Sunday, April 20, 2014

रसोई गैस और रिलायान्स की लूट जनता की कमर गई टूट ---विजय राजबली माथुर




government had not withdrawn the notification on price hike....... "Reliance is arm-twisting fertiliser companies to sign agreements with it based on the increased price of $8.4 per mmbtu from April 1". He said the government is "conveniently looking the other way, even as fertiliser companies are being brow-beaten to sign this patently illegal agreement".

रिलायंस इंडस्ट्रीज समानांतर सरकार है : गोपालकृष्ण गांधी

 ऊपर दिये गए दोनों लिंक्स पर दो ब्लाग्स में वे तथ्य सम्मिलित किए गए हैं जिनसे रिलायंस द्वारा जनता की लूट को समझने में आसानी होगी। 

लखनऊ चिल्ड्रेन्स एकेडमी की प्राचार्या पारुल सिंह जी का यह कथन कितना यथार्थपरक है जिस पर ध्यान अवश्य ही दिया जाना चाहिए-"सरकार को निम्न वर्ग के बारे में भी सोचना चाहिए कि वह सिलेन्डर की तय संख्या से अधिक लेने पर रु 1300/-का सिलेन्डर कैसे लेगा?"

  अभी भी सरकार ने 'आधार कार्ड' योजना को रद्द नहीं किया है और मामला सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है। इस देशद्रोही योजना के विरुद्ध केवल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी ने ही आवाज़ उठाई है। 

Petroleum Ministry has created a confusion to deprive the poor people. They have made AADHAAR CARD mandatory for disbursement of subsidy on LPG cylinder purchase. I am shocked with this decision.
 रिलायंस तथा विदेशी कंपनियों को लाभ पहुंचाने हेतु बढ़ती लागत के आधार पर रसोई गैस के दाम लगातार बढ़ाए जाते रहे हैं दूसरी ओर कोयला तथा लकड़ी का प्रयोग 'पर्यावरण प्रदूषण' के नाम पर वर्जित किया गया है। आखिरकार गरीब वर्ग किस प्रकार अपनी रसोई में भोजन पकाएगा? इस ओर कौन सोचेगा? सरकार का कार्य क्या उद्योगपति/व्यापारी की सेवा करना और गरीब जनता का उत्पीड़न व शोषण करना है?

2009 तक हम लोग आगरा में थे और अक्सर बस द्वारा मथुरा जाना होता था। फरह में मथुरा रिफायनरी के सामने से जब बस गुजरती थी तो साफ-साफ दिखाई देता था कि रिफायनरी में लगी चिमनी से लगातार आग की लपटें निकल रही हैं। ज्ञात यह हुआ कि सिलेंडरों के आभाव में लगभग 300 (तीन  सौ)  सिलेंडरों में भरने लायक गैस जला दी जाती है। वर्ष में 109500 (एक लाख नौ हज़ार पाँच सौ ) सिलेन्डर गैस अकेले मथुरा रिफायनरी से ही फूंकी जाती रही है। इस प्रकार देश की अन्य रिफायनरियों में भी गैस की बरबादी को जोड़ लिया जाये तो जितना ईंधन व्यर्थ नष्ट किया जा रहा है क्या उसे संचित करके ज़रूरतमन्द जनता को मुहैया नहीं कराया जा सकता है? रिफायनरियों के इंजीनियर अपने कमीशन के चक्कर में नई दूसरी कंपनियों को सिलेन्डर निर्माण की अनुमति नहीं देते हैं तथा पुरानी कंपनिये क्षमतानुसार ही तो निर्माण कर सकती हैं लेकिन नई कंपनियों को आने न देने में इंजीनियरों को प्रोत्साहित करती हैं। इस प्रकार ईंधन की अनावश्यक बरबादी,लूट खसोट जनता पर भारी पड़ती जा रही है। 

'बुभिक्षुतम किं न करोति पापं' । यदि जनहित को यों ही नज़रअंदाज़ किया जाता रहेगा तो एक दिन भूखी जनता रिलायंस इंडस्ट्रीज पर टूट पड़ेगी और उसके समानान्तर साम्राज्य को उखाड़ फेंकेगी। अतः समय रहते सरकार को कम से कम रिलायंस की रिफायनरियों का राष्ट्रीयकरण करके,ईंधन की बरबादी रोक कर गैस की कीमतों में तत्काल कमी करनी चाहिए।




