Friday, May 24, 2019

:चुनावी लड़ाई को आखिरी संघर्ष मत मानिए ------ अनिल सिन्हा

 * मोदी ने झूठ से भरे और निचले स्तर के भाषण किए और पैसे तथा नौकरशाही के इस्तेमाल में कोई कसर नहीं छोड़ा। लेकिन वही मोदी लोकप्रिय साबित हुए क्योंकि कारपोरेट पूंजीवाद उनके पीछे खड़ा था। मीडिया, सोशल मीडिया और प्रचार में उन्होंने हजारों करोड़ खर्च किया और झूठ को सच साबित करने मे कामयाब हुए। अब उनकी जीत का औचित्य साबित करने की कोशिश होगी और पराजित विपक्ष भी अपने को लोकतांत्रिक तथा उदार साबित करने के लिए चुनाव अभियान में अपनाई गई अनैतिकता और बेईमानी की चर्चा करना बंद कर देगा। लेकिन इसकी चर्चा करने का असली समय यही है। इस बहुमत का नकाब उतरना चाहिए।
** भूमिहार को गिरिराज चाहिए, कन्हैया नहीं। ऐसा ही कायस्थों के साथ है, उन्हें रविशंकर प्रसाद चाहिए, शत्रुघ्न सिन्हा नहीं। इस तरह कई जाति और समुदाय पूरी तरह हिंदुत्व के असर में आए हैं।

