Friday, March 20, 2020

न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका तीनों की साख को धक्का ------ वेदप्रताप वैदिक



राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए नामित करने पर उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों और विपक्षी दल के नेताओं ने आलोचना की है. इस मुद्दे वरिष्ठ अधिवक्ता और जज अंजना प्रकाश ,मार्कन्डेय काटजू,कुरियन जोसेफ


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गोगोई के कारण यदि राष्ट्रपति द्वारा नामजद किए जानेवाले राज्यसभा-सदस्यों की योग्यता या अर्हता पर भी बहस चल सके तो देश उसका स्वागत करेगा
उनके राज्यसभा में जाने से न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका तीनों की साख को धक्का लगा है
सिस्टम पर बड़ा सवाल है गोगोई की नियुक्ति

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने राज्यसभा के सदस्य की शपथ ले ली। मेरी स्मृति में ऐसी शपथ संसद में अब से पहले कभी नहीं हुई। कोई नया सदस्य, वह भी राष्ट्रपति द्वारा नामजद शपथ ले और कई सदस्य शर्म-शर्म के नारे लगाएं, ऐसा तो संसद के इतिहास में पहली बार ही हुआ है। इस ऐतिहासिक दुर्घटना के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है?  दरअसल इसकी जिम्मेदारी सरकार और गोगोई, दोनों पर आती है। यह ठीक है कि 12 सदस्यों को राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं लेकिन वे उन्हीं को नियुक्त करते हैं, जिनके नाम प्रधानमंत्री कार्यालय से उनके पास आते हैं।

• नामजदगी पर सवाल : 

रंजन गोगोई को सेवानिवृत्त हुए चार महीने भी पूरे नहीं हुए थे कि उन्हें राज्यसभा में भेजने का निर्णय कर लिया गया। गोगोई भारत के ऐसे पहले मुख्य न्यायाधीश हैं, जो राष्ट्रपति की नामजदगी से राज्यसभा के सदस्य बने हैं, वह भी सेवानिवृत्त होने के इतने कम समय बाद। ऐसा नहीं है कि उनके पहले सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश या साधारण न्यायाधीश कभी सांसद बने ही नहीं। वे बने हैं लेकिन उन्हें किसी सरकार ने नामजद नहीं करवाया। वे चार-पांच माह में नहीं, रिटायर होने के कई वर्षों बाद बने हैं और चुनाव लड़कर बने हैं। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र 1992 में सेवानिवृत्त हुए और 1998 में कांग्रेस उम्मीदवार की तरह चुनाव लड़कर राज्यसभा में आए। तब कांग्रेस विपक्ष में थी।

कहा जा रहा है कि पहले भी न्यायमूर्ति एम. हिदायतुल्लाह उप राष्ट्रपति बने, एम.सी. छागला राजदूत और मंत्री बने, बहरुल इस्लाम राज्यसभा के सदस्य बने और 2014 में न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया गया। इन नियुक्तियों को भी संसदीय लोकतंत्र की दृष्टि से आदर्श नहीं माना जा सकता लेकिन गोगोई की नियुक्ति से भारत की न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका, तीनों की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लग गए हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद न्यायपालिका का सर्वोच्च पद है। अब गोगोई राज्यसभा के सदस्य बन गए हैं। क्या उन्होंने राज्यसभा का सदस्य बनकर अपने आप को बहुत नीचे नहीं उतार लिया है?  जो नेता और उद्योगपति उनकी अदालत में हाथ जोड़े खड़े रहते थे, अब उन्हीं की कतार में गोगोई को लगना पड़ेगा। न्यायपालिका के इस अवमूल्यन पर उनके साथी न्यायाधीशों ने भी अफसोस जताया है।

