Thursday, November 10, 2011

"सद्दाम हुसैन "/गरीबों का मसीहा-एशिया का गौरव-1991 का अप्र.लेख(2) ------ विजय राजबली माथुर



सन 1991 मे राजनीतिक परिस्थितिए कुछ इस प्रकार तेजी से मुड़ी कि हमारे लेख जो एक अंक मे एक से अधिक संख्या मे 'सप्त दिवा साप्ताहिक',आगरा के प्रधान संपादक छाप देते थे उन्हें उनके फाइनेंसर्स जो फासिस्ट  समर्थक थे ने मेरे लेखों मे संशोधन करने को कहा। मैंने अपने लेखों मे संशोधन करने के बजाए उनसे वापिस मांग लिया जो अब तक कहीं और भी प्रकाशित नहीं कराये थे उन्हें अब इस ब्लाग पर सार्वजनिक कर रहा हूँ और उसका कारण आज फिर देश पर मंडरा रहा फासिस्ट तानाशाही का खतरा है। जार्ज बुश,सद्दाम हुसैन आदि के संबंध मे उस वक्त के हिसाब से लिखे ये लेख ज्यों के त्यों उसी  रूप मे प्रस्तुत हैं-


नेताजी सुभाष चंद्र बॉस ने कहा था-"एशिया एशियाईओ के लिये"। ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने साम्राज्यवाद के आगे न झुक कर एशिया का मस्तक ऊंचा किया है। जार्ज वाशिंगटन यदि संयुक्त राज्य अमेरिका का संगठक था तो जार्ज बुश विध्वंसक बन रहा है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के खात्मे के साथ ही विश्व से शोषण और दमन का युग समाप्त होगा। यदि राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन सफल रहे तो इसका श्रेय उन्ही को जाएगा।

शोषणवादी-पूंजीवादी लुटेरी मनोवृत्ति के लोग लगातार सद्दाम हुसैन के विरुद्ध विष-वामन किए जा रहे हैं। भाजपा की घोंघावादी नीतियों के समर्थक और प्रशंसक हिन्दू/मुस्लिम के आधार पर और हाल ही मे साम्राज्यवादियों की एजेंट विहिप द्वारा संचालित कमल 'रथ-यात्रा'से फूल कर कुप्पा हुये विचारक ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को तृतीय विश्व महायुद्ध के प्रारम्भ होने का खतरा बता कर दोषी ठहरा रहे हैं और जार्ज बुश का समर्थन कर रहे जो कि,भारत के राष्ट्रीय हितों के सर्वथा विपरीत है ।

संयुक्त राज्य अमेरिका का उदय-

जब स्पेन का कोलंबस भारत की खोज मे भटक कर अमेरिका महाद्वीप पर पहुंचा और इसके पिछड़ेपन के समाचार यूरोप पहुंचे तो यूरोप के साम्राज्यवादी देशों ने अपनी बढ़ती हुई आबादी को नियंत्रित करने के लिये अपने-अपने उपनिवेश कायम करके वहाँ के मूल-आदिवासियों (तथाकथित रेड इंडियन्स)को समाप्त कर दिया।

हालांकि अमेरिका मे कायम उपनिवेश यूरोपीय नस्ल की आबादी के ही थे परंतु उन्होने अपने-अपने मूल राज्यों के विरुद्ध बगावत कर दी और संयुक्त रूप से जार्ज वाशिंगटन के नेतृत्व मे आजादी की लड़ाई लड़ी। लार्डकारनावालिस जो साम्राज्यवाड़ियों की सेना का नायक था जार्ज वाशिंगटन द्वारा कैद कर लिया गया (यही लार्ड कार्नावालिस भारत मे वाईस राय बन कर आया और यहाँ स्थाई बंदोबस्त नाम से किसानों के शोषण के लिये जमींदारी प्रथा लागू कर गया)। चौदह (14) उपनिवेशों ने आजादी पाकर मिल कर एक राष्ट्र 'संयुक्त राज्य अमेरिका' की स्थापना की।

