Friday, December 30, 2011

कारपोरेट घरानों की जीत/जनता की हार

स्कैन पर डबल क्लिक करके पढ़ें 

Hindustan-30/12/2011

इस वर्ष 2011 के शुरू मे धड़ाधड़ भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा CAG के प्रयासों के फल स्वरूप  हुआ था।एक एक कर राजनेता जेल भेजे गए। तह मे जाने पर जैसे ही लाभार्थियों मे रत्न टाटा,अनिल अंबानी,नीरा राडिया जैसे उद्योगपतियों और दलालों के नाम सामने आए और उनके विरुद्ध कारवाई की संभावना बनते दिखी वैसे ही कारपोरेट घरानों ने अपने अमेरिकी संपर्कों के सहयोग से पहले रामदेव फिर अन्ना को आगे करके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू करा दिया। जम कर राजनेताओं और संसदीय संस्थाओं को कोसा गया।  ऐसा वातावरण सृजित किया गया जैसे सभी भ्रष्टाचार की जड़ यह संसदीय लोकतन्त्र और राजनेता ही हैं। खाता-पीता सम्पन्न वर्ग जो एयर कंडीशंड कमरों मे बैठ कर आराम फरमाता है और वोट डालने भी नहीं जाता है नेताओं के पीछे हाथ धोकर पड़ गया। कारपोरेट मीडिया ने इसी आराम तलब वर्ग के जमावड़े को जन-आंदोलन की संज्ञा दी। परंतु मैंने इसे देश मे तानाशाही लाने का उपक्रम बताया था।

उस समय अमेरिकी प्रशासन ने खुल कर अन्ना आंदोलन का समर्थन किया था। भाजपा सरकार से नियम/कानून विरुद्ध हिमाचल प्रदेश मे चाय बागान लेने वाले वकील साहब ने तब अमेरिकी सरकार के निर्णय का बड़ी ही बेशर्मी से स्वागत किया था। लेकिन अब 20 दिसंबर 2011 को उसी अमेरिकी सरकार के गुप्तचर संगठन CIAने अन्ना को आर एस एस /हुर्रियत कान्फरेंस के समक्ष तौल दिया है। 

जो लोग और खासकर वे विद्वान जो अन्ना/रामदेव का समर्थन करते रहे हैं इस बदलाव का कारण बता सकते हैं? शायद नहीं। जब अमेरिका अर्थ संकट से घिरा था उसके नागरिक असंतोष व्यक्त कर रहे थे -आकूपाई वाल स्ट्रीट उभार पर था तो अमेरिका ने बड़ी ही चतुराई से भारतीय कारपोरेट घरानों से मिल कर भारत मे रामदेव/अन्ना आंदोलन शुरू करा दिये जिससे यहाँ के लोग यहीं उलझे रहें और अमेरिका की आंतरिक दुर्दशा देख कर उससे खिचे नहीं। जून 2011 मे साईबेरिया की एक अदालत मे ISCON के संस्थापक द्वारा व्याख्यायित गीता जो योगीराज श्री कृष्ण की गीता से कहीं से भी मेल नहीं खाती है के विरुद्ध केस वहाँ की सरकार ने चला दिया। ISCON कोई धार्मिक संगठन नहीं है वह तो CIA की ही एक इकाई है लेकिन भारत के बुद्धिमान लोगों की बुद्धि का कमाल देखिये संसद मे भाजपा/सपा/राजद सभी के सांसद उस कृष्ण विरोधी/धर्म विरोधी गीता के बचाव मे एकत्र हो गए और हमारे विदेश मंत्री एस एम कृष्णा साहब ने रूसी सरकार पर दबाव डाला की अदालत उस गीता पर प्रतिबंध न लगाए। इत्तिफ़ाक से रूस मे प्रधानमंत्री ब्लादीमीर पुतिन साहब की चुनावों मे जीत को वहाँ की जनता ने धांधली करार दिया। भारत से संबंध मधुर बनाए रखने के लिए परेशान रूसी सरकार ने अदालत मे कमजोर पैरवी की और अदालत ने रूसी सरकार की याचिका खारिज कर दी। यह जीत भारत की जनता की नहीं अमेरिकी CIA की जीत है कि उसके सहयोगी संगठन को निर्बाध छूट मिल गई। इन्हीं दलों के साथ यू पी मे लोकायुक्त से परेशान बसपा ने भी 'संवैधानिक लोकपाल' का गठन नहीं होने दिया।

अन्ना आंदोलन के दौरान सभी भ्रष्टाचार -अभियुक्त जमानत पर रिहा हो गए। अब इस आंदोलन की जरूरत भी नहीं रह गई। अमेरिकी प्रशासन और CIA ने अन्ना टीम से हाथ खींच लिया। अतः यह पूरी तरह से कारपोरेट घरानों और अमेरिकी नीतियों की जीत है। देश की जनता की यह हार है। लोकपाल मे NGOs और कारपोरेट घरानों को जब तक नहीं शामिल किया जाता तब तक उसका गठन बेमानी ही है। 

Tuesday, December 27, 2011

परमात्मा पढे-लिखों को बुद्धि प्रदान करें



हिंदुस्तान,लखनऊ के दिनांक 25 दिसंबर 2011 के समपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित ऊपर के स्कैन कापियों को डबल क्लिक करके देखें। अखबार के प्रधान संपादक श्री शशि शेखर जी के लेख का यह अंश भी गौर करने लायक है जिसमे वह कहते हैं-"इस समय हर शहर की सड़कों व गलियों मे हमारे नेताओं के चाल,चरित्र और चेहरे पर सवाल उछल रहे हैं। भ्रष्टाचार ने समूची व्यवस्था को अपनी चपेट मे ले लिया है। यही वजह है कि कुछ गावों मे अपना प्रभाव रखने वाले अन्ना हज़ारे अचानक लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच गए। सिर्फ दो दिन बाद लोकसभा लोकपाल पर चर्चा करने जा रही है । क्या यह बिल इस सत्र मे पास हो सकेगा?क्या सरकारी अथवा अन्ना और उनके साथियों द्वारा प्रस्तावित लोकपाल सारी बीमारियों का अकेला इलाज है?क्या हमारे माननीय सांसद अपनी साख पर उठ रहे सवालों पर चर्चा करेंगे?क्या इस बहस के बाद से राजनीतिक दल आत्मशुद्धि के बारे मे भी सोचेंगे?एक तरफ संसद सुलगते सवालों पर चर्चा कर रही होगी ,दूसरी तरफ अन्ना अपने आंदोलन की आग मे घी डाल रहे होंगे। सवाल उठता है कि यह देश संसद से चलेगा या सड़कों से?क्या यह बदगुमानी से शुरू हुये वर्ष का त्रासद अंत है?"

