Wednesday, December 31, 2014
वामपंथ फासिस्ट साजिश में उलझ कर पराजय पथ पर ----- विजय राजबली माथुर
राज्यसभा में 'रेखा' और 'सचिन तेंदुलकर' ये दो ऐसे सदस्य हैं जिनको मनमोहन सरकार ने अप्रैल 2012 में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी से मनोनीत करवाया था। मोदी ने सफाई नवरत्नों में तेंदुलकर को शामिल किया था अब 'पेटा' के जरिये रेखा को अपने साथ नामित करवाया है ये सारी कोशिशें इन दोनों सांसदों का दिल जीत कर अपनी सरकार के समर्थन में खड़ा करने के लिए हैं। तेंदुलकर को ज़मीन का भी लाभ दिलाने की कोशिश इसी योजना का ही हिस्सा है।
सिर्फ सिन्धी होने के कारण ही आडवाणी ने हिरानी की फिल्म का समर्थन नहीं किया है बल्कि आमिर खान और मोदी की घनिष्ठता के कारण भी यह समर्थन आया है। फासिज़्म को मजबूत करने के लिए विपक्ष को समाप्त करना है उस दिशा में दो गुट बनाए गए हैं । एक गुट एक बात उठाता है दूसरा गुट उसका विरोध करता है। हिंदूमहासभा के बेनर पर गोडसे की मूर्ती लगाने की तैयारी और भाजपा के बेनर पर उसका विरोध। साधारण जनता व फासिस्ट विरोधी दलों को इस साजिश को समझते हुये ही अपनी नीतियाँ बनानी व अमल करना चाहिए। आमिर खान द्वारा मोदी के समर्थन से फिल्म बना कर जो विवाद उत्पन्न किया गया है उसका पूरा-पूरा लाभ केंद्र की फासिस्ट सरकार को ही मिलेगा। यह ध्यान में रख कर ही कदम उठाने चाहिए। आडवाणी का वक्तव्य आँखें खोलने के लिए काफी होना चाहिए।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=808278565900788&set=a.154096721318979.33270.100001559562380&type=1&theater
मेरे उपरोक्त निष्कर्ष से सहमति व्यक्त करने वाले फिल्म निर्माता व समीक्षक सत्यप्रकाश गुप्ता जी ने खुद एक तथ्यात्मक सत्य - विश्लेषण प्रस्तुत किया है :
https://www.facebook.com/groups/231887883638484/permalink/365350976958840/
मोदी की यह सरकार एमर्जेंसी के दौरान गिरफ्तार मधुकर दत्तात्रेय देवरस और इन्दिरा गांधी के मध्य हुये गुप्त समझौते की ही परिणति है जिसके तहत RSS ने 1980 व 1984 के लोकसभा चुनावों में इन्दिरा कांग्रेस का समर्थन करके अपनी घुसपैठ बनाई थी।2011 से चले हज़ारे/केजरीवाल आंदोलन को RSS/मनमोहन सिंह व देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों का पूर्ण समर्थन था और उसी अनुरूप सौ से अधिक कांग्रेसियों ने भाजपा सांसद बन कर मोदी को स्पष्ट बहुमत प्रदान कर दिया। अब राज्यसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं में समर्थन जुटाने की कवायद चल रही है और सफलता मिलते ही वर्तमान संविधान को ध्वस्त करके RSS की अर्द्ध-सैनिक तानाशाही को संवैधानिक संरक्षण द्वारा स्थापित कर दिया जाएगा। साम्यवादी/वामपंथी विद्वान व नेता गण थोथी नास्तिकता या एथीस्टवाद में फंस कर ढोंग-पाखंड-आडंबर को मजबूत करते जा रहे हैं और अंततः फासिस्टों को सफलता दिलाते जाकर खुद को नष्ट करने की प्रक्रिया पर चल रहे हैं। तामिलनाडु में होने वाले वर्ष 2016 के चुनावों के लिए मोदी द्वारा रेखा को अपने पाले में खींचने का अभियान शुरू हो चुका है जिनका 29 जून 2017 तक का समय राजनीतिक रूप से उज्ज्वल है। क्यों नही तामिलनाडु से भाकपा के राज्यसभा सांसद कामरेड डी राजा साहब रेखा को वामपंथी खेमे में लाने का प्रयास करते ? क्योंकि एथीज़्म में ज्योतिष का कोई महत्व नहीं है भले ही फासिस्ट मोदी सरकार उनका लाभ उठा ले जाये। यदि रेखा को वामपंथी मोर्चे का नेता बना कर तामिलनाडु विधानसभा का चुनाव लड़ा जाये तो वहाँ यह मोर्चा सफलता प्राप्त कर सकता है। यदि फ़ासिज़्म को उखाड़ना है तो अभी से ही जुटना होगा और फ़ासिज़्म की चालों का शिकार बनने से बचना होगा। वामपंथी नेता गण बाजपेयी,केजरीवाल, pk फिल्म का समर्थन करके अपना जनाधार फासिस्टों को क्यों सौंपते जा रहे हैं? यह दुखद एवं सोचनीय विषय है। मनमोहन सिंह के फेर में फंस कर सोनिया कांग्रेस तो रेखा अथवा ममता बनर्जी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़ने से वंचित हो गई किन्तु वामपंथ के सामने 2016 के तामिलनाडु विधानसभा चुनाव रेखा के नेतृत्व में लड़ने के प्रयास तो अभी से किए ही जा सकते हैं जिससे कि दक्षिण में मोदी के कदमों को थामा जा सके।
http://krantiswar.blogspot.in/2014/02/blog-post_11.html
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
Friday, December 26, 2014
89 वर्ष बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी --- विजय राजबली माथुर
स्थापना दिवस 26 दिसंबर पर विशेष :
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी :
इस दल की स्थापना तो 1924 ई
में विदेश में हुई थी। किन्तु 25
दिसंबर 1925
ई को कानपुर में एक सम्मेलन बुलाया गया
था जिसके स्वागताध्यक्ष
गणेश शंकर विद्यार्थी जी थे। 26 दिसंबर 1925 ई को
एक प्रस्ताव पास करके
'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना की विधिवत घोषणा की गई थी। 1931