अमेरिकी साम्राज्यवाद-

प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जकड़न ढीली पड़ने लगी और इसका स्थान अमेरिका लेता गया । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब भारत से ब्रिटिश साम्राज्य का उखड़ना प्रारम्भ हुआ तो अमेरिका विश्व के साम्राज्यवादियों के सरगना के रूप मे स्थापित हो चुका था। अमेरिकी गुप्तचर संस्था सी आई ए का मुख्य कार्य लोकतान्त्रिक देशों मे उखाड़-पछाड़ करना और तानाशाहों का समर्थन करना हो गया जिससे अमेरिकी साम्राज्यवाद के हित सुरक्षित  रखे जा सकें। पाकिस्तान,बांग्ला देश आदि के तानाशाह अमेरिकी कठपुतली साबित हो चुके हैं। पश्चिम एशिया मे अरब शेख भी अमेरिकी साम्राज्यवाद के मजबूत पाएदान रहे हैं। इन शेखों ने अपने-अपने देश की पेट्रो -डालर सम्पदा अमेरिकी बैंकों मे विनियोजित कर रखी है।

जो अमेरिका साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की उपज था वही साम्राज्यवाद का क्रूरत्तम  सरगना बना यह भी विडम्बना और खेद की ही बात है।

सद्दाम का संघर्ष-

सद्दाम हुसैन ने ईराक की सत्ता समहालते ही ईराक मे द्रुत गति से विकास कार्य सम्पन्न किए। जनता को समानता और लोकतन्त्र के अधिकार दिये एवं इस्लामी घोंघावाद का पर्दाफाश 
सऊदी अरब आदि शेखों वाले अरब देश जहां सामाजिक आधार पर आज भी उन्नत्त नहीं हैं। सद्दाम ने ईराक मे स्त्री-पुरुष की समानता पर बल दिया और पर्दा-प्रथा को समाप्त कर दिया। सद्दाम हुसैन ईरान के कठमुल्ला आयतुल्ला रूहैल्ला खोमेनी की नीतियों के सख्त विरोधी रहे और आठ वर्षों तक ईरान से युद्ध किया।

हाल मे ईराक ने ईरान से सम्झौता करके उसका विजित  प्रदेश लौटा दिया और अमेरिका के पिट्ठू कुवैत के शेख को भगा कर पुनः कुवैत का ईराक  मे विलय कर लिया । जार्ज बुश को सद्दाम का यह कार्य अमेरिकी साम्राज्यवाद की जड़ों पर प्रहार प्रतीत हुआ। अमेरिका ने अपने धौंस-बल पर संयुक्त राष्ट्र संघ से 29 नवंबर 1990 को ईराक पर आक्रमण करने का प्रस्ताव पास करा लिया और 15 जनवरी 1991 तक का समय झुकाने के लिए तय किया गया।

वीर ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को दाद दी जानी चाहिए की,उन्होने साम्राज्यवादी लुटेरे अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के समक्ष घुटने नहीं टेके और समस्त एशिया से साम्राज्यवाद का खात्मा करने का बोझ ईराक के कंधों पर उठा लिया। 


भारतीय समयानुसार -17 जनवरी 1991 की प्रातः 03 बज कर 40 मिनट पर खूंखवार अमेरिका ने सोते हुये ईराक पर रात्रि के घुप्प अंधकार मे वीभत्स आक्रमण कर दिया और दोपहर  तक 18 हजार टन  गोला बारूद गिरा कर ईराक को जन-धन से काफी क्षति पहुंचाई है। 