25 दिसंबर को ही प्रकाशित 'लोकसंघर्ष'के इस लेख को भी पढ़ें और मनन करें कि क्या अन्ना आंदोलन जन-हित मे है अथवा अर्द्ध सैनिक तानाशाही स्थापित करने के मंसूबों वाले शोषकों व उतपीडकों के हित मे।

http://loksangharsha.blogspot.com/2011/12/blog-post_25.html

जन पक्ष मे प्रकाशित इस कविता को भी ध्यान से पढ़ें और अन्ना के मंसूबों को समझें-


http://jantakapaksh.blogspot.com/2011/12/blog-post_14.html




अन्ना के वरदान-राष्ट्रध्वज के अपमान पर भी गौर फरमाये जो हिंदुस्तान मे पूर्व प्रकाशित है। और साथ-साथ अन्ना के मौसेरे भाई रामदेव जी की इस गाथा को भी पढ़ें जिसे 'तहलका' ने प्रकाशित किया है-



http://www.tehelkahindi.com/index.php?news=1050

'लोकसंघर्ष','जन पक्ष','समाजवादी जन-परिषद','मानवीय सरोकार','जंतर-मंतर',जैसे इने-गुने ब्लाग्स पर ही इनके संचालकों ने हकीकत बयान की है और अन्ना आंदोलन को आम जनता के शोषण-उत्पीड़न को पुख्ता करने वाला तथा कारपोरेट घरानों के भ्रष्टाचार का पोषण करने वाला बताया है। बाकी ब्लाग जगत झूठ,छल-फरेब ,तिकड़म से ओत -प्रेत ,अन्ना आंदोलन' के गुण गाँन  से रंगा हुआ पाया है। दुखद पहलू यह है कि पढे-लिखे इंटरनेटी शूर-वीर जो रामदेव-अन्ना के पक्षधर हैं बेहद बेहूदी और गंदी तथा भद्दी गलियों के साथ अन्ना/रामदेव  की पोल खोलने वालों के साथ  पेश आते हैंऔर खुद को 'खुदा' समझते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो दोहरा खेल खेलते हुये कहते हैं अन्ना जी ठीक हैं केवल उनका तरीका ही गलत है,उनसे निवेदन है कि वे निम्नलिखित वीडियो जरूर देखें-सुने-




यदि इतनी सब हकीकत जानने के बाद भी हमारे इंटरनेटी विद्वान अन्ना/रामदेव की भक्ति मे तल्लीन रहते हैं तब तो बाबू गोपाल राम गहमरी द्वारा व्यक्त विचार कि -'बुद्धि के रासभ और अक्ल के खोते ' ही उन पर चस्पा होता प्रतीत  होता है।

फेसबुक का हाल तो ब्लाग्स से भी ज्यादा बुरा है वहाँ तो अन्ना/रामदेव भक्त गलियों और भद्दी तसवीरों के प्रकाशन के लिए ही जाने जाते हैं। अधिकांश लोग गुमराह ही हैं किन्तु फिर भी अफलातून जी,अरुण प्रकाश मिश्रा जी,पंकज चतुर्वेदी जी,अमलेंदू उपाध्याय जी, ज़ोर शोर से और दबे -दबे स्वरों मे महेंद्र श्रीवास्तव जी
अन्ना और उनकी टीम की कारस्तानिये उजागर करते रहते हैं। हिन्दी साहित्य के जाने माने आलोचक वीरेंद्र यादव जी तो बुलंदगी के साथ कल (26 दिसंबर 2011) भी लिख रहे हैं ,पढ़िये और सोचिए-

अन्ना टीम के प्रमुख सदस्य प्रशांत भूषण को हिमाचल की भाजपा सरकार ने नियमों में विशेष छूट प्रदान कर एक बड़े चाय बागान की जमीन को खरीदने अनुमति प्रदान की . नियमानुसार हिमाचल के बाहर का व्यक्ति वहां जमीन नहीं खरीद सकता . प्रशांतभूषण की भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम और भाजपा सरकार द्वारा प्रदान की गयी इस छूट के निहितार्थों को समझा जाना चाहिए . क्या प्रशांत भूषण द्वारा यह छूट प्राप्त करना भ्रष्टाचार की सीमा में नहीं आता ? क्या यह कानून द्वारा स्वीकृत भ्रष्टाचार नहीं है ? ASSEMBLY
Prashant Bhushan’s society bought tea garden land
Tribune News Service

Dharamsala, December 23
A close aide of Anna Hazare, Prashant Bhushan, bought 4-68-28 hectares (122 kanals) of tea garden land in the Palampur area in the name of an educational society.

The information came in response to a question raised by the Congress MLA from Baijnath, Sudhir Sharma, in the Himachal Assembly today.

Sharma had sought details from the government regarding the number of permissions given by the present government under Section 118 of the Land Tenancy Act to purchase tea gardens in the state during a period extending from 2008 to November 2011.

While replying to the query Minister for Revenue Ghulab Singh informed the House that just one permission, to buy tea garden land, had been given during the said period. He said the Kumud Bhushan Educational Society, Kandbari, through Prashant Bhushan, son of Shanti Bhushan, resident of Noida, had been given permission to buy 4-68-28 hectares of tea garden land.