ई में इसके संविधान का प्रारूप तैयार
किया गया था किन्तु उसे 1943 ई में पार्टी कांग्रेस के खुले अधिवेन्शन में स्वीकार किया जा सका क्योंकि तब तक ब्रिटिश सरकार ने इसे 'अवैध'घोषित कर रखा था और
इसके कार्यकर्ता 'कांग्रेस' में रह कर अपनी गतिविधियेँ चलाते थे।
वस्तुतः क्रांतिकारी कांग्रेसी ही इस दल के संस्थापक थे। 1857 ई की क्रांति के विफल होने व निर्ममता पूर्वक कुचल दिये जाने के बाद स्वाधीनता संघर्ष चलाने हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती (जो उस क्रांति में सक्रिय भाग ले चुके थे)ने 07 अप्रैल 1875 ई (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा-नव संवत्सर)को 'आर्यसमाज' की स्थापना की थी। इसकी शाखाएँ शुरू-शुरू में ब्रिटिश छावनी वाले शहरों में ही खोली गईं थीं। ब्रिटिश सरकार उनको क्रांतिकारी सन्यासी (REVOLUTIONARY SAINT) मानती थी। उनके आंदोलन को विफल करने हेतु वाईस राय लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से एक रिटायर्ड ICS एलेन आकटावियन (A.O.)हयूम ने 1885 ई में वोमेश चंद (W.C.) बैनर्जी की अध्यक्षता में 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' की स्थापना करवाई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा करना था। दादा भाई नैरोजी तब कहा करते थे -''हम नस-नस में राज-भक्त हैं''।
स्वामी दयानन्द के निर्देश पर आर्यसमाजी कांग्रेस में शामिल हो गए और उसे स्वाधीनता संघर्ष की ओर मोड दिया। 'कांग्रेस का इतिहास' में डॉ पट्टाभि सीता रमइय्या ने लिखा है कि गांधी जी के सत्याग्रह में जेल जाने वाले कांग्रेसियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने 1906 में 'मुस्लिम लीग'फिर 1916 में 'हिंदूमहासभा' का गठन भारत में सांप्रदायिक विभाजन कराने हेतु करवाया। किन्तु आर्यसमाजियों व गांधी जी के प्रभाव से सफलता नहीं मिल सकी। तदुपरान्त कांग्रेसी डॉ हेद्गेवार तथा क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने अपनी ओर मिला कर RSS की स्थापना करवाई जो मुस्लिम लीग के समानान्तर सांप्रदायिक वैमनस्य भड़काने में सफल रहा।
इन परिस्थितियों में कांग्रेस में रह कर क्रांतिकारी आंदोलन चलाने वालों को एक क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना की आवश्यकता महसूस हुई जिसका प्रतिफल 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी'के रूप में सामने आया। ब्रिटिश दासता के काल में इस दल के कुछ कार्यकर्ता पार्टी के निर्देश पर कांग्रेस में रह कर स्वाधीनता संघर्ष में सक्रिय भाग लेते थे तो कुछ क्रांतिकारी गतिविधियों में भी संलग्न रहे। उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश को मुक्त कराना था। किन्तु 1951-52 के आम निर्वाचनों से पूर्व इस दल ने संसदीय लोकतन्त्र की व्यवस्था को अपना लिया था। इन चुनावों में 04.4 प्रतिशत मत पा कर इसने लोकसभा में 23 स्थान प्राप्त किए और मुख्य विपक्षी दल बना। दूसरे आम चुनावों में 1957 में केरल में बहुमत प्राप्त करके इसने सरकार बनाई और विश्व की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनाने का गौरव प्राप्त किया। 1957 व 1962 में लोकसभा में साम्यवादी दल के 27 सदस्य थे।
वस्तुतः क्रांतिकारी कांग्रेसी ही इस दल के संस्थापक थे। 1857 ई की क्रांति के विफल होने व निर्ममता पूर्वक कुचल दिये जाने के बाद स्वाधीनता संघर्ष चलाने हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती (जो उस क्रांति में सक्रिय भाग ले चुके थे)ने 07 अप्रैल 1875 ई (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा-नव संवत्सर)को 'आर्यसमाज' की स्थापना की थी। इसकी शाखाएँ शुरू-शुरू में ब्रिटिश छावनी वाले शहरों में ही खोली गईं थीं। ब्रिटिश सरकार उनको क्रांतिकारी सन्यासी (REVOLUTIONARY SAINT) मानती थी। उनके आंदोलन को विफल करने हेतु वाईस राय लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से एक रिटायर्ड ICS एलेन आकटावियन (A.O.)हयूम ने 1885 ई में वोमेश चंद (W.C.) बैनर्जी की अध्यक्षता में 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' की स्थापना करवाई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा करना था। दादा भाई नैरोजी तब कहा करते थे -''हम नस-नस में राज-भक्त हैं''।
स्वामी दयानन्द के निर्देश पर आर्यसमाजी कांग्रेस में शामिल हो गए और उसे स्वाधीनता संघर्ष की ओर मोड दिया। 'कांग्रेस का इतिहास' में डॉ पट्टाभि सीता रमइय्या ने लिखा है कि गांधी जी के सत्याग्रह में जेल जाने वाले कांग्रेसियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने 1906 में 'मुस्लिम लीग'फिर 1916 में 'हिंदूमहासभा' का गठन भारत में सांप्रदायिक विभाजन कराने हेतु करवाया। किन्तु आर्यसमाजियों व गांधी जी के प्रभाव से सफलता नहीं मिल सकी। तदुपरान्त कांग्रेसी डॉ हेद्गेवार तथा क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने अपनी ओर मिला कर RSS की स्थापना करवाई जो मुस्लिम लीग के समानान्तर सांप्रदायिक वैमनस्य भड़काने में सफल रहा।