कवि कुंभनदास ने मुगल-काल में क्या अदभुत बात कही थी- ‘संतन को कहां सीकरी सो काम। आवत-जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरिनाम।।’ हमारे न्यायाधीशों को संतों से भी अधिक निष्पक्ष और निर्विकार होना चाहिए। सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, वैसा दिखना भी चाहिए। हो सकता है कि गोगोई ने जितने सरकार-समर्थक फैसले दिए हैं, जैसे राम मंदिर, सबरीमला, राफेल सौदा, सीबीआई और असम की जनगणना आदि, वे सब उनके गुण-दोष के आधार पर दिए होंगे लेकिन सरकार द्वारा उन्हें राज्यसभा में लाए जाने के साथ ही ये सारे फैसले संदेह के घेरे में आ गए हैं। यदि गोगोई को यह नामजदगी सरकार ने अपने अहसान उतारने के लिए स्वयं दी है तो भी उनका इंकार उन्हें बड़ा बना देता। इससे सारी न्यायपालिका और कार्यपालिका की छवि भी विकृत हो रही है। बीजेपी नेता स्व. अरुण जेटली ने 2012 में कहा था, ‘सेवानिवृत्ति के पहले दिए गए फैसलों पर इस बात का बहुत प्रभाव होता है कि सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें कौन सा पद मिलेगा।’ लगभग यही बात खुद गोगोई भी कहते रहे हैं लेकिन जिस फिसलपट्टी से वे अपने साथी जजों को बचने की सलाह दे रहे थे, खुद उसी पर फिसल पड़े। 1958 में विधि आयोग की रपट में साफ-साफ कहा गया था कि सेवानिवृत्ति के बाद जजों को किसी सरकारी पद पर नहीं रखा जाना चाहिए। उसका लालच ही न्यायपालिका को भ्रष्ट कर देता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बिना कोई भी लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता। सेवानिवृत्ति के डर से न्यायाधीश लालच में न फंसें, इस दृष्टि से अमेरिका में जजों को आजीवन अपने पद पर बने रहने की छूट है। गोगोई-प्रकरण यदि न्यायपालिका को इस संबंध में कोई नई दिशा दिखा सके तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ होगा।

गोगोई के कारण यदि राष्ट्रपति द्वारा नामजद किए जानेवाले राज्यसभा-सदस्यों की योग्यता या अर्हता पर भी बहस चला सके तो देश उसका स्वागत करेगा। संविधान का अनुच्छेद 80 कहता है कि राष्ट्रपति ऐसे 12 भारतीय नागरिकों को राज्यसभा के लिए नामजद कर सकता है, जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज-सेवा के क्षेत्रों में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव हो। इस श्रेणी में क्या कोई न्यायाधीश आ सकता है?  वैसे गोगोई उन लोगों से कहीं बेहतर हैं, जो राज्यसभा में सिर्फ इसलिए नामजद कर दिए गए हैं कि वे सत्तारूढ़ दल में रहते हुए चुनाव हार गए या सत्तारूढ़ नेताओं के जी-हुजूरों में खासमखास हैं। राज्यसभा में ऐसे भी कई सदस्य नामजद हुए हैं, जिन्होंने छह साल की अपनी कार्यावधि में कभी सदन में अपना मुंह तक नहीं खोला। हमारा उच्च सदन निम्न कोटि की सदस्यता से हमेशा भरा-पूरा रहा है। इसकी जिम्मेदारी से कोई भी सत्तारूढ़ दल मुक्त नहीं है। बिना किसी राजनीतिक भेदभाव के राज्यसभा में उच्च कोटि के लोग ही नामजद किए जाएं, इसके लिए राष्ट्रपति को एक उत्कृष्ट कोटि की चयन-समिति का निर्माण करना चाहिए। यह ठीक है कि नामजदगी का प्रस्ताव मंत्रिमंडल की तरफ से आता है लेकिन औपचारिक जिम्मेदारी तो राष्ट्रपति की ही बनती है। राष्ट्रपति का पद दलीय राजनीति से ऊपर माना जाता है।

 • लोकतंत्र का हाथी : 

गोगोई की नियुक्ति ने देश की कार्यपालिका पर भी उंगली उठाने का मौका पैदा कर दिया है। सत्तारूढ़ नेताओं की मजबूरी हमें समझ में आती है। जो उन पर अहसान करते हैं, उन्हें फायदा पहुंचाने के लिए वे इस कदर बेताब हो जाते हैं कि फिर उन्हें लोकतंत्र की मर्यादाओं का भी ध्यान नहीं रहता। लेकिन लोकतंत्र के हाथी पर जो न्यायपालिका का अंकुश है, यदि उसे ही आप भोथरा कर देंगे तो फिर देश में बचेगा क्या ? 

ANI

साभार : 

http://epaper.navbharattimes.com/details/101424-77859-2.html





  ~विजय राजबली माथुर ©

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