The sale and conversion of status of tea garden land in Himachal is strictly prohibited under the revenue laws. The status of tea garden lands, most of which are located in Kangra district, cannot be changed without permission from the state government

फेसबुक के जनवादी जन मंच और कम्युनिस्ट पार्टी ग्रुप तो खुल कर सच्चाई के साथ और अन्ना-ड्रामे के विरुद्ध हैं। मै लगातार अपने 'क्रांतिस्वर' एवं 'कलम और कुदाल' के माध्यम से अन्ना और उनकी टीम के विरुद्ध कारवाई किए जाने की मांग कर रहा हूँ। इसी ब्लाग मे पहले भी लिख चुका हूँ और 'विद्रोही स्व-स्वर मे' तो विस्तार से लिखा है कि,ईमानदारी के कारण आभावों मे जीवन यापन पिताजी ने भी किया और मै भी कर रहा हूँ। मै तो प्राईवेट लिमिटेड,पब्लिक लिमिटेड ,पार्टनरशिप और प्रोपराइटरशिप कंपनियों द्वारा प्रताड़ित भी इसी ईमानदारती की वजह से हो चुका हूँ। मै बखूबी जानता हूँ कि ये व्यापारी और उद्योगपति किस प्रकार पहले नंबर दो कमाते और फिर उसे कैसे नंबर एक मे बदलते हैं। इसी प्रक्रिया मे NGOs उनके बहुत बड़े सहयोगी हैं,मंदिर आदि चैरिटेबल ट्रस्ट इन व्यापारियों के 'काले धन' को एक मे बदलने के उपकरण हैं। ये सभी अन्ना/रामदेव आंदोलनों की 'रीढ़'हैं। मैंने शुरू से ही अन्ना आंदोलन को भ्रष्टाचार संरक्षण का सबसे बड़ा रक्षा-कवच बताया है। 


कुछ ब्लाग्स को रामदेव और कुछ को अन्ना के चलते अनफालों करना पड़ा एवं फेसबुक से करीब एक दर्जन लोगों को अपनी फ्रेंड लिस्ट से हटाना पड़ा। मेरी सुस्पष्ट एवं सुदृढ़ अवधारणा है कि जो लोग अन्ना/रामदेव के समर्थक हैं वे सब राष्ट्र -भक्त नहीं हैं और आम जनता के हितैषी तो कतई नहीं हैं । इसी ब्लाग मे लेखों के माध्यम से बताया है कि आर एस एस की नीति है कि शहरों का 3 प्रतिशत व गावों का 2 प्रतिशत जन समर्थन हासिल करके वह अपनी अर्द्ध-सैनिक तानाशाही स्थापित कर सकता है। उसी की कड़ी हैं ये अन्ना/रामदेव आंदोलन जो 'संसदीय लोकतन्त्र ' को नष्ट-भ्रष्ट करने हेतु चलाये गए हैं और महाराष्ट्र हाई कोर्ट की फटकार के बावजूद रुके नहीं हैं। अब इन लोगों ने न्यायपालिका को भी चुनौती देनी शुरू कर दी है। सरकारी सर्जन,डाक्टर, इंजीनियर ,अफसर जो कहीं न कहीं भ्रष्टाचार मे संलिप्त रहे हैं  बड़ी ही बेशर्मी से अन्ना का समर्थन अपने-अपने ब्लाग्स मे कर रहे हैं। 21 वर्षों से जिनकी 'उदारवादी' नीतियों का स्व्भाविक परिणाम भ्रष्टाचार मे द्रुत-वृद्धि है वह पी एम साहब अन्ना की पीठ पर हैं ,इसलिए सरकारी मैनुयल्स का उल्लंघन करने वाले इन ब्लागर्स एवं फेसबुकियों के विरुद्ध कोई कारवाई नहीं हो सकी है।

मै सन 2011 की समाप्ती से पूर्व 'परमात्मा' से प्रार्थना करता हूँ कि 'पढे-लिखे' किन्तु घोर अज्ञानी इन इंटरनेटी विद्वानों को सद्बुद्धि प्रदान करें जिससे कि आने वाले वर्ष 2012 मे हमारे देश और इसकी बहुसंख्यक गरीब -उत्पीड़ित जनता के पक्ष मे ये इंटरनेटी शूर-वीर भी खड़े हो सकें और देश तथा देश की जनता का कल्याण हो सके। धनाढ्यो के 'रक्षस आंदोलनो' को इन विद्वानों का समर्थन समाप्त हो सके।क्योंकि जिसके पीछे वे भाग रहे हैं वह तो 21 सैनिकों की  बे-मौत जिंदगी छीनने का जिम्मेदार है जैसा कि प्रोफेसर अरुण प्रकाश मिश्रा जी ने कल फेसबुक पर सूचित किया है-


एक आदमी पूरे देश की आम जनता को गुमराह कर रहा है, उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहा है, दिवा-स्वप्न दिखा रहा है और पढ़े-लिखे लोग चुप देखते रहें, यह इतिहास के साथ विश्वासघात है | ज़रुरत हरेक पल इसके मसूबों के पर्दाफाश करने की है |

२१ बहादुर जवानों से भरे ट्रक को छोड़कर जो ड्राईवर भागकर अपनी जान बचा ले और बहादुर जवान उस के भागने से मारे जाएँ, उसे 'भगोड़ा' नहीं तो क्या 'भारत-रत्न' कहेंगे !! कृष्ण अगर रथ को छोड़कर भाग गए होते तो क्या अर्जुन जीवित बचते???

देखिये पूर्व फौजी जेनरल के विचार-http://vijaimathur.blogspot.com/2011/12/blog-post_27.html


Sunday, December 18, 2011

साहित्य समाज का दर्पण होता है

Saroj Mishra 
मुसलमान लेखक तो अमीर खुसरो ,रहीम और रसखान भी थे /जिन्हों ने भारतीय जन मानस को जीने की नई तहजीब दी/ जीने की कला सिखाई/....
बैठी थी पिय मिलन को खांची मन में रेख ,
अब मौनी क्यों हो गई चल नीके करि देख /अमीर खुसरो
सुरतिय नरतिय नागतिय सब चाहत यस होय ,
गोद लिए हुलसी फिरें ,तुलसी सो सूत होय/
रामचरित मानस बिमल सब ग्रंथन को सार.
हिंदुअन को बेद सम तुरकन प्रकट कुरान /रहीम
मानुष हों तो वाही रसखान बसों ब्रज गोकुल धेनु मझारन....