पूर्व घोषणानुसार सद्दाम ने 18 ता .को इज़राईल पर मिसाइलों से आक्रमण कर दिया और लेबनान व फिलीसतीं न  की मुक्ति का संकल्प दोहराया। अमेरिका अरब जगत को धौंस जमाने के लिए इज़राईल को अंतर्राष्ट्रीय गुंडागर्दी के लिए उकसाता रहा है और इज़राईल के विरुद्ध राष्ट्रसंघ के सभी प्रस्तावों को वीटो करता रहा है जबकि,ईराक के विरुद्ध राष्ट्रसंघ प्रस्ताव की आड़ मे बर्बर हमला करके तृतीय विश्वयुद्ध की शुरुआत कराना चाहता है।

विहिप आंदोलन और अमेरिका-


1980 से ही अमेरिका विश्व हिन्दू परिषद को आर्थिक सहायता पहुंचा कर भारत मे अस्थिरता फैलाने का प्रयत्न करता रहा है। अमेरिकी कार निर्माता कंपनी फोर्ड का 'फोर्ड फाउंडेशन' खुले रूप मे विहिप को चन्दा देता रहा है। अमेरिकी धन के बल पर 25 सितंबर 1990 से विहिप ने आडवाणी-कमल-रथ यात्रा आयोजित कर समस्त भारत को सांप्रदायिक संघर्ष की आग मे झोंक दिया है।

अमेरिका संभावित युद्ध की विभीषिका के मद्दे नज़र भारत को कमजोर करना चाहता था जिससे एशियाईओ की अस्मिता की रक्षा मे भारत न खड़ा हो सके। कुछ हद तक अमेरिका को अपनी भारतीय शक्तियों -भाजपा/आर एस एस,विश्व हिन्दू परिषद,मौलाना बुखारी,सैयद शहाबुद्दीन,जमाते -इस्लामी,मुस्लिम लीग आदि के सहयोग से सफलता भी मिली। 17 ता को दिल्ली मे बुखारी और शहाबुद्दीन  द्वारा ईराक विरोधी बयान जारी करने और असम मे आडवाणी द्वारा ईराक की कड़ी आलोचना करने से अमेरिकी साजिश की ही पुष्टि होती है।