अनिल सिन्हा द्रोहकाल संपादक मंडल के सदस्य है



एक दुःस्वप्न के सच होने जैसा है मोदी का वापस आना। पूरे  पांच साल तक देश की संस्थाओं को क्षत-विक्षत करने के बाद देश को सामाजिक विभाजन में ले जाने का उनका अभियान अब इतनी ताकत से चलेगा कि शायद 1947 से ज्यादा बड़ा अंधकार देश को घेर ले। फर्क यही होगा कि उस समय आजादी के आंदोलन की रोशनी थी जो नफरत से भरे लोगांे को भी रास्ते पर ले आई। सरहद पार से दंगों की आग में झुलस कर आए लोग भी अमन और मुहब्बत की बात करते थे। आजादी के आंदोलन ने उनके दिल को ऐसा बनाया ही था। गांधी जी की मौत से एक तेज रोशनी फैली थी। ऐसी रोशनी अब गायब हो चुकी है। नाम बदलने यानि जनसंघ नाम धारण करने पर भी हिंदू महासभा और आरएसएस को वर्षों तक देश की मुख्यधारा में आने का इंतजार करना पड़ा। अब वे ही मुख्यधारा हैं, यह प्रज्ञा सिंह ठाकुर और गिरिराज सिंह की जीत से जाहिर हो गया। बिहार में गिरिराज सिंह को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पसंद नहीं करते, लेकिन बेगूसराय में कन्हैया कुमार के खिलाफ उनका समर्थन करने मेें उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ा क्योंकि भूमिहार जाति को साथ रखने का यही उपाय था। भूमिहार को गिरिराज चाहिए, कन्हैया नहीं। ऐसा ही कायस्थों के साथ है, उन्हें रविशंकर प्रसाद चाहिए,  शत्रुघ्न सिन्हा नहीं। इस तरह कई जाति और समुदाय पूरी तरह हिंदुत्व के असर में आए हैं।
मतदान के बाद बेगूसराय के एक लड़के का फोन आया कि पचपनिया यानि अति-पिछड़ों के बड़े तबके ही नहीं, यादवों के एक हिस्से ने एनडीए के गठबंधन को वोट दिया है क्योंकि उन्हें लगता है कि पाकिस्तान से मोदी ही लड़ सकते हैं। मोदी यह प्रचार इसलिए कर पाए कि सेना के नाम के इस्तेमाल को लेकर चुनाव आयोग उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाया। चुनाव आयोग को अपना काम कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने बाध्य नहीं किया और मीडिया तो मोदी के साथ ही खड़ा था। मीडिया की औकात तो प्रधानंत्री ने उस दिन भी बता दी जब वह पांच साल शासन करने के बाद मीडिया से मुखातिब तो हुए, लेकिन उसके सवाल नहीं लिए। एक दंडवत मीडिया, ध्वस्त संस्थाओं और बिखरे विपक्ष का असली पीड़ित कौन होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है। इसके सबसे पहले पीड़ित मुसलमान होंगे, दूसरे दलित होंगे और तीसरे मजदूर होंगे। इसके पीड़ित वे देश के वे लोग भी होंगे जो सवाल करेंगे।
अब यह बहस निरर्थक है कि कांगे्रस भाजपा को रोक नहीं पाई। कांग्रेस नहीं रोक पाई तो बाकी भी उसे रोक नहीं पाए। संस्थाओं पर हमले के खिलाफ विपक्ष एकजुट नहीं हो पाया। इसमें समाजवादी, आंबेडकरवादी और वामपंथी सभी ने निकम्मेपन से काम किया। राहुल गांधी रफाल-रफाल चिल्लाते रहे, लेकिन इस मुद्दे पर उनकी पार्टी ने कोई आंदोलन नही किया। उनका प्रगतिशील घोषणा-पत्र  बेअसर साबित हुआ क्योंकि कांग्रेस के पास कार्यकर्ताओं की वैसी फौज नहीं थी जो इसे लोगों के पास पहुंचाने की मेहनत कर सके। उसने तीन राज्यों की विधान सभाएं जीत तो लीं, लेकिन वैसेी सरकारें नहीं दे पाई जो वहां के लोगों में उत्साह भर सके।  राहुल ने एक हताश फौज को लेकर लड़ाई लड़ी और बहादुरी से लड़ी। लेकिन राहुल गांधी को इस बात की बधाई देनी पड़ेगी कि उन्होंने  कभी भी अपने को नीचे स्तर पर नहीं लाया।
बाकी विपक्ष का हाल क्या रहा? सपा, बसपा और राजेडी के पास जाति की पूंजी के अलावा कुछ नहीं बचा था। इस ताकत का भी इस्तेमाल वे नहीं कर पाए। उत्तर प्रदेश में एक दकियानूस, जातिवादी और सांप्रदायिक सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए जिस लड़ाई की जरूरत थी, उन्होंनेे नहीं लड़ी। बिहार में आरजेडी ने भी कुछ नहीं किया और विपक्ष के नेतृत्व के लिए जरूरी लड़ाई लड़ने में पूरी तरह नाकाम सिद्ध हुआ।  लेकिन इनके बारे में भी कहना पडे़गा कि उन्होंने चुनाव अभियान को बहुत नीचे नहीं जाने दिया।

मोदी ने झूठ और निचले स्तर के भाषण किए और पैसे तथा नौकरशाही के इस्तेमाल में कोई कसर नहीं छोड़ा। लेकिन वही मोदी लोकप्रिय साबित हुए क्योंकि  कारपोरेट पूंजीवाद उनके पीछे खड़ा था। मीडिया, सोशल मीडिया और प्रचार में उन्होंने हजारों करोड़ खर्च किया और झूठ को सच साबित करने मे कामयाब हुए। अब उनकी जीत का औचित्य साबित करने की कोशिश होगी और पराजित विपक्ष भी अपने को लोकतांत्रिक तथा उदार साबित करने के लिए चुनाव अभियान में अपनाई गई अनैतिकता और बेईमानी की चर्चा करना बंद कर देगा। लेकिन इसकी चर्चा करने का असली समय यही है। इस बहुमत का नकाब उतरना चाहिए। मोदी के राष्ट्रवाद के चेहरे प्रज्ञा ठाकुुर हैं, योगी आदित्यनाथ हैं, अनंत हेगडे हैं और उसके पीछे पूंजी की ताकत है। यह मुसलमान और पाकिस्तान के विरोध का यह हिंदू राष्ट्रवाद है। इससे लड़ने के लिए मंदिरों में भटकने और कुंभ में स्नान करने के बदले जन-समस्याओं को मजबूती से उठाने वाला और हर तरह के कट्टरपंथ के विरोध का आंदोलन होना चाहिए। चुनावी लड़ाई को आखिरी संघर्ष मत मानिए। इतिहास के महत्वपूर्ण फैसले सड़क पर होते हैं। देश किसी बड़े आंदोलन का इंतजार कर रहा है।
साभार :