इन परिस्थितियों में कांग्रेस में रह कर क्रांतिकारी आंदोलन चलाने वालों को एक क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना की आवश्यकता महसूस हुई जिसका प्रतिफल 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी'के रूप में सामने आया। ब्रिटिश दासता के काल में इस दल के कुछ कार्यकर्ता पार्टी के निर्देश पर कांग्रेस में रह कर स्वाधीनता संघर्ष में सक्रिय भाग लेते थे तो कुछ क्रांतिकारी गतिविधियों में भी संलग्न रहे। उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश को मुक्त कराना था। किन्तु 1951-52 के आम निर्वाचनों से पूर्व इस दल ने संसदीय लोकतन्त्र की व्यवस्था को अपना लिया था। इन चुनावों में 04.4 प्रतिशत मत पा कर इसने लोकसभा में 23 स्थान प्राप्त किए और मुख्य विपक्षी दल बना। दूसरे आम चुनावों में 1957 में केरल में बहुमत प्राप्त करके इसने सरकार बनाई और विश्व की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनाने का गौरव प्राप्त किया। 1957 व 1962 में लोकसभा में साम्यवादी दल के 27 सदस्य थे।
1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से ब्रिटिश सरकार हिल गई थी अतः उसकी चालों के परिणाम स्वरूप 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' की स्थापना डॉ राम मनोहर लोहिया,आचार्य नरेंद्र देव आदि द्वारा की गई। इस दल का उद्देश्य भाकपा
की गतिविधियों को बाधित करना तथा जनता को इससे दूर करना था। इस दल ने
धर्म का विरोधी,तानाशाही आदि का समर्थक कह कर जनता को दिग्भ्रमित किया।
जयप्रकाश नारायण ने तो एक खुले पत्र द्वारा
'हंगरी'
के प्रश्न पर साम्यवादी
नेताओं से जवाब भी मांगा था जिसके उत्तर में तत्कालीन महामंत्री कामरेड अजय
घोष ने कहा था कि वे स्वतन्त्रता को अधिक पसंद करते हैं किन्तु उन्होने
विश्व समाजवाद के हित में सोवियत संघ की कार्यवाही को उचित बताया। - See more
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आज की व्यवहारिक स्थिति :
सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर एक लंबे अरसे से (1989 से ही ) भाकपा ने उसी गुट का समर्थन करना जारी रखा हुआ है जो कि उसी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का अवशिष्ट है। 20 वर्ष पूर्व सपा में भाकपा,उत्तर प्रदेश का एक गुट विलय कर गया था फिर उसके बाद लखनऊ ज़िले में एक गुट ने राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर लिया था जो 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व भाजपा में विलय हो गई। जिन साहब की नीतियों और कार्य व्यवहार की वजह से प्रदेश में भाकपा का दो-दो बार विभाजन हुआ है वह खुद को KING MAKER मानते हैं और उनके परम शिष्य तो यहाँ तक दावा करते हैं कि वह अकेले ही पूरी प्रदेश पार्टी चला रहे हैं। सर्वे सर्वा मानने वाले साहब लखनऊ के ज़िला इंचार्ज और किंग मेकर साहब सम्मेलन के पर्यवेक्षक बन कर सिर्फ अपने निजी हित में सहायक लोगों को आगे रखते हैं व केवल पार्टी हित मानने वाले लोगों को पीछे धकेल देते हैं।
लखनऊ का 22वा ज़िला सम्मेलन :23 नवंबर 2014 ("-- पार्टी संविधान की धारा 22 की उप धारा 9 (घ ) के अंतर्गत राज्य सम्मेलन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करना था जो वास्तव में नहीं हुआ।
-उप धारा 9 (ड़.) ज़िला हिसाब जांच आयोग की रिपोर्ट पर विचार करना और उसके संबंध में फैसले करना चाहिए था जो नहीं हुआ। कोई आय-व्यय विवरण प्रस्तुत ही नहीं किया गया था। 27 नवंबर 2011 के 21 वे सम्मेलन के समय रिपोर्ट न पेश करने के साथ आश्वासन दिया गया था कि बाद में ज़िला काउंसिल में पेश की जाएगी जो कि विगत तीन वर्षों में कभी भी नहीं प्रस्तुत की गई। इस बार न तो ऐसा कुछ भी बताया गया था न ही न बताने का कारण दिया गया था।
-ज़िला काउंसिल के निर्वाचन हेतु संविधान की धारा 16 की उप धारा (च) में वर्णित " गुप्त मतदान द्वारा तथा एक-एक वित्तरणशील वोट के तरीके से मत लिया जाएगा " की प्रक्रिया का अनुपालन न करके ज़िला काउंसिल के लिए प्रस्तवित 21 की संख्या को बढ़ा कर 23 कर के दो बढ़ाए हुये नामों को शामिल किया गया। एक स्थान रिक्त भी रखा गया।
-पार्टी संविधान की धारा 24 की उप धारा 3 (च ) का पिछली ज़िला काउंसिल में कभी भी पालन नहीं किया गया था-"ज़िले के आय-व्यय पर नियंत्रण रखना ")
इन साहब की मेहरबानी से लखनऊ में तीन वर्षों के दौरान 168 सदस्य पार्टी से अलग हो चुके हैं और अब भाजपा समर्थकों को भाकपा में भर कर यह जनाब भाकपा को ध्वस्त करने की प्रक्रिया को तेज़ करने लगे हैं। इनको व इनके गुरु को यदि उत्तर प्रदेश में ऐसी ही मनमानी छूट मिली रही तो ये लोग अपने मंसूबों में कामयाब भी हो सकते हैं।
http://krantiswar.blogspot.in/2014/11/blog-post_26.html