भारत का दायित्व-


भारत भरसक प्रयास के बावजूद युद्ध नहीं रोक सका है। रूस युद्ध मे अमेरिका का साथ नहीं देगा ,यह घोषणा करके राष्ट्रपति गोर्बाछोव ने एशिया के हित मे कदम उठाया है। चीन ने भी अमेरिका को चेतावनी दी थी कि,वह ईराक पर आक्रमण न करे। भारत का यह दायित्व हो जाता है कि,एशिया की तीनों शक्तियों-भारत,रूस और चीन को एकता -बद्ध करे और साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध ईराक को नैतिक समर्थन दे जिससे विश्व से शोशंणकारी शक्तियों को निर्मूल किया जा सके। विश्व की शोषित जनता के मसीहा के रूप मे सद्दाम हुसैन का नाम सदैव अमर रहेगा। 
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K Vikram Rao
एंग्लो-अमरीकी पाप उजागर आज हुआ
अन्ततः बारह साल बाद आज सच उभरा कि अमरीकी-ब्रिटिश फौज द्वारा Iraq पर हमला झूठी गुप्तचर रपट का नतीजा था। सब-कुछ प्रायोजित था। नवउपनिवेशवाद की साजिश थी। लार्ड जान चिलकोट की अध्यक्षता वाली जांच समिति के बारह खण्डों में छब्बीस लाख शब्दों में लिखे गये इस जाँच रपट से राष्ट्रपति जार्ज बुश George H. W. Bush और प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर Tony Blair पर युद्ध अपराधी का मुकदमा चलना चाहिये। मानवता का यह तकाजा है। डेढ लाख इराकी जनता का बमबारी से संहार किया गया था। राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन Saddam Hussein को फांसी दी गई थी। लार्ड चिलकोट ने लिखा कि ईराक की अपार हानि हुई। सद्दाम पर अणु बम बनाने का आरोप भी मनगढ़त पाया गया। 
अमरीकी हमले के बाद में IFWJ - Indian Federation of Working Journalists के पत्रकारों को लेकर मैं बगदाद गया था। सद्दाम हुसैन तब जीवित थे। उनके पुत्र इराकी श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के अध्यक्ष उदय हुसैन से भेंट भी की थी। ईराकी जर्नलिस्ट्स यूनियन के तमाम पदाधिकारियों से वार्ता भी मेरी हुई थी। वास्तविकता तभी उभर आई थी।
विद्रूपता देखिये। ब्रिटेन के समाजवादी प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर ने बाथ सोशलिस्ट नेता सद्दाम हुसैन के समतामूलक राष्ट्र पर अमरीकी साम्राज्यवादियों के पुछलगू बनकर आक्रमण किया। कांग्रेस-समर्थित भारत की समाजवादी जनता पार्टी सरकार के प्रधान मंत्री ठाकुर चन्द्रशेखर सिंह ने अमरीकी ब्रमवर्षक वायुयानों को मुम्बई में ईंधन भरने की विशेष अनुमति भी दे डाली थी।
बांग्लादेशी और पाकिस्तानी इस्लामी सेना ने इन उपनिवेशवादियों की नौकरी बजायी। सऊदी अरब और ईमाम बुखारी ने भी सद्दाम हुसैन के विरूद्ध पुरजोर अभियान चलाया। अमरीकियों की झण्डाबरदारी की। अमरीकी पूंजीवादी दबाव में शाही सऊदी अरब ने सद्दाम हुसैन के सोशिलिस्ट ईराक को नेस्तनाबूद करने में कसर नहीं छोड़ी। सऊदी अरब के बादशाह ने पैगम्बरे इस्लाम की जन्मस्थली के निकट अमरीकी हमलावर जहाजी बेड़े को जगह दी। नाना की मसनद (जन्म स्थली) के ऊपर से उड़कर अमरीकी आततायियों ने नवासे की मजारों पर कर्बला में बम बरसाए थे। मीनारों को क्षतिग्रस्त देखकर मुझ जैसे गैर-इस्लामी व्यक्ति का दिल भर आया था कि सऊदी अरब के इस्लामी शासकों को ऐसा नापाक काम करते अल्लाह का भी खौफ नही रहा | शकूर खोसाई के राष्ट्रीय पुस्तकालय में अमरीकी बमों द्वारा जले ग्रन्थों को देखकर उस दौर की याद बरबस आ गई जब चंगेज खाँ ने (1258) मुसतन्सरिया विश्वविद्यालय की किताबों का गारा बना कर युफ्रेट्स नदी पर पुल बनवाया था। 