~विजय राजबली माथुर ©
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Tuesday, April 15, 2014

आधार की सूचनाएँ हो सकती हैं चोरी/आधार योजना रद्द कराने वाले को ही 'वोट' दें ---विजय राजबली माथुर








कारपोरेट के तीन दलाल - नीलकेनी,मोदी और केजरीवाल।
इन चुनावों में हराना है इन तीनों को हर हाल,हर हाल। ।
The UIDAI was set up by executive notification on 28th January, 2009 to be initially located in the Planning Commission. It was decided early on that the law would be thought about at some, indefinite, later date. A Bill was actually introduced only on 3rd December 2010, over two months after the UIDAI had begun to enroll and data base the citizenry. It happened even then only because many groups and individuals were insistent, demanding to know how a project that was collecting personal information, including fingerprints and iris, was proceeding without public discussion and parliamentary consideration. The Bill was referred to the Standing Committee on Finance which on 13th December 2011, which roundly rejected the Bill, and recommended that the project be sent back to the drawing board. What did the UIDAI do? They carried straight on with enrolment, and the law fell into a well of silence. When the Supreme Court began to hear cases that had been filed before it challenging the UID project, then it was that talk of a revised Bill was briefly revived, but it led to nothing. So, there is still no law, nothing to define the limits of the project and protect the citizenry against situations such as loss of the data, data theft, abuse by anyone gaining access to the data, and recognise the privacy interest of the individual.
http://www.kractivist.org/aadhaar-the-many-wrongs-of-an-unseemly-project-uid/


And so it goes on. No respect for law, for court orders, for the individual’s privacy. Using a technology that is uncertain and untested. Deploying coercion and compulsion. Making a business without our data. And more, much more. Such as creating a database that make surveillance, tagging, tracking so much simpler than it was. Such as handing over our data to foreign companies with close links with intelligence agencies including the CIA and Homeland Security in the US, and then saying, most amazingly (in an RTI) that they had no means of knowing that they were foreign companies! And, most unforgivably, causing a culture to emerge when every person will be presumed to be a potential wrongdoer and therefore with each person having to ensure that they are transparent to those who want to control us, and our actions.

The hard-earned gains of getting the state to be transparent by using the RTI is turned on its head, and it is now we who are to be transparent to the state and to whoever else has access to the data and in the many places where the number resides. This, we are told, is how the system is being set right. How much more irony can our democracy bear!

Usha Ramanathan


 ~विजय राजबली माथुर ©
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Monday, April 14, 2014

दीवार पर लिखे को न समझा तो भारत झेलेगा प्रकृति का रौद्र रूप......




एक नज़र पूर्व प्रकाशित इस लेख पर भी डाल लें :


"Friday, July 8, 2011


विकास या विनाश

१९४७ में जब हमारा देश औपनिवेशिक गुलामी से आजाद हुआ था तो हमारे यहाँ सुई तक नहीं बंनती थी और आज हमारे देश में राकेट ,मिसाईलें तक बनने लगी हैं.विकास तो हुआ है जो दीख रहा है उसे झुठलाया नहीं जा सकता.लेकिन यह सारा विकास ,सारी प्रगति,सम्पूर्ण समृद्धि कुछ खास लोगों के लिए है शेष जनता तो आज भी भुखमरी,बेरोजगारी,कुपोषण आदि का शिकार है.गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर हुआ है.आजादी का अर्थ यह नहीं था.इसके लिए सरदार भगत सिंह,चंद्रशेखर आजाद,रामप्रसाद बिस्मिल,अश्फाक उल्लाह खां,रोशन लाल लाहिरी आदि अनेकों क्रांतिकारियों ने कुर्बानी नहीं दी थी.यह मार्ग विकास का नहीं ,विनाश का है.