(सरोज मिश्रा जी  का उपरोक्त  दृष्टिकोण फेसबुक पर आया था जो एक सकारात्मक कदम है।)


 आजकल फेसबुक पर उसमे प्रयुक्त अनर्गल बातों,तसवीरों ,जातिवादी साहित्यिक खेमों आदि पर टकराहटपूर्ण चर्चाए चल रही हैं। एक ब्लाग पर इस संबंध मे प्रकाशित एक अच्छे लेख पर टिप्पणी के रूप मे मैंने लिखा था-



जैसे 'चाकू'रसोई मे भोजन सामग्री के काम आता है और आपरेशन थियेटर मे 'डॉ' के काम आता है तब उपयोगी है किन्तु 'डाकू' के हाथ मे जाकर वही गलत हो जाता है ठीक उसी प्रकार संचार माध्यम-'फेसबुक' आदि उनका प्रयोग करने वाले के अनुसार अच्छे या बुरे हो जाते हैं। जिसके जैसे संस्कार होंगे वैसी ही उसकी मानसिकता होगी। अश्लीलता का निषेध तो होना ही चाहिए।



कई ब्लाग्स मे भी लेखन छिछोरा और ढोंग-पाखंड को बल प्रदान करने वाला देखने को मिलता रहता है। फेसबुक अथवा ब्लाग्स के लेखक निश्चय ही सुशिक्षित और सुविधायुक्त हैं उनसे एक अच्छे और आदर्श लेखन की ही उम्मीद की जाती है। किन्तु कुछ समृद्ध और सुविधा-सम्पन्न लोग जिंनका कोई आदर्श या सिद्धान्त नहीं है सिर्फ अपने मनोरंजन या रौब-प्रदर्शन के लिए टिप्पणियाँ या अनर्गल कुछ भी लिखते -फिरते हैं जिनके कारण समाज का काफी कुछ अहित हो जाता है।

पुराने साहित्यकारों को भी लोक-प्रचलित धर्मों -जातियों और संप्रदाय के खांचों मे बांटने का घृणित प्रयास चल रहा है। इन सबके बीच सरोज मिश्रा जी ने अदम्य साहस के साथ उपरोक्त टिप्पणी की जो सरहनीय है। आजादी से पूर्व साहित्य-लेखन का उद्देश्य मानवीय-मूल्यों को ऊंचा उठाना होता था। साहित्य समाज का नेतृत्व करता था। आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी ने कहा था-


"साहित्य मे वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप,तलवार और बम के गोलों मे भी नहीं पाई जाती। "

अकबर इलाहाबादी ने भी कहा था-

" न खींचो तीर कमानों को,न तलवार निकालो।
जब तोप मुक़ाबिल हो ,तो अखबार निकालो। । "

उस वक्त साहित्य साम्राज्यवादी शासकों से लड़ने का एक प्रभावशाली शस्त्र था तो अपने देशवासियों को एकता के सूत्र मे बांधने वाला  अमोघ अस्त्र भी। आज प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यमों से जो साहित्य प्रकाश मे आ रहा है उसमे ऐसे तत्व क्षीण हैं जबकि विध्वंसक,अलगाव वादी ,शोषणवादी तत्व प्रभावशाली। सरकारी विभाग रेलवे मे कार्यरत एक सर्जन,सरकारी उपक्रम बी एच ई एल से अवकाश प्राप्त एक इंजीनियर जो विज्ञान के विषयों के ज्ञाता हैं अपने-अपने ब्लाग्स के माध्यम से जो साहित्य परोस रहे हैं वह अवैज्ञानिक और  प्रतिगामी,गुमराह करने और मानवता को क्षति पहुंचाने वाला है और ये दो अकेले नहीं हैं इनके जैसे कई इंटरनेटी वीर मौजूद हैं  परंतु दुर्भाग्य से इंटरनेटी विद्वजन उनकी वीरता के कसीदे पढ़ने मे मशगूल हैं बजाए उनके मंसूबों को समझ कर उनसे बचने के।  यह स्थिति साहित्य और समाज के लिए शुभ नहीं है।


सन 2011 मे कुछ विदेशी शक्तियों के उकसावे पर कुछ तथाकथित समाज के स्वंयभू ठेकेदारों ने अशांति -आंदोलन किए जिनके कारण इन्टरनेट जगत मे भी खूब जूतम-पैजार चली। बड़े-बड़े विद्वान ब्लागर्स खूब बहके और इन ठेकेदारों के मकड़जाल मे फंस गए।एक अवकाश -प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार जो विकीपीडीया  विशेषज्ञ  भी हैं तो बाकायदा अर्द्ध् सैनिक  तानाशाही हेतु चलाये गए गुमराह जलसों को जन-आंदोलन सिद्ध करने पर आमादा हैं। ये लोग भारत मे राष्ट्रीयता की भावना  को विदेशी शासन की देंन  मानते हैं।  ब्रिटिश दासता से अमेरिका को आजादी दिलाने वाले प्रथम राष्ट्रपति 'जार्ज वाशिंगटन' ने अमेरिकी ध्वज का अपमान करने वालों के संबंध मे कहा था-

Who hail the American Flag shoot him at the spot


हमारे देश मे अमेरिकी पिट्ठू भारत के राष्ट्रीय ध्वज का अपने जुलूसों मे दुरुपयोग करके खुल्लमखुल्ला अपमान कर रहे है देखिये इन चित्रों को-



(ऊपर वाला चित्र महेंद्र श्रीवास्तव जी के 'आधा सच' से साभार  तथा  नीचे वाला चित्र  हिंदुस्तान,लखनऊ,दिनांक 16-12-2011  से)
 मुझे किसी भी ब्लागर द्वारा इन निंदनीय कृत्यों की भर्त्सना  करने की भनक नहीं है। उल्टे एक ब्लागर साहब ने फेसबुक पर मुझे देश से बाहर फेंक देने की धमकी  जरूर दी और वह साहब सरकारी सेवा मे हैं। जाहिर है जब सरकार का मुखिया ही देशद्रोही आंदोलनों की पीठ पर है तो सरकारी अधिकारी तो उछलेंगे ही!लेकिन हम ब्लागर्स जो साहित्य सृजन कर रहे हैं अपने दायित्व का निर्वहन करते हुये समाज का दर्पण गंदा होने से क्यों नहीं रोकते?अन्ना की देशद्रोही मंडली का पुरजोर विरोध क्यों नहीं करते?एक ब्लागर साहब ने मेरे 'विद्रोही स्व-स्वर मे' टिप्पणी देकर मुझसे अपनी अन्ना समर्थक कविता पढ़ने को कहा-


