* मोदी ने झूठ से भरे और निचले स्तर के भाषण किए और पैसे तथा नौकरशाही के इस्तेमाल में कोई कसर नहीं छोड़ा। लेकिन वही मोदी लोकप्रिय साबित हुए क्योंकि कारपोरेट पूंजीवाद उनके पीछे खड़ा था। मीडिया, सोशल मीडिया और प्रचार में उन्होंने हजारों करोड़ खर्च किया और झूठ को सच साबित करने मे कामयाब हुए। अब उनकी जीत का औचित्य साबित करने की कोशिश होगी और पराजित विपक्ष भी अपने को लोकतांत्रिक तथा उदार साबित करने के लिए चुनाव अभियान में अपनाई गई अनैतिकता और बेईमानी की चर्चा करना बंद कर देगा। लेकिन इसकी चर्चा करने का असली समय यही है। इस बहुमत का नकाब उतरना चाहिए।
** भूमिहार को गिरिराज चाहिए, कन्हैया नहीं। ऐसा ही कायस्थों के साथ है, उन्हें रविशंकर प्रसाद चाहिए, शत्रुघ्न सिन्हा नहीं। इस तरह कई जाति और समुदाय पूरी तरह हिंदुत्व के असर में आए हैं।
एक दुःस्वप्न के सच होने जैसा है मोदी का वापस आना। पूरे पांच साल तक देश की संस्थाओं को क्षत-विक्षत करने के बाद देश को सामाजिक विभाजन में ले जाने का उनका अभियान अब इतनी ताकत से चलेगा कि शायद 1947 से ज्यादा बड़ा अंधकार देश को घेर ले। फर्क यही होगा कि उस समय आजादी के आंदोलन की रोशनी थी जो नफरत से भरे लोगांे को भी रास्ते पर ले आई। सरहद पार से दंगों की आग में झुलस कर आए लोग भी अमन और मुहब्बत की बात करते थे। आजादी के आंदोलन ने उनके दिल को ऐसा बनाया ही था। गांधी जी की मौत से एक तेज रोशनी फैली थी। ऐसी रोशनी अब गायब हो चुकी है। नाम बदलने यानि जनसंघ नाम धारण करने पर भी हिंदू महासभा और आरएसएस को वर्षों तक देश की मुख्यधारा में आने का इंतजार करना पड़ा। अब वे ही मुख्यधारा हैं, यह प्रज्ञा सिंह ठाकुर और गिरिराज सिंह की जीत से जाहिर हो गया। बिहार में गिरिराज सिंह को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पसंद नहीं करते, लेकिन बेगूसराय में कन्हैया कुमार के खिलाफ उनका समर्थन करने मेें उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ा क्योंकि भूमिहार जाति को साथ रखने का यही उपाय था। भूमिहार को गिरिराज चाहिए, कन्हैया नहीं। ऐसा ही कायस्थों के साथ है, उन्हें रविशंकर प्रसाद चाहिए, शत्रुघ्न सिन्हा नहीं। इस तरह कई जाति और समुदाय पूरी तरह हिंदुत्व के असर में आए हैं।
मतदान के बाद बेगूसराय के एक लड़के का फोन आया कि पचपनिया यानि अति-पिछड़ों के बड़े तबके ही नहीं, यादवों के एक हिस्से ने एनडीए के गठबंधन को वोट दिया है क्योंकि उन्हें लगता है कि पाकिस्तान से मोदी ही लड़ सकते हैं। मोदी यह प्रचार इसलिए कर पाए कि सेना के नाम के इस्तेमाल को लेकर चुनाव आयोग उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाया। चुनाव आयोग को अपना काम कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने बाध्य नहीं किया और मीडिया तो मोदी के साथ ही खड़ा था। मीडिया की औकात तो प्रधानंत्री ने उस दिन भी बता दी जब वह पांच साल शासन करने के बाद मीडिया से मुखातिब तो हुए, लेकिन उसके सवाल नहीं लिए। एक दंडवत मीडिया, ध्वस्त संस्थाओं और बिखरे विपक्ष का असली पीड़ित कौन होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है। इसके सबसे पहले पीड़ित मुसलमान होंगे, दूसरे दलित होंगे और तीसरे मजदूर होंगे। इसके पीड़ित वे देश के वे लोग भी होंगे जो सवाल करेंगे।
