -मस्जिदों मे सिजदे करते हैं,नदियों मे नहाते हैं,पहाड़ों की ऊंचाइयों पर जाते हैं परंतु उनको आज तक न तो ईश्वर की प्राप्ति हुई है और न ही भविष्य मे कभी होगी कारण उनमे अभी भी अज्ञानता घर किए हुये है। ईश्वर ढूँढने की वस्तु नहीं है,वह कोई ऐसी शै (चीज)नहीं है जो खो गई है ,वह परमात्मा तो हमारे अंग-संग मे रहता है क्योंकि हमसे या हम  उससे जुदा हो ही नहीं सकते क्योंकि परमेश्वर सर्वव्यापक है-भला वह हमसे अलग कैसे हो सकता है?................ हम स्वंय को अच्छा समझते हैं-विद्वान समझते हैं,समझदार समझते हैं और दूसरों को बुरा समझते हैं-बेवकूफ समझते हैं -नीचा समझते हैं। ...... अहंकार के कारण हम मनुष्यको मनुष्य नहीं समझते । अपने को ऊंचा समझते हैं औरों को नीचा मानते हैं। इसी अहंकार की वजह से इतने मत-मतान्तर-पंथ-मजहबों का निर्माण हुआ है। ... आज धर्म के नाम पर पाखंड होता है-धंधा होता है-व्यवसाय होता है क्यों?ये सभी अहंकारी हैं । धर्म नाम की कोई भी वस्तु इन मे नहीं पाई जाती। .... दो साधू बाबा एक ही मंच पर बैठ नहीं सकते-दो सन्यासी एक साथ नहीं बैठ सकते ,दो विद्वान भी एक ही मंच पर बैठ नहीं सकते क्यों? अहंकार के कारण। "वह और भी कहते हैं-"जितना हो सके आपस मे प्रेम से शांति से रहें। ... जैसा व्यवहार हम दूसरों से चाहते हैं वैसा ही व्यवहार हम सब से करें और किसी को दुख नहीं पहुंचाए,कोई ऐसा कार्य न करें कि जिससे हमे बाद मे पछताना पड़े-वही धर्म है। "


स्वामी सहजानन्द और गेंदा लाल दीक्षित आर्यसमाजी तथा पूर्ण कम्यूनिस्ट एक साथ थे। सरदार भगत सिंह जी सत्यार्थ प्रकाश पढ़ कर कम्यूनिस्ट बने थे और महा पंडित राहुल सांस्कृत्यायन जी भी आर्यसमाजी,कम्यूनिस्ट, रहे हैं। 
इन तथ्यों से मुंशी प्रेमचंद जी अथवा कार्ल मार्क्स का टकराव कहाँ है?प्रेमचंद जी के कृत्यों का प्रभाव नीचे दिये स्कैन मे देखें। 


हिंदुस्तान-लखनऊ-12/10/2011 


प्रगतिशील लेखक संघ को यदि साम्राज्यवादियो/'पूंजीवादियों पर बीते 75 वर्षों मे सफलता नहीं मिल सकी है तो इसका कारण यही है कि वे जड़ता को ही प्रगतिशीलता मानते आ रहे हैं। अगले 25 वर्षों मे प्रगतिशीलता को यदि अपना लिया जाये तो 'प्रलेस' को सफलता प्राप्त करने से कोई रोक नहीं सकेगा। मुझे उम्मीद है कि 'प्रगतिशील लेखक संघ' की 100वी वर्षगांठ मनाते समय यह सफलता उसके पास होगी। 

2 comments:

Bharat Bhushan said...

आपकी कई उक्तियाँ बहुत रुचिकर हैं. अभी तक मार्क्सवाद को व्यापक रूप से सरकारी प्रयोग माना जाता है. आपने सही कहा कि इसे धर्म का आधार नहीं मिला.भारत में धर्म की परिभाषा बदली जा सकती थी कि 'धार्मिक' चैनल आ गए. इनका कार्य ही अज्ञान फैलाना है. इस कैसे निपटेंगे, यह बहुत बड़ी चुनौती है. फिर भी सकारात्मक सोच को आगे रख कर कार्य करना है.

मनोज कुमार said...

कमाल का आलेख।