विकास का लाभ आम जन को मिले इस उद्देश्य से प्रेरित नौजवानों नें नक्सलवाद का मार्ग अपना लिया और छत्तीस गढ की भाजपा सरकार ने इन्हें कुचलने हेतु 'सलवा-जुडूम' तथा एस पी ओ का गठन स्थानीय युवकों को लेकर कर लिया था जिसे भंग करने का आदेश देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि,"इस सशस्त्र विद्रोह के लिए सामजिक,आर्थिक विषमता,भ्रष्ट शासन तंत्र और 'विकास के आतंकवाद'  हैं".

जस्टिस बी.सुदर्शन रेड्डी का मत है-"मिडिल क्लास की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए हो रहे औद्योगिकीकरण व् अंधाधुंध माइनिंग के कारण किसान जमीन-जंगल से लगातार बेदखल हो रहे हैं.नक्सल आंदोलन के पैदल सिपाही यही किसान और आदिवासी हैं"

(Hindustan-08/07/2011-Lucknow-Page-16)


"कोरिया की पास्को कं.को उड़ीसा में ५० वर्ष तक लौह अयस्क ले जाने हेतु किसानों की उपजाऊ जमीन दे दी गयी है लेकिन किसान कब्ज़ा नहीं छोड़ रहे हैं और ऐसा करना उनका जायज हक है.२४ जून को सारे देश में किसानों के प्रति एकजुटता प्रदर्शित करने हेतु 'पास्को विरोधी दिवस' मनाया गया था (इस ब्लाग में इस आशय का एक लेख भी दिया था),किन्तु अधिकाँश लोग अपने-अपने में मस्त थे,उन्हें उड़ीसा के गरीब किसानों से कोई मतलब नहीं था .नंदीग्राम और सिंगूर में हल्ला बोलने वाली मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी भी चुप्पी साधे रहीं.

'नया जमाना',सहारनपुर के संस्थापक संपादक स्व.कन्हैया लाल मिश्र'प्रभाकर' ने आर.एस.एस.नेता लिमये जी से एक बार कहा था कि शीघ्र ही दिल्ली की सत्ता के लिए सड़कों पर संघियों-कम्यूनिस्टों के मध्य संघर्ष होगा.दिल्ली नहीं तो छत्तीस गढ़ में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पूर्व यह हो ही रहा था.१९२५ में आजादी के आंदोलन को गति प्रदान करने हेतु जब 'भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी' का गठन किया गया तो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने पृष्ठपोषक बुद्धिजीवियों को बटोर कर आर.एस.एस.का गठन करवा दिया जिसने साम्राज्यवाद की सहोदरी 'साम्प्रदायिकता' को पाला-पोसा और अंततः देश का विभाजन करा दिया.१९४७ में हुआ विभाजन १९७१ में एक और विभाजन लेकर आया जिसने दो राष्ट्रों की थ्योरी को ध्वस्त कर दिया.भारत के ये तीनों हिस्से भीषण असमानता के शिकार हैं.तीनों जगह सत्ताधीशों ने अवैध्य कमाई के जरिये जनता का खून चूसा है.तीनों जगह आम जनता का जीवन यापन करना बेहद मुश्किल हो रहा है.सरकारें साम्राज्यवाद के आधुनिक मसीहा अमेरिका के इशारे पर काम कर रही हैं न कि अपने-अपने देश की जनता के हित में.

तीनों देशों में फिरकापरस्त लोग अफरा-तफरी फैला कर जीवन की मूलभूत समस्याओं से ध्यान हटा रहे हैं.लोक-लुभावन नारे लगा कर पूंजीपतियों के पिट्ठू ही साधारण जन को ठग कर सत्ता में पहुँच जाते हैं.जाति,धर्म.सम्प्रदाय,गोत्र ,क्षेत्रवाद की आंधी चला कर सर्व-साधारण को गुमराह कर दिया जाता है.जो लोग गरीबों के रहनुमा हैं किसानों और मजदूरों के हक के लड़ाका हैं वे अपने अनुयाइयों के वोट हासिल नहीं कर पते हैं और सत्ता से वंचित रह जाते हैं.नतीजा साफ़ है जो प्रतिनिधि चुने जाते हैं वे अपने आकाओं को खुश करने की नीतियाँ और क़ानून बनाते हैं ,आम जन तो उनकी वरीयता में होता ही नहीं है.