पर्यवेक्षक महोदय द्वारा किसानसभा नेताओं के रोटियाँ तोड़ने के अनर्गल बयान का भी यह असर हो सकता है :
https://www.facebook.com/ram.prataptripathi.90/posts/1524894287774594?pnref=story
लगभग 10 वर्ष पूर्व कमला नगर,आगरा आर्यसमाज के पूर्व प्रधान एस पी कुमार साहब की इसी प्रकार निरर्थक आलोचना एक और पूर्व प्रधान वाधवा साहब द्वारा करने पर कुमार साहब को हार्ट अटेक पड़ने पर बेनी सिंह इंटर कालेज के अध्यापक तीर्थराम शास्त्री जी द्वारा कहा गया था कि कुमार साहब को यह अटेक राजनीतिक प्रहार है।ठीक होने के थोड़े समय बाद कुमार साहब अपना मकान व दुकान बेच कर आगरा से बंगलौर शिफ्ट हो गए थे तथा उनके जाने के बाद आर्यसमाज, कमलानगर में RSS के लोग प्रभावी हो गए थे। प्रत्येक संगठन में RSS समर्थक RSS विरोधियों पर इसी प्रकार अनर्गल बयानबाजी करते हैं। उस आधार पर ज़िला - सम्मेलन पर्यवेक्षक के राजनीतिक बयान को भी कर्मठ किसान नेताओं पर सम्मेलन में किए गए राजनीतिक प्रहार के रूप में इस रोग से संबन्धित माना जा सकता है। किन्तु ऐसी बातें संगठन को कमजोर करने वाली होती हैं मजबूत करने वाली नहीं।साम्राज्यवादियों ने मनमोहन सिंह की उपयोगिता समाप्त होने पर एक साथ नरेंद्र मोदी व अरविंद केजरीवाल को उनके विकल्प के रूप में पेश किया था किन्तु तमाम साम्यवादी व वामपंथी केजरीवाल के गुणगान करने लगे। यहाँ तक हद हो गई कि, पार्टी स्थापना दिवस की गोष्ठी में 2010 में प्रदेश पार्टी कार्यालय में ही राष्ट्रीय सचिव के मुख्य वक्ता के रूप में बोल चुकने के बाद केजरीवाल को बुलवाया गया। 2013 में भी ऐसी ही गोष्ठी में जिम्मेदार पदाधिकारी द्वारा केजरीवाल के दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने का स्वागत किया गया।
कभी विश्व की प्रथम निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार की स्थापना केरल में करवा चुकी भाकपा गलत लोगों का साथ देने व पार्टी में गलत लोगों को प्रश्रय देने से निरंतर संकुचित होती जा रही है। नवीनतम चुनाव परिणाम :
जो कभी कामरेड बी टी रणदिवे व कामरेड ए के गोपालन द्वारा कहा गया था कि हम संविधान में घुस कर संविधान को तोड़ देंगे अब उस पर RSS नियंत्रित सांप्रदायिक/साम्राज्यवाद समर्थक सरकार अमल करने जा रही है। एक-एक करके राज्यों में येन-केन-प्रकारेंण अपनी सरकारे स्थापित करके जब वह संविधान संशोधन करने में सक्षम हो जाएगी तो वर्तमान संविधान की जगह अपना अर्द्ध-सैनिक तानाशाही वाला संविधान थोप देगी। क्योंकि भाकपा 'संसदीय लोकतन्त्र' को अपनाने के बावजूद न तो चुनावों में सही ढंग से भाग ले रही है और न ही सही साथी का चुनाव कर रही है अतः जनता कम्युनिस्टों के नाम पर नक्सलवादियों को ही जानती है जिनको न तो व्यापक जन-समर्थन मिल सकता है न ही वे सरकार सशस्त्र विद्रोह के जरिये गठित कर सकते हैं। देश की हृदय-स्थली उत्तर प्रदेश में भाकपा को अकेले दम पर चलाने का ऐलान करने वाला मोदी की छाया और RSS/USA समर्थित केजरीवाल का अंध - भक्त है।
आज पार्टी स्थापना के 89 वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद जबकि केंद्र में सत्तारूढ़ सांप्रदायिक सरकार राज्यों में भी मजबूत होती जा रही है और समाजवाद के नाम पर भाकपा को पीछे धकेलने वाले दल एकजुट हो रहे हैं भाकपा के भीतर भाजपा के हितैषी मोदी-मुलायम भक्त उन दोनों महानुभावों से छुटकारा पाने की नितांत आवश्यकता है तभी पार्टी का विस्तार व लोकप्रियता प्राप्ति हो सकेगी।
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फ़ेसबुक कमेंट्स :
लखनऊ का 22वा ज़िला सम्मेलन :23 नवंबर 2014
Saturday, December 20, 2014
काकोरी के विद्रोही शहीदों की याद में
शहीद भगत सिंह, शहीद चंद्रशेखर आजाद, शहीद राम प्रसाद बिस्मिल,
शहीद राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, शहीद रोशन सिंह, शहीद अशफाकुल्ला खां अमर रहंे! अमर रहें!
काकोरी के विद्रोही शहीदों की याद में :
जीपीओ हजरतगंज लखनऊ स्थित काकोरी शहीद स्तम्भ पर कल शुक्रवार 19 दिसंबर 2014 को 3 बजे से एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन संयुक्त रूप से नागरिक परिषद, जन कलाकार परिषद, महिला परिषद, जन संस्कृित मंच, जन जागरुकता अभियान द्वारा किया गया।
प्रारम्भ में शहीदों की याद में क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत किए गए । संचालन ओ पी सिन्हा साहब द्वारा किया गया। के के शुक्ल जी व अन्य लोगों के साथ-साथ वक्ताओं में IPTA के राकेश जी भी थे। कल्पना पांडे'दीपा' जी ने अपनी ओजस्वी कविता का पाठ किया।
वक्ताओं ने कहा कि लखनऊ जीपीओ (अग्रेंजीकाल के रिंक थियेटर) में अग्रेजों ने अदालत लगाकार हमारे क्रांतिकारी शहीदों को सजाएं सुनाईं, उन्हें फांसी पर चढ़ाने के लिए यहीं पर अदालती नाटक खेला गया था। इसलिए यह स्थान आजादी के आंदोलन का स्मारक है। लखनऊ के नागरिक इस ऐतिहासिक इमारत को आजादी की लड़ाई का स्मारक, शहीद स्मृति लाइब्रेरी, शोध केन्द्र, सभा-सेमीनार-जनआंदोलन व सत्याग्रह केन्द्र के रुप में देखना चाहते हैं।