http://www.drohkaal.com/is-bahumat-ka-naqab-utarna-chahiye/









 ~विजय राजबली माथुर ©

Tuesday, May 21, 2019

विपक्ष , एकजिट पोल्स और संभावना ------ विजय राजबली माथुर


ऐसा प्रतीत होता है कि , इन विद्वान लेखक ने  उन एक्जिट  पोल्स  को हू - ब - हू सही मान लिया है जो  मोदी / भाजपा समर्थक चेनल्स  के इशारे पर किए गए हैं।  कुछ निष्पक्ष विश्लेषकों के अनुसार ये एक्जिट पोल्स  अक्सर सही नहीं होते हैं। परंतु विद्वान लेखक ने उन पर भरोसा करके वर्तमान विपक्ष की भूमिका को प्रश्नांकित किया है। जबकि इसके विपरीत LTV के सर्वे में  भाजपा गठबंधन को  171 तथा करेंट के आंकलन द्वारा  190 सीटें  ही मिल पाने का अनुमान है। पुण्य प्रसून बाजपेयी के आंकलन में भाजपा को 145 सीटें  मिलने व 137 सीटें हारने का अनुमान है। 
जब कोलकाता में 2013 ई  में  आर एस एस ने मोदी को 10 वर्ष पी एम बनाए रख कर बाद में  योगी को उनके विकल्प के रूप में  रख कर नीति निर्धारण किया था  तबसे  2019 तक परिस्थितियेँ  काफी बदल चुकी हैं। अब आर एस एस ने प्रथम कार्यकाल के बीच में ही मोदी को हटा कर नितिन गडकरी को बनाने का अभियान चलाया था  जिसे मोदी - शाह की जोड़ी ने विफल कर दिया था। तब उसके द्वारा मोदी को दूसरा कार्यकाल देने का प्रश्न कहाँ से ? 
जैसा कि  बसपा प्रमुख मायावती सार्वजनिक रूप से कह चुकी हैं कि आर एस एस कार्यकर्ताओं ने मोदी की भाजपा के लिए प्रचार नहीं किया है । ऐसा इसलिए क्योंकि भाजपा को बहुमत मिलने की दशा में मोदी - शाह जोड़ी को हटाना संभव नहीं और इस जोड़ी का दोबारा सत्तासीन होना आर एस एस के भविष्य के लिए सुखद नहीं। अतः भाजपा गठबंधन के पुनः सत्तासीन होने का प्रश्न नहीं है सत्ता का लाभ लेकर चाहे एक्जिट पोल्स जितने भी अपने पक्ष में करा लिए हों मोदी सरकार का सत्ताच्युत होना संभावित है। 
कारपोरेट वैसे ही सत्तारूढ़ सरकार का विरोध नहीं करता है जब तक पूर्ण आश्वस्त न हो कि वह सरकार जाने वाली है। रतन टाटा  आर एस एस प्रमुख के साथ दो बार बैठक कर चुके हैं। महेन्द्रा ग्रुप के एक प्रमुख व्यक्ति द्वारा क्षेत्रीय पार्टियों के नेतृत्व की सरकार का भी स्वागत करने का बयान यों ही व्यर्थ नहीं हो सकता। राजनीतिक दल भले ही जन हित न देख कर मोदी का साथ देने को तत्पर हों परंतु कारपोरेट को अब मोदी से कोई लाभ नहीं दीखता अतः वे उनको हटाने हेतु कटिबद्ध है। 
यह आसन्न चुनाव परिणामों की ही धमक है जो इनकी हेकड़ी ढीली पड़ गई। 