"मेरी नई पोस्ट...... 
पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे






 हमारा लेखन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरक और मार्गदर्शक होना चाहिए। हम उम्मीद करते हैं कि इस वर्ष की समाप्ती के साथ ही यह विद्वेषक प्रवृति भी समाप्त हो जाएगी और आने वाले नव-वर्ष मे साहित्य सृजन अपनी मूल आत्मा को पुनः प्राप्त कर लेगा।

Friday, December 9, 2011

सन 2011 की राष्ट्रीय त्रासदी

हिंदुस्तान,लखनऊ,19-08-2011 

हिंदुस्तान,लखनऊ,05 -12-2011 

हिंदुस्तान,लखनऊ,19-08-2011 
हिंदुस्तान,लखनऊ 05 दिसंबर 2011 के अंक मे दिल्ली मे 04 दिसंबर 2011,रविवार को  अन्ना टीम की केजरीवाल/किरण बेदी द्वारा निकाली वाहन रैली का  फोटो छ्पा है। इसमे स्पष्ट रूप से दिखाया गया है कि भागीदार 'राष्ट्र ध्वज'लेकर जुलूस निकाल रहे हैं।

स्वाधीनता दिवस -15 अगस्त,गणतन्त्र दिवस -26 जनवरी और गांधी जयंती -02 अक्तूबर को राष्ट्र ध्वज सार्वजनिक रूप से सभी जगह फहराया जा सकता है। शेष दिनों मे केवल सरकारी कार्यालयों मे ही राष्ट्र ध्वज फहराया जा सकता है। राष्ट्र ध्वज लेकर आंदोलन करना राष्ट्र द्रोह है जिसके लिए आंदोलनकारियों के विरुद्ध 'राष्ट्रध्वज का अपमान' करने के नियम के अंतर्गत कारवाई होनी चाहिए। परंतु अन्ना टीम शुरू से ही राष्ट्र ध्वज का अपमान करती आ रही है और कोई कारवाई न किया जाना इसमे सरकारी मिली-भगत के षड्यंत्र की ओर इंगित करता है।

अन्ना आंदोलन अमेरिकी प्रशासन,अमेरिकी व भारतीय कारपोरेट घरानों के हित मे कांग्रेस के मनमोहन गुट के समर्थन से चल रहा है और आर एस एस का भी इसे खुला समर्थन है।

अमेरिका मे जार्ज वाशिंगटन ने कहा था- जो कोई अमेरिकन राष्ट्र ध्वज का अपमान करे उसे तत्काल गोली मार दो। (Who hail the American Flag shoot him at the spot ) और भारत मे खुलमखुल्ला राष्ट्र ध्वज का अपमान हो रहा है और अपराधी सिर-माथे पर बैठाये जा रहे हैं,क्यों?
निम्नाकिंत स्कैन देख कर आपको सच्चाई का आभास हो जाएगा। 

जिस अमेरिकी सरकार से वहाँ के नागरिक असंतुष्ट हैं और अपने देश के कारपोरेट घरानों की लूट के विरुद्ध 'आकुपाई वाल स्ट्रीट' आंदोलन एक लंबे अरसे से चला रहे हैं। उनकी देखा-देखी यूरोप के दूसरे देशों मे भी कारपोरेट अत्याचार के विरुद्ध आंदोलन चल रहे हैं। लेकिन हमारा देश जो 'भूतपूर्व विश्व गुरु ' है उल्टी गंगा बहाये जा रहा है। हमारे यहाँ प्रबुद्ध लोग 'कारपोरेट घरानों 'के आव्हान पर उनके हितों की रक्षा के लिए जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़  कर 'अन्ना आंदोलन' मे जोत रहे हैं। अपनी रोजी-रोटी,भूख-प्यास,बेरोजगारी,असमानता,शोषण,लूट,उत्पीड़न,अत्याचार आदि मूलभूत समस्याओं को न उठा कर भोली जनता दीवानों की तरह कारपोरेट-भक्त 'अन्ना-टीम' के पीछे भटक रही है। 


सरकारी अधिकारी भी अपने-अपने ब्लाग्स और फेसबुक स्टेटस द्वारा 'अन्ना आंदोलन' का समर्थन कर रहे हैं। वस्तुतः IAS अधिकारियों ने अपनी-अपनी पत्नियों के नाम पर NGOs गठित कर रखे हैं जिनके जरिये सरकारी अनुदान हड़प कर जाते हैं साथ ही विदेशी कंपनियों को अनुग्रहीत करने के बदले 'दान' या 'चन्दा' भी झटक लेते हैं। समस्त NGOs ने अपनी ताकत 'अन्ना आंदोलन' के समर्थन मे झोंक रखी है और वे 'लोकपाल' से NGOs को अलग रखने की मुहिम चला रहे हैं। अन्ना-आंदोलन चाहता है कि सरकारी अधिकारी और उनकी पत्नियों के NGOs के  भ्रष्टाचार को कारपोरेट भ्रष्टाचार के साथ ही बचाए रखा जाये तथा निम्न पदों के कर्मचारियों को 'लोकपाल' के डंडे के सहारे 'आतंकित' रखा जाये। अनपढ़ लोग तो 'अज्ञान'के कारण अन्ना की आंधी मे बह रहे हैं लेकिन 'इंटरनेटी विद्वान' क्यों अन्ना के अंध-भक्त बने हुये हैं?क्या उनमे अपने देश के प्रति कुछ भी स्वाभिमान नहीं बचा है?लगता ऐसा ही है और यही सन 2011 की सबसे बड़ी 'राष्ट्रीय त्रासदी' है। भावी इतिहास आज की पीढ़ी को कभी छमा नहीं करेगा। 