अब यह बहस निरर्थक है कि कांगे्रस भाजपा को रोक नहीं पाई। कांग्रेस नहीं रोक पाई तो बाकी भी उसे रोक नहीं पाए। संस्थाओं पर हमले के खिलाफ विपक्ष एकजुट नहीं हो पाया। इसमें समाजवादी, आंबेडकरवादी और वामपंथी सभी ने निकम्मेपन से काम किया। राहुल गांधी रफाल-रफाल चिल्लाते रहे, लेकिन इस मुद्दे पर उनकी पार्टी ने कोई आंदोलन नही किया। उनका प्रगतिशील घोषणा-पत्र बेअसर साबित हुआ क्योंकि कांग्रेस के पास कार्यकर्ताओं की वैसी फौज नहीं थी जो इसे लोगों के पास पहुंचाने की मेहनत कर सके। उसने तीन राज्यों की विधान सभाएं जीत तो लीं, लेकिन वैसेी सरकारें नहीं दे पाई जो वहां के लोगों में उत्साह भर सके। राहुल ने एक हताश फौज को लेकर लड़ाई लड़ी और बहादुरी से लड़ी। लेकिन राहुल गांधी को इस बात की बधाई देनी पड़ेगी कि उन्होंने कभी भी अपने को नीचे स्तर पर नहीं लाया।
बाकी विपक्ष का हाल क्या रहा? सपा, बसपा और राजेडी के पास जाति की पूंजी के अलावा कुछ नहीं बचा था। इस ताकत का भी इस्तेमाल वे नहीं कर पाए। उत्तर प्रदेश में एक दकियानूस, जातिवादी और सांप्रदायिक सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए जिस लड़ाई की जरूरत थी, उन्होंनेे नहीं लड़ी। बिहार में आरजेडी ने भी कुछ नहीं किया और विपक्ष के नेतृत्व के लिए जरूरी लड़ाई लड़ने में पूरी तरह नाकाम सिद्ध हुआ। लेकिन इनके बारे में भी कहना पडे़गा कि उन्होंने चुनाव अभियान को बहुत नीचे नहीं जाने दिया।
मोदी ने झूठ और निचले स्तर के भाषण किए और पैसे तथा नौकरशाही के इस्तेमाल में कोई कसर नहीं छोड़ा। लेकिन वही मोदी लोकप्रिय साबित हुए क्योंकि कारपोरेट पूंजीवाद उनके पीछे खड़ा था। मीडिया, सोशल मीडिया और प्रचार में उन्होंने हजारों करोड़ खर्च किया और झूठ को सच साबित करने मे कामयाब हुए। अब उनकी जीत का औचित्य साबित करने की कोशिश होगी और पराजित विपक्ष भी अपने को लोकतांत्रिक तथा उदार साबित करने के लिए चुनाव अभियान में अपनाई गई अनैतिकता और बेईमानी की चर्चा करना बंद कर देगा। लेकिन इसकी चर्चा करने का असली समय यही है। इस बहुमत का नकाब उतरना चाहिए। मोदी के राष्ट्रवाद के चेहरे प्रज्ञा ठाकुुर हैं, योगी आदित्यनाथ हैं, अनंत हेगडे हैं और उसके पीछे पूंजी की ताकत है। यह मुसलमान और पाकिस्तान के विरोध का यह हिंदू राष्ट्रवाद है। इससे लड़ने के लिए मंदिरों में भटकने और कुंभ में स्नान करने के बदले जन-समस्याओं को मजबूती से उठाने वाला और हर तरह के कट्टरपंथ के विरोध का आंदोलन होना चाहिए। चुनावी लड़ाई को आखिरी संघर्ष मत मानिए। इतिहास के महत्वपूर्ण फैसले सड़क पर होते हैं। देश किसी बड़े आंदोलन का इंतजार कर रहा है।