इन परिस्थितियों में  कमर्शियल लाभ के लिए जारी किए गए एक्जिट पोल्स से अलग चुनाव परिणाम आने की प्रबल संभावनाएं हैं। 



Current 




 





 ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, May 11, 2019

सुनयना रावत का सपना सार्वजनिक किया ------ डॉ प्रणय रॉय ने


चुनावी राजनीति के शोर में हम अपने देश और समाज की मुश्किलों को, उसके संकटों को कैसे समझें? राजनीति की चालाक बयानबाज़ियों से दूर कोई मासूम आवाज़ ही यह सच कह सकती है. दिक्कत ये है कि हम उस तक पहुंचने की, उसकी बात सुनने की फ़ुरसत नहीं निकालते, इसके लिए ज़रूरी सब्र नहीं दिखाते. यूपी के अमरौली में एनडीटीवी के प्रमुख डॉ प्रणय रॉय को चुनावी दौरे के बीच एक छोटी सी बच्ची मिली- सुनयना रावत. सातवीं में पढ़ने वाली यह बच्ची डॉक्टर बनने का सपना देखती है, लेकिन इस बात से बेख़बर है कि उसके सपने की राह में किस तरह की सच्चाइयां खड़ी हैं.

https://khabar.ndtv.com/video/show/ndtv-special-ndtv-india/sunayna-shares-her-dream-with-dr-prannoy-roy-514480








सुनयना रावत का सपना सार्वजनिक करके  डॉ प्रणय रॉय ने देश में उपस्थित सामाजिक ,  आर्थिक , राजनीतिक , शिक्षा,चिकित्सा,जीवन चर्या आदि की विषमताओं पर जो प्रकाश डाला है वह चुनाव के दौरान सभी प्रत्याशियों और राजनीतिक दलों को झकझोरने के लिए काफी है लेकिन राजनीतिक क्षेत्रों से किसी त्वरित प्रतिक्रिया का न आना विस्मयकारी है। 


   ~विजय राजबली माथुर ©
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नई दिल्ली: चुनावी राजनीति के शोर में हम अपने देश और समाज की मुश्किलों को, उसके संकटों को कैसे समझें? राजनीति की चालाक बयानबाज़ियों से दूर कोई मासूम आवाज़ ही यह सच कह सकती है. दिक्कत ये है कि हम उस तक पहुंचने की, उसकी बात सुनने की फ़ुरसत नहीं निकालते, इसके लिए ज़रूरी सब्र नहीं दिखाते. यूपी के अमरौली में एनडीटीवी के प्रमुख डॉ प्रणय रॉय को चुनावी दौरे के बीच एक छोटी सी बच्ची मिली- सुनयना रावत. सातवीं में पढ़ने वाली यह बच्ची डॉक्टर बनने का सपना देखती है, लेकिन इस बात से बेख़बर है कि उसके सपने की राह में किस तरह की सच्चाइयां खड़ी हैं. उसके साथ हुई ये पूरी बातचीत दरअसल एक बच्ची का नहीं, ग्रामीण भारत में अपने हिस्से की उपेक्षा, अपने हिस्से का छल झेल रहे अनुसूचित समुदाय का दर्द बयान करती है. इस बच्ची की आवाज़ में कहीं से कातरता नहीं है, वह उम्मीद से भरी है- यह बात हौसला देती है, लेकिन यह सोचे बिना रहा नहीं जाता कि यह एक लड़की की नहीं, अपनी सारी उपेक्षा से बेख़बर एक देश की आवाज है. तो पढ़िये ये बातचीत- सच सपना और सुनयना. 
सवाल - काम मिल रहा है आजकल?
जवाब - रोजगार नहीं है, इसलिए खेत भी खाली है. रोजगारी नहीं ज्यादा होती, कैसे काम करेंगे? जब काम ही नहीं होगा यहां पर खेत सब खाली पड़े हैं खेत में जैसे धान लगी रहती है वहीं काट लो तो काम मिल जाता था क्या काम करें