सभा में एक प्रस्ताव पास करके केंद्र सरकार से मांग की गई कि जी पी ओ को शहीदों की स्मृति में एक संरक्षित संग्रहालय बनाया जाये और यहाँ से जी पी ओ को अन्यत्र स्थानांतरित किया जाये और इसे खाली कर प्रदेश की जनता को सौंप कर क्रांतिकारी शाहीदों की इस पावन स्थली को जन-प्रदर्शनों के लिए आरक्षित करने की भी मांग इस प्रस्ताव द्वारा की गई।
जनता के मध्य जो पर्चा जारी किया गया वह इस प्रकार है :------
देशभक्त साथियों
आजादी की लड़ाई के अपने शहीदों को याद करने के इस मौके पर हम आपको एक बार फिर काकोरी की घटना का इतिहास नहीं बताने जा रहे हैं। यदि हमारे भीतर थोड़ी भी गरिमा और मनुष्यता है तो हम आजादी के इतिहास की किताबों से इसे जान लेंगे। अपने शहीदों को जानना वास्तव में खुद को जानना है क्योंकि आज हम जो कुछ भी हैं उन्हीं की शहादत के बदौलत हैं। शहादत, किसी के भी जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक एंव मानवीय कार्रवाई है। इसके पीछे की सोच के साथ जुड़कर ही हम उस विरासत के सच्चे वारिस बनते हैं। आज सवाल यह नहीं है कि हम उनपर कितना फूल चढ़ाते हैं बल्कि सवाल यह है कि हमारे भीतर उनका वारिस बनने की तमन्ना है भी या नहीं। उनका वारिस बनकर ही हम आज देश और जनता के सामने खड़ी की गई चुनौतियों का सामना कर सकते हंै।
गैरबराबरी और अन्याय का सीधा रिश्ता सत्ता से है, हुकूमत से है, व्यवस्था से है। हुकूमत से टकराने का मकसद गैरबराबरी और अन्याय का खात्मा ही होना चाहिए। हुकूमत चाहे गोरे अंग्रेजों की हो या काले अंग्रेजों की यह हमेशा आम जनता के जुल्म व शोषण की बुनियाद पर खड़ी होती है। इसीलिए शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का कहना था कि वे एक ऐसी समाज व्यवस्था चाहते हैं जहां पर कोई किसी पर हुकूमत नहीं करे, सब जगह लोगों के पंचायती राज कायम हों। शहीद अशफाकउल्ला खां ने अपने अंतिम संदेश में कहा था- ‘एक होकर देश की नौकरशाही का मुकाबला करो और अपने देश को आजाद कराओ।’ जाहिर है कि ये ‘वीर’ मनुष्य द्वारा मनुष्य के ऊपर किसी प्रकार की हुकूमत के विरोधी थे ताकि समाज की हर बुराई और जुल्म का अंत किया जा सके। इसी सिलसिले में शहीद भगत सिंह का कहना था- ’ज्यों-ज्यों कानून सख्त होते हैं त्यों-त्यों भ्रष्टाचार भी बढ़ता है।’ इसी मसले पर गांधी जी ने कहा था- ‘जिन्हें अपनी सत्ता कायम रखनी है, वे अदालतों के जरिए लोगों को वश में रखते हैं। जब लोग खुद मार-पीट करके या रिश्तेदारों को पंच बनाकर अपना झगड़ा निपटा लेते थे तब वे बहादुर थे। अदालतें आईं और वे कायर बन गए।’
अंग्रेजों की गुलामी के दौर में यदि सभी सरकारी महकमें हम गुलामों पर हुकूमत करने के लिए बने थे तो बात समझ में आती है, लेकिन आजादी मिलने के बाद भी इन महकमों का अफसरशाही और न्यायपालिका का चरित्र हुक्मरानों, शहंशाहों सा क्यों बना रहा? पुलिस प्रशासन, न्यायपालिका आदि में से आज कोई भी ऐसी संस्था नहीं है जिसका व्यावहारिक रूप हुक्मरानों अंग्रेज शासकों जैसा न हो और जो आम नागरिक को, करदाता के साथ दुश्मनों सा सुलूक न करती हो। यही नहीं जिस भी अफसर के पास थोड़ा सरकारी-कानूनी अधिकार हो वह आम आदमी को अपनी दया पर पलने वाली रियाया से अधिक नहीं समझता। वास्तव में हमारी हुकूमतों की यही प्रकृति है। वर्तमान ढांचे में हुकूमत का काम है- मेहनतकश जनता की कमाई से कानून बनाकर संगठित तरीके से वसूली करना और सरकारी खजाने का आपस में बटवारा कर लेना। कानूनी-गैरकानूनी, नैतिक-अनैतिक दोनों तरीकों से।
यही हुकूमतें यादव सिंह, नीरा यादव, एपी सिंह, प्रदीप शुक्ला जैसे हजारों ‘जादूगरों’ और ‘कलाकारों’ को पैदा करती है, पालती-पोसती है। इन्हीं अपराधियों के बल पर ही ये देश पर अपना राज चलाते हैं। ऐसे ‘कारीगर’ और ‘जादूगर’ हर सरकारी दफ्तर में, हर शहर और हर गली में मिल जाएंगे। कभी-कभार आपसी बटवारे के झगड़े में एक-दो का भांडा फूट जाता है। लेकिन पूरी हुकूमत ऐसे ही लोगों की जमात है। ये आपस में कुर्सी बदलते रहते हैं। इन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के समय भी उनका राज चलाया और मौज किया, क्रांतिकारियों पर संगीनें चलवाईं और अब आजादी के बाद आज भी इनके वारिस पूरी विलासिता के साथ जी रहे हैं और लोकतंत्र-लोकशाही की बात करने वालों को यही न्यायाधीश बनकर देशद्रोही और आतंकी बता रहे हैं। आज भी यही कानून बनाते हैं और यही लागू करते हैं। हमारी संसद तो सिर्फ इनके किए पर, इनके इरादों पर अपनी मुहर लगाती रहती हैं। इनसे दुश्मनी मोल लेने की हिम्मत किसी जन-प्रतिनिधि, सांसद-विधायक में नहीं है। वास्तव में कानूनी तौर पर हमारे सांसदों-विधायकों की स्थिति एक दारोगा से भी नीचे होती है।