साभार :
http://www.drohkaal.com/is-bahumat-ka-naqab-utarna-chahiye/
~विजय राजबली माथुर ©
** भूमिहार को गिरिराज चाहिए, कन्हैया नहीं। ऐसा ही कायस्थों के साथ है, उन्हें रविशंकर प्रसाद चाहिए, शत्रुघ्न सिन्हा नहीं। इस तरह कई जाति और समुदाय पूरी तरह हिंदुत्व के असर में आए हैं।
अनिल सिन्हा द्रोहकाल संपादक मंडल के सदस्य है |
एक दुःस्वप्न के सच होने जैसा है मोदी का वापस आना। पूरे पांच साल तक देश की संस्थाओं को क्षत-विक्षत करने के बाद देश को सामाजिक विभाजन में ले जाने का उनका अभियान अब इतनी ताकत से चलेगा कि शायद 1947 से ज्यादा बड़ा अंधकार देश को घेर ले। फर्क यही होगा कि उस समय आजादी के आंदोलन की रोशनी थी जो नफरत से भरे लोगांे को भी रास्ते पर ले आई। सरहद पार से दंगों की आग में झुलस कर आए लोग भी अमन और मुहब्बत की बात करते थे। आजादी के आंदोलन ने उनके दिल को ऐसा बनाया ही था। गांधी जी की मौत से एक तेज रोशनी फैली थी। ऐसी रोशनी अब गायब हो चुकी है। नाम बदलने यानि जनसंघ नाम धारण करने पर भी हिंदू महासभा और आरएसएस को वर्षों तक देश की मुख्यधारा में आने का इंतजार करना पड़ा। अब वे ही मुख्यधारा हैं, यह प्रज्ञा सिंह ठाकुर और गिरिराज सिंह की जीत से जाहिर हो गया। बिहार में गिरिराज सिंह को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पसंद नहीं करते, लेकिन बेगूसराय में कन्हैया कुमार के खिलाफ उनका समर्थन करने मेें उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ा क्योंकि भूमिहार जाति को साथ रखने का यही उपाय था। भूमिहार को गिरिराज चाहिए, कन्हैया नहीं। ऐसा ही कायस्थों के साथ है, उन्हें रविशंकर प्रसाद चाहिए, शत्रुघ्न सिन्हा नहीं। इस तरह कई जाति और समुदाय पूरी तरह हिंदुत्व के असर में आए हैं।
मतदान के बाद बेगूसराय के एक लड़के का फोन आया कि पचपनिया यानि अति-पिछड़ों के बड़े तबके ही नहीं, यादवों के एक हिस्से ने एनडीए के गठबंधन को वोट दिया है क्योंकि उन्हें लगता है कि पाकिस्तान से मोदी ही लड़ सकते हैं। मोदी यह प्रचार इसलिए कर पाए कि सेना के नाम के इस्तेमाल को लेकर चुनाव आयोग उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाया। चुनाव आयोग को अपना काम कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने बाध्य नहीं किया और मीडिया तो मोदी के साथ ही खड़ा था। मीडिया की औकात तो प्रधानंत्री ने उस दिन भी बता दी जब वह पांच साल शासन करने के बाद मीडिया से मुखातिब तो हुए, लेकिन उसके सवाल नहीं लिए। एक दंडवत मीडिया, ध्वस्त संस्थाओं और बिखरे विपक्ष का असली पीड़ित कौन होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है। इसके सबसे पहले पीड़ित मुसलमान होंगे, दूसरे दलित होंगे और तीसरे मजदूर होंगे। इसके पीड़ित वे देश के वे लोग भी होंगे जो सवाल करेंगे।