सवाल - क्या काम पहले से कम हो गया है?
जवाब - पहले अपने लायक अनाज हो जाता था लेकिन अब खेत में अनाज हो ही नहीं पाता है. जो हम खेत में उगाते थे वही काट बांटते खाते थे. पहले खेत वेत वगैरह कुछ बोल देते थे, धान चावल जैसे वह उगते थी, खेत में हम लोग वहीं काट-काट के घर में लाते थे बेच भी देते थे,  खाते भी थे और जब खाने को नहीं मिलेगा तो बेचेंगे क्या?  वैसे अगर जानवर बन जाएं सब पूरे गांव के तो हम लोगों का बहुत फायदा रहेगा इतना ही कहना है.

सवाल - पहले और भी काम मिलता था कम हो गया क्या?
जवाब - पहले काफी काम मिल जाता था. बहुत काम मिलता था पहले जैसे नरेगा पहले चलता था लगता है बंद हो गया है. यहां पर नरेगा नहीं चल रहा है.

सवाल- नरेगा बंद हो गया क्या?
जवाब- पता नहीं लेकिन यहां पर नरेगा नहीं चल रहा है कहीं और होगा.

सवाल - पहले काम ज्यादा मिलता था?
जवाब - और क्या जैसे खेत में किसान अगर उग आते थे धान चावल को उसे बेच कर अपना घर भी बनवा देते. मतलब किसान लोग खेती से ही अपनी जिंदगी बिताते थे. आमदनी नहीं, खाने को क्या होगा?

सवाल- अभी रोज की आमदनी कितनी होती है. कुछ आईडिया ₹50 से ₹100 या कितनी आमदनी हो जाती है दिन की?
जवाब - आमदनी अब जब घर में खाने का ही नहीं तो आमदनी क्या? वैसे किसी समय कोई काम नहीं चलता है अभी 2-4 महीने बाद धान वान लगवाई शुरू होगा, तभी सबके काम लगेंगे खेत में धान वान लगाना होगा तभी काम मिलेगा सबको वही धनवान लगाएंगे. तभी पैसे आएंगे घर में ऐसे ऐसे कितने समय क्या करेंगे कुछ भी तो नहीं एक-दो लोगों के खेतों में वह गुण था.  वहीं काट रहे थे सब लोग तो हम लोगों को क्या देंगे काटने को अगर खेत पर भेज दो तो हम लोग उसे काटे नहीं अगर इसे थोड़ा बहुत खेद भी है.  

सवाल - अब क्या खाने को मिलता है अब क्या खाते हो रोज? जवाब - जो थोड़ा बहुत हो जाता है वही खाया जाता है, नहीं होता है तो खरीदा जाता है. जिसके पास ज्यादा हो जाता है उस से खरीद लेते हैं. 

सवाल -क्या आपके पास सिलेंडर है? 
जवाब- सिलेंडर तो है मायावती ने एक दिलवाया था और एक ऐसे ही घर से खरीदा गया था.  एक मोदी ने खरीदवाया था वह 'घर में गैस सिलिंडर खाली पड़ा है', हमारे पास सिलेंडर भरवाने के पैसे नहीं हैं.

सवाल - यह सिलेंडर बिल्कुल खाली है,  खाली क्यों है? 
जवाब - खाली इसलिए है क्योंकि अभी काम नहीं लग रहा है,  कौन काम करें हम लोगों के पास तो पैसे भी नहीं हैं घर में . क़रीब 900 का भरता होगा सिलिंडर.

सवाल - गैस का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं? 
जवाब - कितने समय से इस्तेमाल नहीं हो रहा है. हम तो खाना अपने चूल्हे पर ही पकाते हैं.