क्या आम जनता इसके लिए उत्तरदायी है?कुछ हद तक तो है ही क्योंकि वही तो जाति,धर्म ,सप्रदाय के बहकावे में गलत लोगों को वोट देकर भेजती है.लेकिन इसके लिए जिम्मेदार मुख्य रूप से समाज में प्रचलित अवैज्ञानिक मान्यताएं और धर्म के नाम पर फैले अंध-विशवास एवं पाखण्ड ही हैं.विज्ञान के अनुयायी और साम्यवाद के पक्षधर सिरे से ही धर्म को नकार कर अधार्मिकों के लिए मैदान खुला छोड़ देते हैं जिससे उनकी लूट बदस्तूर जारी रहती है और कुल नुक्सान साम्यवादी-विचार धारा तथा वैज्ञानिक सोच को ही होता है.

धर्म=जो धारण करता है वही धर्म है -यह धारणा कैसे अवैज्ञानिक और मजदूर-किसान विरोधी हो गयी.लेकिन किसान-मजदूर विरोधी लोग जम कर धर्म की गलत व्याख्या प्रस्तुत करके किसान और मजदूर को उलटे उस्तरे से लूट ले जाते हैं क्योंकि हम सच्चाई बताते ही नहीं तो लोग झूठे भ्रम जाल में फंसते चले जाते हैं.

भगवान=भूमि का 'भ'+गगन का 'ग'+वायु का 'व्'+अनल(अग्नि)का अ ='I'+नीर(जल)का' न ' मिलकर ही भगवान शब्द बना है यह कैसे अवैज्ञानिक धारणा हुयी,किन्तु हम परिभाषित नहीं करते तो ठग तो भगवान के नाम पर ही जनता को लूटते जाते हैं.

(चूंकि प्रकृति के ये पांचों तत्व(भगवान) खुद ही बने हैं इनको किसी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही सम्मिलित रूप से 'खुदा' हैं। इनका कार्य उत्पत्ति (GENERATE),पालन (OPRATE) और संहार (DESTROY)है अर्थात ये ही GOD हैं )
मंदिरों से प्राप्त खजाने इस बात का गवाह हैं कि ये मंदिर बैंकों की भूमिका में थे जहाँ समाज का धन सुरक्षित रखा गया था लेकिन आज इसे 'ट्रस्ट'के हवाले करके समृद्ध लोगों की मौज मस्ती का उपाय मुकम्मिल करने की बातें हो रही हैं.१९६२ में गोला बाजार,बरेली में हम लाला धरम प्रकाश जी के मकान में किराए पर रहते थे.जो दीवार कच्ची अर्थात मिट्टी की बनी थी उसे ढहा कर उन्होंने पक्की ईंटों की दीवार बनवाई .कच्ची दीवार से गडा खजाना निकला तुरंत पुलिस पहुँच गयी क्योंकि कानूनन पुराना खजाना सरकार  या समाज की संपत्ति है.पुलिस को भेंट चढा कर उन्होंने रिपोर्ट लगवा दी खजाने की खबर झूठी थी.लेकिन मंदिरों से प्राप्त खजाने की खबर तो झूठी नहीं है फिर इसे किसी ट्रस्ट को क्यों सौंपने की बातें उठ रही हैं ,यह क्यों नहीं सीधे सरकारी खजाने में जमा किया जा रहा है?यदि यह धन सरकारी खजाने में पहुंचे तो गरीब तबके के विकास और रोजगार की अनेकों योजनाएं परिपूर्ण हो सकती हैं.जो करोड़ों लोग भूख से बेहाल हैं उन्हें दो वक्त का भोजन नसीब हो सकता है.

कहीं भी किसी भी उपासना स्थल से प्राप्त होने वाला खजाना राष्ट्रीय धरोहर घोषित होना चाहिए न कि किसी विशेष हित -साधना का माध्यम बनना चाहिए.चाहे संत कबीर हों ,चाहे स्वामी दयानंद अथवा स्वामी विवेकानंद और चाहे संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डाक्टर अम्बेडकर सभी ने आम जन के हित पर बल दिया है न कि वर्ग विशेष के हित पर.अतः यदि समय रहते आम जन का समाज ने ख्याल नहीं किया तो आम जन बल प्रयोग द्वारा समाज से अपना हक हासिल कर ही लेगा."