कृपया इस लिंक को अवश्य देखें-
http://jantakapaksh.blogspot.com/2011/12/blog-post_14.html

Sunday, December 4, 2011

वैज्ञानिक प्रगति ?/बढ़ता ढोंग






03/12/2011

01/12/2011














04/12/2011


" पहले तो उनका दबाव था कि स्वामी जी अपना उत्तराधिकारी उन्हें घोषित करें। उत्तराधिकारी भी सिर्फ आश्रम या स्कूल कालेज का ही नही बल्कि राजनीतिक उत्तराधिकारी भी बनना चाहतीं थीं। उन्होंने चुनाव लड़ने की इच्छा भी चिन्मयानंद से जाहिर की। इस पर स्वामी जी भड़क गए। उन्हें लगा कि ये साध्वी अब उन पर हावी होने की कोशिश कर रही है, लिहाजा उन्होंने जमकर फटकार लगा दी"---यह कथन है टी वी चेनल के एक  वरिष्ठ पत्रकार साहब का अपने ब्लाग मे । 


यदि पत्रकार साहब की खोज सही है तो कोमल गुप्ता उर्फ साध्वी के कदम की सराहना करनी चाहिए कि उन्होने छल और बल से स्थापित ढ़ोंगी सन्यासी के साम्राज्य को उसी छल और बल से हस्तगत करना चाहा जैसे ढ़ोंगी सन्यासी जी ने किया था। यदि पुरुष द्वारा किया कार्य ठीक था तो महिला द्वारा वही कार्य करने का प्रयास कैसे निंदनीय हो गया?
ढ़ोंगी सन्यासी द्वारा छात्रों को उकसा कर कोमल गुप्ता विरोधी आंदोलन चलवाने से वह पाक-साफ कैसे हो गए?जब वह केंद्रीय गृह राज्यमंत्री थे तो उनकी कार ने एक्सीडेंट मे एक निर्दोष पथिक की हत्या कर दी और वह सरपट कार ले गए। सन्यासी का चोला पहने गृह राज्यमंत्री के पद पर होते हुये भी उस व्यक्ति को बचाने का प्रयास उन्होने नहीं किया,अखबारों मे सुर्खियों मे छ्पा था। 


कहा जाता है आज विज्ञान का युग है,प्रगतिशीलता का युग है। फिर इन ढोंगियों के पास अकूत संपत्ति कहाँ से आ जाती है?इन के शिष्य और दान-दाता बड़े -बड़े नामी-गिरामी डॉ,इंजीनियर,वैज्ञानिक,भी हैं और शोषक-उत्पीड़क उद्योगपति-पूंजीपति भी। पढे-लिखे प्रगतिशील विचारक भी इन लोगों के प्रति भक्ति रखते हैं। तभी तो इनको बेनकाब करने वाली महिला को दोषी ठहराने का प्रयास चल रहा है जबकि उसके साहस की सराहना और उसे समर्थन देना चाहिए था। 


मै इसी ब्लाग पर लगातार ढोंगियों से सावधान रहने तथा वैज्ञानिक पूजा-पद्धति (हवन) अपनाने की अपीलें करता रहता हूँ परंतु इन ढोंगियों के समर्थक ब्लागर्स मेरे ऊपर ही कटाक्ष करते हैं बजाए एहितियात बरतने के। 


हमारे ब्लागर्स बंधु जो बड़े सरकारी ओहदेदार भी हैं और विज्ञान क्षेत्र से संबन्धित भी हैं अपने-अपने ब्लाग्स मे ढोंग-पाखंड बढ़ाने के लेख,कविता आदि लिख कर जनता को गुमराह करते और वाहवाही लूटते रहते हैं। एक इंजीनियर साहब के सुझाव पर ही मैंने 'जनहित मे' स्तुतियाँ देना प्रारम्भ किया परंतु किसी को उनसे लाभ उठाने की जरूरत नहीं है जिसमे कोई खर्च भी नही होगा उन्हें तो भारी-भरकम रकम खर्च करके वैष्णोदेवी,बालाजी,बद्रीनाथ/केदारनाथ,कामाख्या देवी वगैरह-वगैरह घूम कर पनडे-पुजारियों के हाथ लुट कर आने मे आनंद आता है। पिसती और मारी जाती है गरीब और भोली जनता जो इन पैसे वालों का अंधानुकरण करती है। कहते हैं न कि 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' -और यही सब खेल चल रहा है जो इन ढोंगियों को ताकत देता है। 

Saturday, December 3, 2011

डॉ राजेन्द्र प्रसाद की प्रासांगिकता




डॉ राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 03 दिसंबर 1884 को और  मृत्यु 28 फरवरी 1963 मे हुई थी । वह स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे और स्वाधीनता आंदोलन मे उनकी अग्रणी भूमिका रही थी। उनकी मृत्यु के 48 वर्ष बाद भी उनके विचारों की प्रासंगिकता आज भी है और आज का राजनीतिक संकट उन विचारों से हट जाने के कारण ही उत्पन्न हुआ है। राजेन्द्र बाबू का व्यक्तित्व कैसे प्रभावशाली बन सका इसका विवेचन गत वर्ष किया था। 

राजेन्द्र बाबू का जन्म एक जमींदार परिवार मे हुआ था और उन्हें सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त थीं। वह काफी प्रतिभाशाली थे। वकालत पास करने के बाद यदि प्रेक्टिस करते तो और धनशाली ही बनते। किन्तु उस समय के बड़े कांग्रेसी नेता गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें बुला कर उनसे कहा कि तुम्हें किसी चीज की कमी नहीं है और वकालत करके खूब पैसा कमा लोगो लेकिन मै चाहता हूँ कि तुम देश-सेवा मे लगो  तो तुम्हारी प्रतिभा का लाभ देशवासियों को भी मिल सके। राजेन्द्र बाबू ने गोखले जी की सलाह को आदेश मान कर शिरोधार्य कर लिया और आजीवन उसका निर्वहन किया। जन्म से प्राप्त सुख-सुविधाओं का परित्याग करके सादगी ग्रहण करके राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन मे कूद पड़ना राजेन्द्र बाबू को असहज नहीं लगा।