आज हमारे देश में ढेरों ऐसे कानून और नियम बने हैं जिनका मकसद आम लोगों को परेशान करना, उनकी राजनीतिक सक्रियता और स्वतंत्रता को बाधित करना है। यह सब इसलिए, ताकि लोग इसी में उलझे रहें, और लूट की व्यवस्था बदस्तूर जारी रहे।
आजादी के 66 वर्षों में भी हमें न तो गरीबी से आजादी मिली, न बेरोजगारी से, न महगाई से, न अशिक्षा से आम नागरिक आज भी न्याय और मानवीय गरिमा से वंचित है। हम अभी तक देश की पूरी आबादी को जीवन की न्यूनतम बुनियादी सुविधायें भी नहीं दिला पाये। हमने अपने श्रम से बेहिसाब दौलत पैदा की, लेकिन यह दौलत किसकी पेट में गयी, सबको मालूम है। जहां तक न्याय का सवाल है, तो हमारी पूरी कानून-न्यायिक प्रक्रिया एक चक्रव्यूह है, जहां पर अंत में अभिमन्यु ही मारा जाता है। हूकूमत या सत्ता के किसी न किसी रुप में बने रहते हम सच्ची आजादी और सच्चे न्याय की कल्पना ही नहीं कर सकते। दोनों का अस्तित्व एक साथ नहीं रह सकता। सच्चे लोकतंत्र का अर्थ ही यह है कि उसमें तंत्र लगातार कमजोर पड़ता जाए और लोक ताकतवर। आजादी के बाद से लगातार इसका उल्टा हुआ है। आज तंत्र इतना ताकतवर हो चुका है उसकी गिरफ्त में पूरे देश की सांस घुट रही है। तंत्र के मालिकान न्याय की राह में सबसे बड़ी रुकावट बन गए हैं। श्रमिक, किसान, व्यापारी, छोटे कारखानेदार, डाक्टर, इंजीनियर, कलाकार महिलायें अर्थात समाज का हर वर्ग समूह इनसे त्रस्त है। हमारे लोकतंत्र को इन्होंने अपाहिज और बंधक बना रखा है।
पूरी आजादी की लड़ाई के दौरान इस बात पर हमेशा जोर था, आम सहमति थी कि, आजादी मिलने पर ‘पूरा तंत्र’ बदल दिया जाएगा विशेष तौर पर क्रांतिकारियों और शहीदों का यह मत था। आजादी मिलते ही जिस तरह कुछ बड़े नेताओं ने तंत्र और नौकरशाही का पक्ष लिया, उससे देश की आम जनता के हाथ से राजनीति की बागडोर छूट गई, और आज उसे पूरी तरह एक वोट बैंक में तब्दील करके राजनीतिक रुप से शून्य व निष्क्रिय कर दिया गया है। आजादी के बाद की इस ऐतिहासिक गलती का खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। लुटेरे अग्रेजों की हुकूमत की जगह ऐसे देशी लुटेरों की हूकूमत कायम हुई, जो अग्रेंजों की तरह ही आज हमारे देश और पूरी दुनिया में लूट का कारोबार करते हैं और इन्हीं की तरह पूरी दुनिया पर हुकूमत करने का ख्वाब देखते हैं। देश के सस्ते श्रम और प्राकृतिक संपदा खेती-किसानी की लूट के बल पर ये दुनिया के सबसे अमीर जमात में शामिल होते जा रहे हैं। जबकि हमारे देश की आधे से अधिक आबादी दुनिया के सबसे दरिद्र अभावग्रस्त लोगों में शामिल है। इसी विरोधाभास का मूर्त रुप है देश की हुकूमत, चाहे वह विकास की माला जपे, चाहे सामाजिक न्याय की धर्म निरपेक्षता की या सांप्रदायिकता की माला जपती रहे।
सांप्रदायिकता या सामाजिक-धार्मिक विद्वेष, जिसके खिलाफ हमारे शहीद दृढ़ता से खड़े हुए, आजादी की लड़ाई के वास्तविक नेता जिसके खिलाफ लड़े, विवेकानन्द सहित तमाम समाज सुधारकों ने जिसका विरोध किया और कभी भी जो भारतीय चिंतन परंपरा व जनसंस्कृति का हिस्सा नहीं रहा आज इन्हीं के नाम पर इस नफरत को नए सिरे से फैलाया जा रहा है, ताकि आम जनता के अंसतोष को गलत दिशा देकर अपना उल्लू सीधा किया जा सके। केन्द्र में बैठे भारतीय संस्कृति के तथाकथित लंबरदार पूरे भारतीय समाज की एकता की जड़े खोद रहे हैं। आजादी की विरासत को मिटाकर उसे एक सांप्रदायिक रुप देने की कोशिश कर रहे हैं। ये एक तरफ काले धन को सफेद बनाने की सरकारी योजनाएं ला रहे हैं तो दूसरी तरफ ट्रैफिक सुरक्षा, वाहन-सड़क सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा, नागरिक सुरक्षा के नाम पर ऐसे कानून ला रहे हैं, जिससे आम जनता से इनकी वसूली बढ़ जाएगी। आम आदमी का जीना मुहाल हो जाएगा, सड़क पर चलने वाला हर एक वाहन चालक, वाहन मालिक, कानून की नजर में अपराधी बन गया है और इनकी अगुवाई में पुलिस-कचहरी का नियंत्रण लोगों पर और बढ़ता जाएगा। हमारा लोकतंत्र धीरे-धीरे अघोषित तानाशाही की ओर बढ़ रहा है। अग्रेंजी हुकूमत से भी खतरनाक तानाशाही की ओर। इनकी लूट और लालच से पैदा हुए आर्थिक संकटों का इस हूकूमत के पास एक ही इलाज है- तानाशाही।
काकोरी दिवस के शहीदों को याद करते हुए हमें एक सच्चे लोकतंत्र के लिए नए सिरे से एकजुट होकर संघर्ष का संकल्प करना है। पिछले वर्षों देश में जो जनआंदोलन पैदा हुए, उसे और संगठित करते हुए आगे बढ़ने का सकल्प करना है। यह लोक के राज को मिटाने में लग गए हैं, हमे इनके तंत्र के राज को मिटाकर एक सच्ची पंचायती व्यवस्था और अवामी राज बनाने में लग जाना चाहिए। इस पंचायती राज की शुरुआत हमें अपने मुहल्ले और गांव से करनी है। इसी पंचायती व्यवस्था का सपना राम प्रसाद बिस्मिल समेत हमारे सभी विद्रोही देशभक्त शहीदों ने देखा था।
हमारे आंदोलन के शुरुआती मुद्दे-