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उपर्युक्त लेख में सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों को ही शामिल किया गया है किन्तु यदि प्रकृति की 'प्रकृति' को न समझा गया तो जैसा  कि वैज्ञानिक खोजें बता रही हैं भारत को उत्तराखंड,कुम्भ,देवघर,आदि सरीखी प्राकृतिक विभीषीकाओं  का निश्चय ही सामना करना पड़ेगा। यदि इनसे बचाव करना है तो इस अवैज्ञानिक विकास (वस्तुतः विनाश ) की प्रक्रिया को पूर्ण विराम देकर मानवोचित समाज-व्यवस्था भी स्थापित करनी होगी,समानता पर आधारित राज-व्यवस्था भी स्थापित करनी होगी और प्रकृति से सामंजस्य वाली प्राचीन भारतीय पद्धती भी पुनर्स्थापित करनी होगी। ऐसी संभावनाएं फिलहाल अभी तो न के बराबर हैं। अतः तैयार रहना होगा प्राकृतिक प्रकोप झेलने को।
  ~विजय राजबली माथुर ©
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28-04-2015 : 

Sunday, April 13, 2014

कौमी एकता और सांप्रदायिकता ---विजय राजबली माथुर

  
फेसबुक पर 09 अप्रैल को :


सांप्रदायिकता ---

सांप्रदायिकता का आधुनिक इतिहास 1857 की क्रांति की विफलता के बाद शुरू होता है। चूंकि 1857 की क्रांति मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के नेतृत्व मे लड़ी गई थी और इसे मराठों समेत समस्त भारतीयों की ओर से समर्थन मिला था सिवाय उन भारतीयों के जो अंग्रेजों के मित्र थे तथा जिनके बल पर यह क्रांति कुचली गई थी।ब्रिटेन ने सत्ता कंपनी से छीन कर जब अपने हाथ मे कर ली तो यहाँ की जनता को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने हेतु प्रारम्भ मे मुस्लिमों को ज़रा ज़्यादा  दबाया। 19 वी शताब्दी मे सैयद अहमद शाह और शाह वली उल्लाह के नेतृत्व मे वहाबी आंदोलन के दौरान इस्लाम मे तथा प्रार्थना समाज,आर्यसमाज,राम कृष्ण मिशन और थियोसाफ़िकल समाज के नेतृत्व मे हिन्दुत्व मे सुधार आंदोलन चले जो देश की आज़ादी के आंदोलन मे भी मील के पत्थर बने। असंतोष को नियमित करने के उद्देश्य से वाइसराय के समर्थन से अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन हयूम ने कांग्रेस की स्थापना कारवाई। जब कांग्रेस का आंदोलन आज़ादी की दिशा मे बढ्ने लगा तो 1905 मे बंगाल का विभाजन कर हिन्दू-मुस्लिम मे फांक डालने का कार्य किया गया। किन्तु बंग-भंग आंदोलन को जनता की ज़बरदस्त एकता के आगे 1911 मे इस विभाजन को रद्द करना पड़ा। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन  एवं सर आगा खाँ को आगे करके मुस्लिमों को हिंदुओं से अलग करने का उपक्रम किया जिसके फल स्वरूप 1906  मे मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और 1920 मे हिन्दू महासभा की स्थापना मदन मोहन मालवीय को आगे करके करवाई गई जिसके सफल न हो पाने के कारण 1925 मे RSS की स्थापना कारवाई गई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करना था । मुस्लिम लीग भी साम्राज्यवाद का ही संरक्षण कर रही थी जैसा कि,एडवर्ड थाम्पसन ने 'एनलिस्ट इंडिया फार फ़्रीडम के पृष्ठ 50 पर लिखा है-"मुस्लिम संप्रदाय वादियों  और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों मे गोलमेज़ सम्मेलन के दौरान अपवित्र गठबंधन रहा। "

