Saturday, October 22, 2011

कारपोरेट विरोधी आंदोलन

हिंदुस्तान-17/10/2011 -लखनऊ 
1991 से उदारीकरण की नीतियाँ अपना कर वर्तमान प्रधानमंत्री  साहब ने हमारे देश के एक वर्ग को मोहित कर रखा है। दूसरी तरफ जनता का एक विशाल वर्ग निरन्तर अभावों और मुश्किलों की तरफ बढ़ता गया है। आम आदमी का जीना दुश्वार हो चुका है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने शहरों मे रु 32/- और गावॉ मे रु 26/-से ऊपर रोज कमाने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर मानने का हलफनामा सर्वोच्च न्यायालय को दिया है जिसे योजना आयोग के अध्यक्ष के रूप मे मनमोहन सिंह जी का पूर्ण समर्थन है। सरकारी आंकड़ों मे जो आदर्श आहार सूची जारी हुई है उसका मूल्यांकन यदि वर्तमान बाजार भाव पर करें तो चार आदमियों के परिवार का पालन-पोषण करने हेतु न्यूनतम रु 16000/-माहवार आय  की आवश्यकता है। कितनी विसंगति है सरकारी आंकड़ों और बयानों मे। 'होइहे कौऊ नृप हमही को हानि ' के अनुगामी हमारे देशवासी घुट-घुट कर जी रहे हैं या फांसी लगा कर आत्म-हत्याए कर रहे हैं।

'विद्रोह ' या 'क्रान्ति' कोई ऐसी चीज नहीं होती जिसका विस्फोट एकाएक -अचानक होता है बल्कि इसके अनंतर 'अन्तर' के तनाव को बल मिलता रहता है। अतः हमारे शासकों ने बड़ी चालाकी से बेरोजगारी,मंहगाई,भ्रष्टाचार,उत्पीड़न आदि के कारण उपज रहे असंतोष को भड़कने से पूर्व ही (मनमोहन सिंह ,भाजपा और आर एस एस ने मिल कर) अन्ना हज़ारे और उनकी कारपोरेट भक्त टीम से मिली -भगत करके दूसरी ओर मोड दिया। उपरोक्त स्कैन कापी से स्पष्ट है कि खुद अमेरिका तथा यूरोप मे भी जनता सड़कों पर उतर कर कारपोरेट घरानों की लूट-खसोट का प्रबल विरोध कर रही है। वे साफ-साफ कह रहे हैं कि मुट्ठी भर  लोगों की गलती की सजा 90 प्रतिशत आम जनता क्यों भुगते? लेकिन हमारे देश मे ठीक उल्टा हुआ है -कारपोरेट घरानों ने अन्ना आदि को सरकार तथा मुख्य विपक्षी दल भाजपा के सहयोग से आगे करके  जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ कर सरे आम ठग लिया।

मैंने अपने ब्लाग्स-'क्रांतिस्वर','कलम और कुदाल' पर अन्ना टीम का कडा विरोध किया था। कुछ जागरूक दूसरे ब्लागर्स ने भी अन्ना की पोल खोली थी। अफसोस यह कि इंटरनेटी बुद्धिजीवियों ने अन्ना का बड़ी बेशर्मी से समर्थन किया है यह जानते हुये भी कि अन्ना आंदोलन को भाजपा/संघ,मनमोहन गुट के अलावा भारतीय तथा अमेरिकी कारपोरेट घरानों एवं अमेरिकी प्रशासन का खुला समर्थन था।अन्ना भारत मे कार्पोरेटी तानाशाही लाने की कोशिशों मे जूटे हुए हैं जो नाममात्र के चल रहे लोकतन्त्र को भी खत्म कर देगी और जनता कहीं भी मुँह खोलने लायक नहीं बचेगी।

कारपोरेट घरानों ने न केवल जनता का आर्थिक शोषण किया है बल्कि सामाजिक,धार्मिक क्षेत्रों को भी इन्होने अपने चंगुल मे कर रखा है और राजनीति को तो इन्होने अपना बंधुआ ही बना लिया है। अतः यदि हमे अपने देश मे चल रहे खानापूरी के लोकतन्त्र को बचाना है तो कारपोरेट घरानों का खुल कर और जम कर विरोध करना ही होगा। इसके लिए उनके द्वारा फैलाये धार्मिक वितंडावाद को भी ठुकराना होगा। काश हमारे देशवासियों को इस दीपावली पर सद्बुद्धि हासिल हो जाये!



दोनों कतरनें-साभार-हिंदुस्तान-लखनऊ-21/10/2011 

1 comment:

कुमार राधारमण said...

आज कॉर्पोरेट घरानों के बगैर दुनिया भर की आर्थिकी की कल्पना भी मुश्किल है.