1- लखनऊ जीपीओ (अग्रेंजीकाल के रिंक थियेटर) में अग्रेजों ने अदालत लगाकार हमारे क्रांतिकारी शहीदों को सजाएं सुनाईं, उन्हें फांसी पर चढ़ाने के लिए यहीं पर अदालती नाटक खेला गया था। इसलिए यह स्थान आजादी के आंदोलन का स्मारक है। लखनऊ के नागरिक इस ऐतिहासिक इमारत को आजादी की लड़ाई का स्मारक, शहीद स्मृति लाइब्रेरी, शोध केन्द्र, सभा-सेमीनार-जनआंदोलन व सत्याग्रह केन्द्र के रुप में देखना चाहते हैं। इसलिए हम मांग करते हैं कि केन्द्र सरकार इसे जल्द से जल्द खाली करवाते हुए इस इमारत को आजादी की लड़ाई का स्मारक घोषित करते हुए खाली कर इसे प्रदेश की जनता को सौंप दे।
2- देश में एक एकीकृत श्रम कानून, जो पूरी श्रमिक आबादी पर एक जैसा लागू हो और इसे श्रमिकों की निर्वाचित कमेटियों को लागू करने का अधिकार दिया जाए। ठेका-संविदा मजदूरी का खात्मा।
3- नगरपालिकाओं और ग्राम पंचायतों को अपने क्षेत्र की विकास योजनाएं बनाने का पूरा अधिकार, पूरा वित्तीय अधिकार एवं उस क्षेत्र की पुलिस न्यायालय, प्रशासन को इसके अधीन लाया जाए।
4- हर महिला का प्रसूति के समय एक साल तक भरण पोषण की पूरी जिम्मेदारी सरकार एवं समाज की।
5- दोहरी शिक्षा एवं चिकित्सा प्रणाली का अंत एवं इसे हर स्तर पर लोगों को निःशुल्क उपलब्ध कराया जाय।
6- खेती-किसानी के लिए आवश्यक सभी चीजों को पूरी तरह कर मुक्त किया जाए एवं किसान सहकारी समितियों का पुर्नगठन कर उन्हें किसानों की हित में नीतियां बनाने का अधिकार दिया जाए।
7- व्यापारियों एवं छोटे उद्यमियों को आसानी से ऋण उपलब्ध कराकर उन्हें परेशान करने वाले अधिकारियों को दंडित किया जाए।
8- देश के अपराध कानून में जमानत लेने के लिए धन-संपत्ति के आधार पर जमानत की बाध्यता समाप्त करके सिर्फ नागरिक पहचानपत्र के आधार पर लोगों को जमानत देने का कानून बनाया जाए।
9- सरकारी कर्ज को भूमि लगान की तरह वसूलने का कानून समाप्त किया जाए, यह कानून ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में सन् 1793 में लार्ड कार्नवालिस ने आम किसानों, नागरिकों को लूटने के लिए बनाया था।
10- हर गांव, कस्बे और शहर में निर्वाचित न्याय पंचायतों का आम निर्वाचन द्वारा गठन करके लोगों के आपसी विवाद एवं संपत्ति विवाद को हल करने के लिए इसे सौंपा जाए।
11- बच्चों एवं बुजर्गों के अच्छे जीवन के लिए विशेष योजनाएं बनाईं जाएं।
मुद्दे और भी हो सकते हैं, लेकिन हमें अभी इन्हीं से शुरुआत करनी है, और धीरे-धीरे उन सवालों को उठाते हुए आगे बढ़ना है, जिससे हुकूमत की पकड़ आम जनता पर लगातार ढीली पड़ती जाय और आम नागरिक की पकड़ हुकूमत/नौकरशाही पर मजबूत हो ताकि लोकतंत्र वास्तविकता बने।
साभार :
https://www.facebook.com/events/611382028989657/permalink/611870882274105/
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~विजय राजबली माथुर ©
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शहीद राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, शहीद रोशन सिंह, शहीद अशफाकुल्ला खां अमर रहंे! अमर रहें!
काकोरी के विद्रोही शहीदों की याद में :
जीपीओ हजरतगंज लखनऊ स्थित काकोरी शहीद स्तम्भ पर कल शुक्रवार 19 दिसंबर 2014 को 3 बजे से एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन संयुक्त रूप से नागरिक परिषद, जन कलाकार परिषद, महिला परिषद, जन संस्कृित मंच, जन जागरुकता अभियान द्वारा किया गया।
प्रारम्भ में शहीदों की याद में क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत किए गए । संचालन ओ पी सिन्हा साहब द्वारा किया गया। के के शुक्ल जी व अन्य लोगों के साथ-साथ वक्ताओं में IPTA के राकेश जी भी थे। कल्पना पांडे'दीपा' जी ने अपनी ओजस्वी कविता का पाठ किया।
वक्ताओं ने कहा कि लखनऊ जीपीओ (अग्रेंजीकाल के रिंक थियेटर) में अग्रेजों ने अदालत लगाकार हमारे क्रांतिकारी शहीदों को सजाएं सुनाईं, उन्हें फांसी पर चढ़ाने के लिए यहीं पर अदालती नाटक खेला गया था। इसलिए यह स्थान आजादी के आंदोलन का स्मारक है। लखनऊ के नागरिक इस ऐतिहासिक इमारत को आजादी की लड़ाई का स्मारक, शहीद स्मृति लाइब्रेरी, शोध केन्द्र, सभा-सेमीनार-जनआंदोलन व सत्याग्रह केन्द्र के रुप में देखना चाहते हैं।
सभा में एक प्रस्ताव पास करके केंद्र सरकार से मांग की गई कि जी पी ओ को शहीदों की स्मृति में एक संरक्षित संग्रहालय बनाया जाये और यहाँ से जी पी ओ को अन्यत्र स्थानांतरित किया जाये और इसे खाली कर प्रदेश की जनता को सौंप कर क्रांतिकारी शाहीदों की इस पावन स्थली को जन-प्रदर्शनों के लिए आरक्षित करने की भी मांग इस प्रस्ताव द्वारा की गई।
जनता के मध्य जो पर्चा जारी किया गया वह इस प्रकार है :------
देशभक्त साथियों
आजादी की लड़ाई के अपने शहीदों को याद करने के इस मौके पर हम आपको एक बार फिर काकोरी की घटना का इतिहास नहीं बताने जा रहे हैं। यदि हमारे भीतर थोड़ी भी गरिमा और मनुष्यता है तो हम आजादी के इतिहास की किताबों से इसे जान लेंगे। अपने शहीदों को जानना वास्तव में खुद को जानना है क्योंकि आज हम जो कुछ भी हैं उन्हीं की शहादत के बदौलत हैं। शहादत, किसी के भी जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक एंव मानवीय कार्रवाई है। इसके पीछे की सोच के साथ जुड़कर ही हम उस विरासत के सच्चे वारिस बनते हैं। आज सवाल यह नहीं है कि हम उनपर कितना फूल चढ़ाते हैं बल्कि सवाल यह है कि हमारे भीतर उनका वारिस बनने की तमन्ना है भी या नहीं। उनका वारिस बनकर ही हम आज देश और जनता के सामने खड़ी की गई चुनौतियों का सामना कर सकते हंै।