वस्तुतः मेरे विचार मे सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद सहोदरी ही हैं। इसी लिए भारत को आज़ादी देते वक्त भी ब्रिटश साम्राज्यवाद  ने पाकिस्तान और भारत  दो देश बना दिये। पाकिस्तान तो सीधा-सीधा वर्तमान साम्राज्यवाद के सरगना अमेरिका के इशारे पर चला जबकि अब भारत की सरकार  भी अमेरिकी हितों का संरक्षण कर रही है। भारत मे चल रही सभी आतंकी गतिविधियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन अमेरिका का रहता है। हाल के दिनों मे जब बढ़ती मंहगाई ,डीजल,पेट्रोल,गैस के दामों मे बढ़ौतरी और वाल मार्ट को सुविधा देने के प्रस्ताव से जन-असंतोष व्यापक था अमेरिकी एजेंसियों के समर्थन से सांप्रदायिक शक्तियों ने दंगे भड़का दिये। इस प्रकार जनता को आपस मे लड़ा देने से मूल समस्याओं से ध्यान हट गया तथा सरकार को साम्राज्यवादी हितों का संरक्षण सुगमता से करने का अवसर प्राप्त  हो गया।

धर्म निरपेक्षता---

धर्म निरपेक्षता एक गड़बड़ शब्द है। इसे मजहब या उपासना पद्धतियों के संदर्भ मे प्रयोग किया जाता है । संविधान मे भी इसका उल्लेख इसी संदर्भ मे  है । इसका अभिप्राय यह था कि,राज्य किसी भी उपासना पद्धति या मजहब को संरक्षण नही देगा। जबकि व्यवहार मे केंद्र व राज्य सरकारें कुम्भ आदि मेलों के आयोजन मे भी योगदान देती हैं और हज -सबसीडी के रूप मे भी। वास्तविकता यह है कि ये कर्म धर्म नहीं हैं। धर्म का अर्थ है जो मानव शरीर और मानव सभ्यता को धारण करने के लिए आवश्यक हो। जैसे -सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। धर्म निपेक्षता की आड़ मे इन सद्गुणों का तो परित्याग कर दिया गया है और ढोंग-पाखण्ड-आडंबर को विभिन्न सरकारें खुद भी प्रश्रय देती हैं और उन संस्थाओं को भी बढ़ावा देती हैं जो ऐसे पाखंड फैलाने मे मददगार हों। इन पाखंडों से किसी भी  आम जनता का  भला  नहीं होता है किन्तु व्यापारी/उद्योगपति वर्ग को भारी आर्थिक लाभ होता है। अतः कारपोरेट घरानों के अखबार और चेनल्स पाखंडों का प्रचार व प्रसार खूब ज़ोर-शोर से करते हैं। 

एक ओर धर्म निरपेक्षता की दुहाई दी जाती है और दूसरी ओर पाखंडों को धर्म के नाम पर फैलाया जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि धर्म को उसके वास्तविक रूप मे समझ-समझा कर उस पर अमल किया जाए और ढोंग-पाखंड चाहे वह किसी भी मजहब का हो उसका प्रतिकार किया जाये। पहले प्रबुद्ध-जनों को समझना व खुद को सुधारना  होगा फिर जनता व सरकार को समझाना होगा तभी उदेश्य साकार हो सकता है। वरना तो धर्म निरपेक्षता के नाम पर सद्गुणों को ठुकराना और सभी मजहबों मे ढोंग-पाखंड को बढ़ाना जारी रहेगा और इसका पूरा-पूरा लाभ शोषक-उत्पीड़क वर्ग को मिलता रहेगा। जनता आपस मे सांप्रदायिकता के भंवर जाल मे फंस कर लुटती-पिसती रहेगी। 
 http://krantiswar.blogspot.in/2012/11/sampradayikta-dharam-nirpexeta.html
  ~विजय राजबली माथुर ©
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Monday, April 7, 2014

ज्योतिष का विरोध :कितना तार्किक कितना .....?---विजय राजबली माथुर

"राहू काल से डरे हुये राजनेता"शीर्षक लेख की अंतिम पंक्तियों में कहा गया है -"आखिर लोगों की निजी 'आस्था' की आड़ में धर्म और राजनीति के इस घालमेल पर आप क्या कहेंगे?"