गांधी जी और नेताजी सुभाष के मध्य मतभेद होने की दशा मे सुभाष बाबू ही 'नीलकंठ' बन कर सामने आए और कांग्रेस की अध्यक्षता सम्हाली। निराश-हताश कांग्रेसियों मे नव-जीवन का संचार करके राजेन्द्र बाबू ने अपने कुशल नेतृत्व से स्वाधीनता आंदोलन को नई दिशा दी। स्वातंत्र्य -समर के योद्धा के रूप मे राजेन्द्र बाबू को कई बार जेल-यात्राएं भी करनी पड़ी। जेल मे भी चिंतन-मनन उनकी दिनचर्या रहते थे। यहाँ तक कि जब एक बार जेल मे उनको कागजों का आभाव हो गया तो उन्होने कागज के नोटों पर भी अपने विचार लिख कर रख लिए थे। 'खंडित भारत' की रचना भी उन्होने जेल-प्रवास के दौरान ही की थी। इस पुस्तक से राजेन्द्र बाबू की दूर-दर्शिता का आभास होता है जो उन्होने आजादी से काफी पहले विभाजन से होने वाले दुष्परिणामों की कल्पना कर ली थी। लेकिन अफसोस कि उनकी सीख को नजर-अंदाज कर दिया गया और नतीजा भारत,पाकिस्तान तथा बांग्ला देश की जनता आज तक भोग रही है।

राष्ट्रपति बनने पर उन्होने 'राष्ट्रपति भवन' से रेशमी पर्दे आदि हटवा कर खादी का सामान -चादर,पर्दे आदि लगवाए थे जो उनकी सादगी-प्रियता का प्रतीक है। वह विधेयकों पर आँख बंद करके हस्ताक्षर नहीं करते थे बल्कि अपने कानूनी ज्ञान का उपयोग करते हुये खामियों को इंगित करके विधेयक को वांछित संशोधनों हेतु वापस कर देते थे और सुधार हो जाने के बाद ही उसे पास करते थे। उनके लिए जनता का हित सर्वोप्परि था। स्व . फख़रुद्दीन अली अहमद  द्वारा विदेश मे एमेर्जेंसी पर और श्री ए पी जे कलाम साहब द्वारा बिहार की राजद सरकार हटा कर राष्ट्रपति शासन लगाने के आदेश विदेश से देना राष्ट्रपति पद का अवमूल्यन करना है और  जो राजेन्द्र बाबू की नीतियों के उलट है। उनके उत्तराधजीकारी डॉ राधा कृष्णन भी कांग्रेस अध्यक्ष कामराज नाडार के षड्यंत्र मे फंस कर एक बार तो संविधान विरोधी कार्य मे तत्पर हो गए थे जो नेहरू जी की सतर्कता से विफल हो गया था। किन्तु डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी ने नेहरू जी से तमाम मतभेदों के बावजूद कभी भी संविधान विरोधी कदम उठाने की बात नहीं सोची जबकि उन्हें तो जनता और सत्तारूढ़ पार्टी मे आदर -सम्मान भी प्राप्त था और समर्थन भी मिल सकता था।

आम धारणा है कि संविधान निर्मात्री समिति के चेयरमेन डॉ भीम राव अंबेडकर ही संविधान निर्माता हैं परंतु संविधान सभा के सभापति की हैसियत से राजेन्द्र बाबू का संविधान निर्माण मे अमिट योगदान है। उनकी कुशल अध्यक्षता मे ही संविधान की धाराओं पर सम्यक विचार-विमर्श और बहसें सम्पन्न हुई। 26 जनवरी 1950 से लागू संविधान डॉ राजेन्द्र प्रसाद के हस्ताक्षरों से ही पारित हुआ है। अतः उनके योगदान को नकारा नहीं जाना चाहिए ।

संसद और विधान सभाओं मे आए दिन जो गतिरोध देखने को मिलते हैं वे राजेन्द्र बाबू की विचार-धारा के परित्याग का ही परिणाम हैं। आज देश-हित का तकाजा है कि फिर से राजेन्द्र बाबू की नीतियों को अपनाया जाए और देश को अनेकों संकट से बचाया जाये। 

Thursday, December 1, 2011

स्वेतलाना स्टालिन और साम्यवाद


Hindustan-01/12/2011
कालाकांकर राजघराने के राजा बृजेश सिंह मेहनतकश जनता के हितैषी थे और इसीलिए वह सब कुछ त्याग कर कम्यूनिस्ट बने थे। कैसरबाग ,लखनऊ स्थित अपनी निजी संपत्ति उन्होने भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी को दान कर दी थी और उत्तर-प्रदेश भाकपा का कार्यालय आज भी वहाँ है। ऐसे कामरेड बृजेश सिंह ने रूस प्रवास के दौरान वहाँ के शासक रहे जोसफ स्टालिन की छोटी पुत्री 'स्वेतलाना' से विवाह किया था। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी स्वेतलाना भारत आई और यहाँ से अमेरिका वाया स्विट्जरलैंड चली गई तथा वहीं उनका 85 वर्ष की आयु मे गुमनामी मे निधन हो गया। जिस प्रकार डॉ हरगोविंद खुराना के निधन का समाचार देर से आया था उसी प्रकार स्वेतलाना के निधन का समाचार भी बहुत देर से ही आया। स्वेतलाना अपने पिता की 'तानाशाहीपूर्ण' नीतियों की घोर विरोधी थीं। इसी कारण उन्हें रूस छोडना पड़ा था। एक भारतीय कम्यूनिस्ट नेता की पत्नी और रूसी तानाशाह (अपने पिता की विरोधी) स्वेतलाना का निधन एक ऐसे समय मे हुआ है जब पूंजीवादी अमेरिका आर्थिक संकट से जूझ रहा है और उसे उबारने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 'वालमार्ट' सरीखी कंपनियों के लिए भारतीय बाजार खोल रहे हैं। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ने उत्तर प्रदेश मे तीन दूसरे बामपंथी दलों से मिल कर एक मोर्चा बनाया है और उसके तहत आगामी विधान सभा चुनाव 2012 मे लड़ने का निर्णय लिया है। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी,उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव डा. गिरीश ने एक वक्तव्य जारी कर  कहा है  कि ,"चूंकि इस समय पूंजीवादी दल अपनी कारगुजारियों के चलते पूरी तरह बेनकाब हो गये हैं, अतएव उत्तर प्रदेश की जनता एक साफ सुथरे नये विकल्प की तलाश में है। एक हद तक इस कमी को वामपंथी दल पूरा कर सकते हैं जो आम जनता की समस्याओं पर लगातार संघर्ष करते रहे हैं, भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त हैं और उनके पास संगठन का एक ठीक-ठाक ताना-बाना पूरे प्रदेश में मौजूद हैं। इस उद्देश्य से भाकपा, माकपा, फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी पहले ही एकजुट हो चुके हैं और अब दूसरे वाम समूहों का आह्वान किया गया है कि ऐतिहासिक इस घड़ी में मोर्चे के साथ आयें। कुछ धर्मनिरपेक्ष और भ्रष्टाचार से मुक्त छोटे दलों को भी साथ लेने पर विचार किया जा रहा है।"


भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को सबसे अधिक नुकसान डॉ राम मनोहर लोहिया के राजनीतिक दर्शन से हुआ है ,इस संबंध मे जून 2011 मे सत्य नारायण ठाकुर साहब ने डा. लोहिया के विचारों के विरोधाभास को उजागर करते हुए तीन कड़ियों में विस्तार से बताया है उस पर ध्यान देने की पर्मावाश्यक्ता है.साथ ही साथ निम्न-लिखित तथ्यों पर भी यदि ध्यान दिया जाये तो भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को लाभ हो सकता है-




वस्तुतः डा.लोहिया ने १९३० में 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी'की स्थापना १९२५ में स्थापित भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी'और इसके आंदोलन को विफल करने हेतु की थी.


स्वामी दयानंद के नेतृत्व में 'आर्य समाज'के माध्यम से देश की आजादी की जो मांग १८७५ में उठी थी उसे दबाने हेतु १८८५ में कांग्रेस की स्थापना रिटायर्ड आई .सी.एस.श्री ह्यूम द्वारा वोमेश बेनर्जी की अध्यक्षता में हुयी थी जिसमें आर्य समाजियों ने घुस कर आजादी की मांग उठाना शुरू कर दिया था.बाद में कम्यूनिस्ट भी कांग्रेस में घुस कर ही स्वाधीनता आंदोलन चला रहे थे.


१९२० में स्थापित हिन्दू महासभा के विफल रहने पर १९२५ में आर.एस.एस. की स्थापना अंग्रेजों के समर्थन और प्रेरणा से हुयी जिसने आर्य समाज को दयानंद के बाद मुट्ठी में कर लिया तब स्वामी सहजानंद एवं गेंदा लाल दीक्षित सरीखे आर्य समाजी कम्यूनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए थे.
सी.एस. पी की वजह से जनता भ्रमित रही और क्रांतिकारी ही कम्यूनिस्ट हो सके.


डा.लोहिया ने अपनी पुस्तक'इतिहास चक्र'में साफ़ लिखा है 'साम्यवाद' और पूंजीवाद'सरीखा कोई भी वाद भारत के लिए उपयोगी नहीं है .
हम कम्यूनिस्ट जनता को यह नहीं समझाते थे -कम्यूनिज्म भारतीय अवधारणा है जिसे मैक्समूलर साहब की मार्फ़त महर्षि मार्क्स ने ग्रहण करके 'दास केपिटल'लिखा था.हमने धर्म को अधर्मियों के लिए खुला छोड़ दिया और कहते रहे-'मैन हेज क्रियेटेड गाड फार हिज मेंटल सिक्यूरिटी आनली'.हम जनता को यह नहीं समझा सके -जो शरीर को धारण करे वह धर्म है.नतीजा यह रहा जनता को भटका कर धर्म के नाम पर शोषण को मजबूत किया गया. डा.लोहिया भी रामायण मेला आदि शुरू कराकर जनता को जागृत करने के मार्ग में बाधक रहे.

आज यदि हम धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करके जनता को स्वामी दयानद,विवेकानंद,कबीर और कुछ हद तक गौतम बुद्ध का भी सहारा लेकर समझा सकें तो मार्क्सवाद को भारत में सफल कर सकते हैं जो यहीं सफल हो सकता है.यूरोपीय दर्शन जो रूस में लागू हुआ विफल हो चुका है.केवल और केवल भारतीय दर्शन ही मार्क्सवाद को उर्वर भूमि प्रदान करता है,यदि हम उसका लाभ उठा सकें तो जनता को राहत मिल सके.व्यक्तिगत स्तर पर मैं अपने 'क्रान्ति स्वर 'के माध्यम से ऐसा ही कर रहा हूँ.परन्तु यदि सांगठनिक-तौर पर किया जाए तो सफलता सहज है.

भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन के एक बड़े संगठनकर्ता कामरेड बृजेश सिंह की पत्नी स्वेतलाना के निधन के बाद अब तो यह स्वीकार कर ही लिया जाना चाहिए कि,रूस मे जिस तरीके से साम्यवाद को लागू किया गया था वह गलत था तभी स्टालिन की पुत्री स्वेतलाना को ही विद्रोह करना पड़ा था और इसी कारण रूस मे साम्यवाद विफल हो गया था। साम्यवाद जो मूलतः भारतीय अवधारणा है भारतीय संदर्भों से ही भारत मे प्रसार पा सकेगा। जो लोग आज भी संकीर्ण(दक़ियानूसी) सिद्धांतों पर कम्यूनिस्ट आंदोलन को चलाने की जिद्द करते हैं वे वास्तव मे 'साम्यवाद' के हितैषी नहीं हैं और न ही भारत मे साम्यवाद को सफल होते देखना चाहते हैं चाहे संगठन मे वे कितने ही प्रभावशाली पदों पर क्यों न आसीन हों।