हिन्दुस्तान के हिन्दुवादियों ने सद्दाम हुसैन को मात्र मुसलमान माना। अटल बिहारी पाजपेयी की जीभ उन दिनों जम गई थी। इसीलिये अब फिर हिन्दू राष्ट्रवादियों को याद दिलाना होगा कि ईराकी समाजवादी गणराज्य के अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन अकेले मुस्लिम राष्ट्राध्यक्ष थे जिन्होंने कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग कहा था। उनके राज में सरकारी कार्यालयों में नमाज़ अदायगी हेतु अवकाश नहीं मिलता था। कारण यही कि वे मज़हब को निजी आस्था की बात मानते थे। अयोध्या काण्ड पर जब इस्लामी दुनिया में बवण्डर उठा था तो बगदाद शान्त था। सद्दाम ने कहा था कि एक पुरानी इमारत गिरी है, यह भारत का अपना मामला है। उन्हीं दिनों ढाका में प्राचीन ढाकेश्वरी मन्दिर ढाया गया था। तस्लीमा नसरीन Tasleema Nasreen ने अपनी कृति (लज्जा) में बांग्लादेश में हिन्दू तरूणियों पर हुए वीभत्स जुल्मों का वर्णन किया है। इसी पूर्वी पाकिस्तान को भारतीय सेना द्वारा मुक्त कराने पर शेख मुजीब के बांग्लादेश को मान्यता देने में सद्दाम सर्वप्रथम थे। इन्दिरा गांधी की (1975 ईराक यात्रा पर मेज़बान सद्दाम ने उनका सूटकेस उठाया था। जब रायबरेली लोकसभा चुनाव में वे हार (1977 गईं थीं तो इन्दिरा गांधी को बगदाद में स्थायी आवास की पेशकश सद्दाम ने की थी। पोखरण द्वितीय (मई, 1988, पर भाजपावाली राजग सरकार को सद्दाम ने बधाई दी थी, जबकि कई परमाणु शक्ति वाले राष्ट्रों ने आर्थिक प्रतिबन्ध लादे थे। सद्दाम के नेतृत्ववाली बाथ सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में शिरकत करते रहे। भारतीय राजनेताओं को स्मरण होगा कि भारतीय रेल के असंख्य कर्मियों को आकर्षक अवसर सद्दाम ने वर्षों तक उपलब्ध कराए। उत्तर प्रदेश सेतु निर्माण निगम ने तो ईराक से मिले ठेकों द्वारा बहुत लाभ कमाया। पैंतीस लाख भारतीय श्रमजीवी सालाना एक खरब रुपये भारत भेजते थे। भारत को ईराकी तेल सस्ते दामों पर मुहय्या होता रहा। इस सुविधा का दुरूपयोग करने में कांग्रेस विदेश मंत्री (नटवर सिंह जैसे) तक नहीं चूके थे। आक्रान्त ईराक के तेल पर कई भारतीयों ने बेशर्मी से चाँदी काटी। भारत के सेक्युलर मुसलमानों को फक्र होगा याद करके कि ईराक में बुर्का लगभग लुप्त हो गया था। नरनारी की गैरबराबरी का प्रतीक यह काली पोशाक सद्दाम के ईराक में नागवार बन गई थी। कर्बला, मौसूल, टिकरीती आदि सुदूर इलाकों में मुझे तब बुर्का दिखा ही नहीं। स्कर्ट और ब्लाउज़ राजधानी बगदाद में आम लिबास था। माथे पर वे बिन्दिया लगाती थीं और उसे “हिन्दिया” कहती थीं। आधुनिक स्कूलों में पढ़ती छात्राओं, मेडिकल कालेजों में महिला चिकित्सकों और खाकी वर्दी में महिला पुलिस और सैनिकों को देखकर आशंका होती थी कि कहीं हिन्दूबहुल भारत से आगे यह इस्लामी देश न बढ़ जाए।
सद्दाम हुसैन के समय में हुई प्रगति में आज परिवर्तन आया है। अधोगति हुई है। टिग्रिस नदी के तट पर या बगदाद की सड़कों पर राहजनी और लूट अब आम बात है। एक दीनार जो साठ रूपये के विनिमय दर पर था, आज रूपये में दस मिलता है। दुपहियों और तिपहियों को पेट्रोल मुफ्त मिलता था, केवल शर्त थी कि चालक खुद उसे भरे। भारत में बोतल भर एक लीटर पानी दस रूपये का है। सद्दाम के ईराक में उसके चैथाई दाम पर लीटर भर पेट्रोल मिलता था।