अब यह बहस निरर्थक है कि कांगे्रस भाजपा को रोक नहीं पाई। कांग्रेस नहीं रोक पाई तो बाकी भी उसे रोक नहीं पाए। संस्थाओं पर हमले के खिलाफ विपक्ष एकजुट नहीं हो पाया। इसमें समाजवादी, आंबेडकरवादी और वामपंथी सभी ने निकम्मेपन से काम किया। राहुल गांधी रफाल-रफाल चिल्लाते रहे, लेकिन इस मुद्दे पर उनकी पार्टी ने कोई आंदोलन नही किया। उनका प्रगतिशील घोषणा-पत्र बेअसर साबित हुआ क्योंकि कांग्रेस के पास कार्यकर्ताओं की वैसी फौज नहीं थी जो इसे लोगों के पास पहुंचाने की मेहनत कर सके। उसने तीन राज्यों की विधान सभाएं जीत तो लीं, लेकिन वैसेी सरकारें नहीं दे पाई जो वहां के लोगों में उत्साह भर सके। राहुल ने एक हताश फौज को लेकर लड़ाई लड़ी और बहादुरी से लड़ी। लेकिन राहुल गांधी को इस बात की बधाई देनी पड़ेगी कि उन्होंने कभी भी अपने को नीचे स्तर पर नहीं लाया।
बाकी विपक्ष का हाल क्या रहा? सपा, बसपा और राजेडी के पास जाति की पूंजी के अलावा कुछ नहीं बचा था। इस ताकत का भी इस्तेमाल वे नहीं कर पाए। उत्तर प्रदेश में एक दकियानूस, जातिवादी और सांप्रदायिक सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए जिस लड़ाई की जरूरत थी, उन्होंनेे नहीं लड़ी। बिहार में आरजेडी ने भी कुछ नहीं किया और विपक्ष के नेतृत्व के लिए जरूरी लड़ाई लड़ने में पूरी तरह नाकाम सिद्ध हुआ। लेकिन इनके बारे में भी कहना पडे़गा कि उन्होंने चुनाव अभियान को बहुत नीचे नहीं जाने दिया।
मोदी ने झूठ और निचले स्तर के भाषण किए और पैसे तथा नौकरशाही के इस्तेमाल में कोई कसर नहीं छोड़ा। लेकिन वही मोदी लोकप्रिय साबित हुए क्योंकि कारपोरेट पूंजीवाद उनके पीछे खड़ा था। मीडिया, सोशल मीडिया और प्रचार में उन्होंने हजारों करोड़ खर्च किया और झूठ को सच साबित करने मे कामयाब हुए। अब उनकी जीत का औचित्य साबित करने की कोशिश होगी और पराजित विपक्ष भी अपने को लोकतांत्रिक तथा उदार साबित करने के लिए चुनाव अभियान में अपनाई गई अनैतिकता और बेईमानी की चर्चा करना बंद कर देगा। लेकिन इसकी चर्चा करने का असली समय यही है। इस बहुमत का नकाब उतरना चाहिए। मोदी के राष्ट्रवाद के चेहरे प्रज्ञा ठाकुुर हैं, योगी आदित्यनाथ हैं, अनंत हेगडे हैं और उसके पीछे पूंजी की ताकत है। यह मुसलमान और पाकिस्तान के विरोध का यह हिंदू राष्ट्रवाद है। इससे लड़ने के लिए मंदिरों में भटकने और कुंभ में स्नान करने के बदले जन-समस्याओं को मजबूती से उठाने वाला और हर तरह के कट्टरपंथ के विरोध का आंदोलन होना चाहिए। चुनावी लड़ाई को आखिरी संघर्ष मत मानिए। इतिहास के महत्वपूर्ण फैसले सड़क पर होते हैं। देश किसी बड़े आंदोलन का इंतजार कर रहा है।
साभार :
http://www.drohkaal.com/is-bahumat-ka-naqab-utarna-chahiye/
~विजय राजबली माथुर ©