सवाल -तो किसी चीज से खाना बनाते हैं आप? 
जवाब - खाना चूल्हे में पकता है, चूल्हा इधर नहीं है, आंगन के बाहर बनता है. यह गैस सिलेंडर जहां पर खाली है ऐसे ही पड़ा रहता है. अभी यहां 10- 11 बीघा गेहूं जल रहा है. हम स्कूल जाते हैं स्कूल से आते हैं. मैं पढ़ने के लिए स्कूल जाती हूं.

सवाल - पढ़ाई होती है अच्छी?
जवाब - होती है पढ़ाई

सवाल - टीचर हैं?
जवाब- टीचर तो है

सवाल - आप पढ़ते हो कि नहीं पढ़ते हो स्कूल जाकर?
जवाब- पढ़ते हैं सेवंथ क्लास में. मुझे बड़ी होकर डॉक्टर बनना है. 

सवाल -- आप क्या चाहते हो कि आप क्या बना? 
जवाब - डॉक्टर

सवाल - डॉक्टर क्यों? 
जवाब - क्योंकि गांव में ज्यादा लोग बीमार होते हैं ना,  इसीलिए गांवों में बहुत सारे लोग बीमार होते हैं वैसे हम गांव के रहेंगे और डॉक्टर बनेंगे तो कैसे भी कम लेंगे, और ऐसे ही यहां के बाहर के डॉक्टर तो वैसे भी ज्यादा लेते हैं जब दवा देने जाओ. 'हम चार भाई, दो बहनें हैं'

सवाल -कितने भाई बहन हो आप? 
जवाब- आप चार भाई हैं दो बहने? 

सवाल -कल रात को क्या खाना खाया था? 
जवाब- कल दाल चावल रोटी बनी थी और तो कुछ नहीं.'पैसे होते तो हम कुछ अच्छा खाते'

सवाल - अगर आपके पास अभी पैसे होते तो आप क्या करते हो उसके साथ? 
जवाब - कुछ अच्छा खाते जैसे कि कुछ भी हर एक अच्छा खाना मिलता है? 

सवाल - मैक्रोनी अच्छा लगता है? 
जवाब - हां

सवाल - चाऊमीन?
जवाब- हां

सवाल - कितनी बार चाउमीन मिलता है
जवाब - बहुत बार मिले हैं पहले तो बहुत खाते थे. अब कम कर दिया है क्योंकि तबीयत खराब हो जाती है. ऐसे रोड में रखकर बनाते हैं मक्खी मक्खी सब बैठी रहती है. वही खा लेते हैं तो बीमार पड़ जाते हैं . इसीलिए गुरु जी कहते हैं अब मत खाया करो इसलिए नहीं खाते हैं. 

सवाल - आपके गुरु जी कौन है?
जवाब - हमारे गुरु जी हमारे स्कूल में पढ़ाते हैं वह मैम का नाम है रीता और गुरु जी का नाम है प्रीतम? बड़े गुरुजी रिटायर हो चुके हैं इसीलिए अब नहीं आते हैं.

सवाल - आप किस जाति से हैं? 
जवाब - रावत, हम लोग तो रावत हैं बस धन्यवाद अब हम लोग जा रहे हैं खेत में'खेत में पापा की मदद करते हैं'.

सवाल - आप भी जाते हैं खेत में? 
जवाब - पापा लोग के साथ काम करवाते हैं? 

सवाल - क्या क्या काम करवाते हैं? 
जवाब - गेहूं काटते हैं, गेहूं काट के फिर हम लोग गेहूं निकालते हैं बाहर. बोरी में भरते हैं फिर भूसा ढोते हैं. अभी भी हम भूसा लेकर आए हैं अब फिर से जा रहे हैं लेने. खेत में गाय हमारी फसल खा जाती है. एक साल से खेत में समस्या बढ़ी है. फसल काटने से पहले ही गाय खा लेती हैं तो हम लोगों को काटने के लिए अगर थोड़ा बहुत मिल भी जाता है तो वहीं काटते हैं. अभी 1 साल पहले से खुली है ज्यादा पहले नहीं खुली थी . ज्यादा पहले हमारे लोगों की बढ़िया लाइफ चल रही थी . अच्छे से चल रही थी . 