'धर्म'=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
काश राजनीति में धर्म का समन्वय होता तो कोई संकट ही न खड़ा होता। धर्म विहीन राजनीति ही समस्त संकटों की जड़ है। व्यापारिक शोषण पर आधारित विभाजनकारी,विखंडंनकारी,उत्पीड़क 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' कतई धर्म नहीं है जबकि लेख में उसी को धर्म की संज्ञा दी गई है । राजनेता ढोंग-पाखंड-आडंबर में अपने-अपने व्यापारिक/आर्थिक हितों के मद्दे नज़र उलझे हैं उसे राजनीति में धर्म का घालमेल कह कर बड़ी चालाकी से उद्योगपतियों,व्यापारियों और कारपोरेट घरानों के शोषण-उत्पीड़न को ढका गया है। 

ज्योतिष=ज्योत + इष=प्रकाश का ज्ञान । 
ज्योतिष का उद्देश्य मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाना है। 

लेकिन लेख में जिस प्रक्रिया को ज्योतिष और धर्म की संज्ञा दी गई है वह ढोंग-पाखंड-विभ्रम है 'ज्योतिष' नहीं।यदि वास्तविक ज्योतिष ज्ञान के आधार पर राय दी गई होती तो एक ही व्यक्ति अनेक राजनेताओं को एक से मुहूर्त नहीं दे सकता था। किसी भी व्यक्ति पर उसके जन्मकालीन ग्रह-नक्षत्रों, उनके आधार पर उसकी महादशा-अंतर्दशा,तथा उसकी जन्म-कुंडली पर गोचर-कालीन ग्रहों का व्यापक प्रभाव पड़ता है फिर सबके लिए एक ही समय के मुहूर्त का क्या मतलब?और यह भी कि नामांकन निरधारित समयावधि में ही किया जा सकता है चाहे उस बीच मुहूर्त हो या न हो। एवं एक स्थान -क्षेत्र से एक ही प्रतिनिधि चुना जाएगा फिर परस्पर प्रतिद्वंदी मुहूर्त निकलवा कर क्या सिद्ध करेंगे?यह मूरखों को मूर्ख बनाने का गोरख धनदा है 'ज्योतिष' नहीं। 
कुछ अति प्रगतिशील वैज्ञानिक 'ग्रह-नक्षत्रों'के प्रभाव को ही नहीं मानते हैं वैसे लोगों की मूर्खता के ही परिणाम हैं विभिन्न प्राकृतिक-प्रकोप। 

यदि ग्रह-नक्षत्रों का प्राणियों पर प्रभाव पड़ता है तो वहीं प्राणियों का सामूहिक प्रभाव भी ग्रह-नक्षत्रों पर पड़ता है। एक बाल्टी में पानी भर कर उसमें गिट्टी फेंकेंगे तो 'तरंगे'दिखाई देंगी। यदि एक तालाब में उसी गिट्टी को डालेंगे तो हल्की तरंग मालूम पड़ सकती है किन्तु नदी या समुद्र में उसका प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होगा परंतु 'तरंग' निर्मित अवश्य होगी । इसी प्रकार  सीधे-सीधी तौर पर मानवीय व्यवहारों का प्रभाव ग्रहों या नक्षत्रों पर दृष्टिगोचर नहीं हो सकता उसका एहसास तभी होता है जब प्रकृति दंडित करती है जैसे-उत्तराखंड त्रासदी,नर्मदा मंदिर ,कुम्भ आदि की भगदड़। क्योंकि ये सारे ढोंग-पाखंड-आडंबर झूठ ही धर्म का नाम लेकर होते हैं इसलिए इनमें भाग लेने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार होते हैं। ढोंग-पाखंड-आडंबर फैलाने का दायित्व केवल पुरोहितों-पंडे,पुजारी,मुल्ला-मौलवी,पादरी आदि का ही नहीं है बल्कि इनसे ज़्यादा तथाकथित 'प्रगतिशील' व 'वैज्ञानिक' होने का दावा करने वाले 'अहंकारी विद्वानों' का है जो उसी ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म से संबोधित करते हैं बजाए कि जनता को समझाने व जागरूक करने के। यह लेख ऐसे विद्वानों का ही प्रतिनिधित्व करता है। 





  ~विजय राजबली माथुर ©
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