अमरीका द्वारा थोपे गये “लोकतांत्रिक” संविधान के तहत सेक्युलर निज़ाम का स्थान आज कठमुल्लों ने कब्जाया है। नरनारी की गैरबराबरी फिर मान्य हो गई है। दाढ़ी और बुर्का भी प्रगट हो गये हैं। ईराकी युवतियों के ऊँचे ललाट, घनी लटें, गहरी आंखें, नुकीली नाक, शोणित कपोल, उभरे वक्ष अब छिप गये। यदि आज बगदाद में कालिदास रहते तो वे यक्ष के दूत मेघ के वर्ण की उपमा एक सियाह बुर्के से करते। ईराक में ठीक वैसा ही हुआ जो सम्राट रजा शाह पहलवी के अपदस्थ होने पर खुमैनी.राज में ईरान में हुआ, जहां चांद को लजा देने वाली पर्शियन रमणियां काले कैद में ढकेल दी गईं। नये संविधान में बहुपत्नी प्रथा, ज़ुबानी तलाक का नियम और जारकर्म पर केवल स्त्री को पत्थर से मार डालना फिर कानूनी बन गया हैं।
अतः चर्चा का मुद्दा है कि आखिर अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का अंजाम ऐसा क्यों हुआ मजहब के नाम पर बादशाहत और सियासत करने वालों को सद्दाम कभी पसन्द नहीं आए। उनकी बाथ सोशलिस्ट पार्टी ने रूढ़िग्रस्त ईराकी समाज को समता-मूलक आधार पर पुनर्गठित किया। रोटी, दवाई, शिक्षा, आवास आदि बुनियादी आवश्यकताओं को मूलाधिकार बनाया था। पड़ोसी अरब देशों में मध्यकालीन बर्बरता राजकीय प्रशासन की नीति है, मगर बगदाद में कानूनी ढांचा पश्चिमी न्याय सिद्धान्त पर आधारित था। ईराक में चोरी का दण्ड हाथ काटना नहीं था, वरन् जेल की सज़ा होती थी। 
सद्दाम को जार्ज बुश ने सेटन (शैतान) कहा। टिकरीती का एक यतीम तरूण सद्दाम हुसैन चाचाओं की कृपा पर पला। पैगम्बरे इस्लाम की पुत्री फातिमा का यह वंशज जब मात्र उन्नीस वर्ष का था तो बाथ सोशलिस्ट पार्टी में भर्ती हुआ। श्रम को उचित महत्व देना उसका जीवन दर्शन था। अमरीकी फौजों ने अपदस्थ राष्ट्रपति की जो मूर्तियां ढहा दी है, उनमें सद्दाम हुसैन हंसिया से बालियाँ काटते और हथौड़ा चलाते दिखते थे। अक्सर प्रश्न उठा कि सद्दाम हुसैन ईराक में ही क्यों छिपे रहे, क्योंकि उन्होंने हार मानी नहीं, रार ठानी थी। अमूमन अपदस्थ राष्ट्रनेतागण स्विस बैंक में जमा दौलत से विदेश में जीवन बसर करते हैं। बगदाद से पलायन कर सद्दाम भी कास्त्रों के क्यूबा, किम जोंग इल के उत्तरी कोरिया अथवा चेवेज़ के वेनेजुएला में पनाह पा सकते थे। ये तीनों अमरीका के कट्टर शत्रु रहे। जब अमरीकी सैनिकों ने उन्हें पकड़ने के बाद पूछा कि आप कौन हैं, तो इसी दृढ़ता के साथ सद्दाम का सीधा जवाब था, “सार्वभौम ईराक का राष्ट्रपति हूँ”। महज भारत के लिये ही सद्दाम हुसैन का अवसान साधारण हादसा नहीं हैं क्योंकि इस्लामी राष्ट्रनायकों में एक अकेला सेक्युलर व्यक्ति बिदा हो गया था। केवल चरमपन्थी लोग ही इस पीड़ा से अछूते रहेंगे। कारण-दर्द की अनुभूति के लिए मर्म होना चाहिए !
K Vikram Rao
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3 comments:

Bharat Bhushan said...

सद्दाम हुसैन ने इराक में विकास का महत् कार्य किया है इसमें संदेह नहीं. लेकिन यदि युद्ध की तकनीक जन की अपेक्षाओं और उसकी भलाई के विरुद्ध कारगर हो जाए तो क्या किया जाए. कई बार लगता है कि परमाणु तकनीक और परमाणु बमों के चोरी होने का भय जो अमेरिका सालता है वह वास्तविक है.

मनोज कुमार said...

मेरे लिए तो यह सब बिलकुल नई जानकारी है।

Randhir Singh Suman said...

nice