सवाल - हम लोग आएंगे आपके साथ,  देखते हैं खेत कितना दूर है आपका? 
जवाब- एक किलोमीटर दूर होगा. स्कूल से आने के बाद खेत जाते हैं.

सवाल - हर दिन आप जाते हैं खेत में? 
जवाब - हर दिन नहीं स्कूल में आने के बाद जाते हैं

सवाल - तुम स्कूल सुबह किस समय जाते हैं? 
जवाब - 7:00 बजे 7:30 बजे और वापस 1:00 बजे आते हैं


सवाल - उसके बाद?
जवाब- खेत का टाइम, उसके बाद खाना-वाना खाकर खेत में जाते हैं

सवाल - खेत में मतलब इसी टाइम पर?
जवाब - हां 1:00 बजे 

सवाल - और स्कूल में अंग्रेजी भी पढ़ते हैं? 
जवाब- स्कूल में अंग्रेजी चलती है पर हम सरकारी में पढ़ रहे थे तो हमें इंग्लिश विंगलिश बगैरा नहीं आती.  हिंदी- इंग्लिश तो ज्यादा चलती थी लेकिन हमें समझ में नहीं आती थी. वैसे अगर हम कोचिंग वोचिंग में जाएंगे तो ऐसे थोड़े कि घर में कोई पढ़ा बड़ा तो है नहीं, जब घर में कोई पढ़ा होगा तभी आएगी और जब भी हम जाते हैं दोनों लोग फिर आते हैं.  घर में पढ़ते हैं कोई बताने वाला हो तो फिर आ जाएगी.

सवाल - तो आप अभी प्राइवेट स्कूल में जाएंगे? 
जवाब- आप अभी नया नया एडमिशन हुआ है, अभी यूनिफॉर्म नहीं लिया है किताब नहीं ली है. खाली अभी अभी पैसे जमा नहीं हुए. 

सवाल - पैसे नहीं हैं? 
जवाब- अभी जमा नहीं हुए हैं प्राइवेट स्कूल के लिए, सरकारी स्कूल में होते तो जमा हो जाते. सॉरी सरकारी स्कूल में पैसा ही नहीं लगता वह फ्री है. प्राइवेट स्कूल में पढ़ना महंगा है.


सवाल - और प्राइवेट स्कूल में कितना लगता है? 
जवाब - प्राइवेट स्कूल में ₹300 बैंक आफ रिज अभी किताब नहीं ली है किताब के पड़ेंगे शायद दो ₹400 और,  जो फॉर्म देंगे उसके भी पैसे पड़ेंगे और फिर फीस देनी पड़ेगी जूते भी लेने पड़ेंगे सब लोग वहां जूते पहन कर आते हैं वह भी लेना पड़ेगा.  

सवाल - काफी महंगा है? 
जवाब-  और क्या. पापा चाहते हैं कि हम पढ़ें. पापा कह रहे थे कि पढ़ लो वैसे भी घर में लोग पढ़े नहीं हैं. इसलिए सोचते हैं तुम पढ़ लो. 



सवाल - लेकिन पैसा कहां से मिलेगा? 
जवाब- आप यही जो हम लोग खेत में थोड़ा बहुत काम करते हैं फिर पापा मजदूरी भी करते हैं. उसी के पैसे मिलेंगे तो होगा यह सब अभी तो नहीं हुआ है फिर भी हो जाएगा. 


डॉ. प्रणय रॉय ने सुनयना से बातचीत के बात कहा कि हमें आपसे बात करके अच्छा लगा. हम आपका धन्यवाद करते हैं कि आपने हमें अपने जीवन और परिवार से जुड़ी इतनी बारीक से बारीक जानकारी साझा की. 

https://khabar.ndtv.com/news/india/seven-year-old-sunayna-wants-to-become-a-doctor-read-what-she-shared-with-dr-prannoy-roy-2033854