गैरबराबरी और अन्याय का सीधा रिश्ता सत्ता से है, हुकूमत से है, व्यवस्था से है। हुकूमत से टकराने का मकसद गैरबराबरी और अन्याय का खात्मा ही होना चाहिए। हुकूमत चाहे गोरे अंग्रेजों की हो या काले अंग्रेजों की यह हमेशा आम जनता के जुल्म व शोषण की बुनियाद पर खड़ी होती है। इसीलिए शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का कहना था कि वे एक ऐसी समाज व्यवस्था चाहते हैं जहां पर कोई किसी पर हुकूमत नहीं करे, सब जगह लोगों के पंचायती राज कायम हों। शहीद अशफाकउल्ला खां ने अपने अंतिम संदेश में कहा था- ‘एक होकर देश की नौकरशाही का मुकाबला करो और अपने देश को आजाद कराओ।’ जाहिर है कि ये ‘वीर’ मनुष्य द्वारा मनुष्य के ऊपर किसी प्रकार की हुकूमत के विरोधी थे ताकि समाज की हर बुराई और जुल्म का अंत किया जा सके। इसी सिलसिले में शहीद भगत सिंह का कहना था- ’ज्यों-ज्यों कानून सख्त होते हैं त्यों-त्यों भ्रष्टाचार भी बढ़ता है।’ इसी मसले पर गांधी जी ने कहा था- ‘जिन्हें अपनी सत्ता कायम रखनी है, वे अदालतों के जरिए लोगों को वश में रखते हैं। जब लोग खुद मार-पीट करके या रिश्तेदारों को पंच बनाकर अपना झगड़ा निपटा लेते थे तब वे बहादुर थे। अदालतें आईं और वे कायर बन गए।’
अंग्रेजों की गुलामी के दौर में यदि सभी सरकारी महकमें हम गुलामों पर हुकूमत करने के लिए बने थे तो बात समझ में आती है, लेकिन आजादी मिलने के बाद भी इन महकमों का अफसरशाही और न्यायपालिका का चरित्र हुक्मरानों, शहंशाहों सा क्यों बना रहा? पुलिस प्रशासन, न्यायपालिका आदि में से आज कोई भी ऐसी संस्था नहीं है जिसका व्यावहारिक रूप हुक्मरानों अंग्रेज शासकों जैसा न हो और जो आम नागरिक को, करदाता के साथ दुश्मनों सा सुलूक न करती हो। यही नहीं जिस भी अफसर के पास थोड़ा सरकारी-कानूनी अधिकार हो वह आम आदमी को अपनी दया पर पलने वाली रियाया से अधिक नहीं समझता। वास्तव में हमारी हुकूमतों की यही प्रकृति है। वर्तमान ढांचे में हुकूमत का काम है- मेहनतकश जनता की कमाई से कानून बनाकर संगठित तरीके से वसूली करना और सरकारी खजाने का आपस में बटवारा कर लेना। कानूनी-गैरकानूनी, नैतिक-अनैतिक दोनों तरीकों से।
यही हुकूमतें यादव सिंह, नीरा यादव, एपी सिंह, प्रदीप शुक्ला जैसे हजारों ‘जादूगरों’ और ‘कलाकारों’ को पैदा करती है, पालती-पोसती है। इन्हीं अपराधियों के बल पर ही ये देश पर अपना राज चलाते हैं। ऐसे ‘कारीगर’ और ‘जादूगर’ हर सरकारी दफ्तर में, हर शहर और हर गली में मिल जाएंगे। कभी-कभार आपसी बटवारे के झगड़े में एक-दो का भांडा फूट जाता है। लेकिन पूरी हुकूमत ऐसे ही लोगों की जमात है। ये आपस में कुर्सी बदलते रहते हैं। इन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के समय भी उनका राज चलाया और मौज किया, क्रांतिकारियों पर संगीनें चलवाईं और अब आजादी के बाद आज भी इनके वारिस पूरी विलासिता के साथ जी रहे हैं और लोकतंत्र-लोकशाही की बात करने वालों को यही न्यायाधीश बनकर देशद्रोही और आतंकी बता रहे हैं। आज भी यही कानून बनाते हैं और यही लागू करते हैं। हमारी संसद तो सिर्फ इनके किए पर, इनके इरादों पर अपनी मुहर लगाती रहती हैं। इनसे दुश्मनी मोल लेने की हिम्मत किसी जन-प्रतिनिधि, सांसद-विधायक में नहीं है। वास्तव में कानूनी तौर पर हमारे सांसदों-विधायकों की स्थिति एक दारोगा से भी नीचे होती है।
आज हमारे देश में ढेरों ऐसे कानून और नियम बने हैं जिनका मकसद आम लोगों को परेशान करना, उनकी राजनीतिक सक्रियता और स्वतंत्रता को बाधित करना है। यह सब इसलिए, ताकि लोग इसी में उलझे रहें, और लूट की व्यवस्था बदस्तूर जारी रहे।
आजादी के 66 वर्षों में भी हमें न तो गरीबी से आजादी मिली, न बेरोजगारी से, न महगाई से, न अशिक्षा से आम नागरिक आज भी न्याय और मानवीय गरिमा से वंचित है। हम अभी तक देश की पूरी आबादी को जीवन की न्यूनतम बुनियादी सुविधायें भी नहीं दिला पाये। हमने अपने श्रम से बेहिसाब दौलत पैदा की, लेकिन यह दौलत किसकी पेट में गयी, सबको मालूम है। जहां तक न्याय का सवाल है, तो हमारी पूरी कानून-न्यायिक प्रक्रिया एक चक्रव्यूह है, जहां पर अंत में अभिमन्यु ही मारा जाता है। हूकूमत या सत्ता के किसी न किसी रुप में बने रहते हम सच्ची आजादी और सच्चे न्याय की कल्पना ही नहीं कर सकते। दोनों का अस्तित्व एक साथ नहीं रह सकता। सच्चे लोकतंत्र का अर्थ ही यह है कि उसमें तंत्र लगातार कमजोर पड़ता जाए और लोक ताकतवर। आजादी के बाद से लगातार इसका उल्टा हुआ है। आज तंत्र इतना ताकतवर हो चुका है उसकी गिरफ्त में पूरे देश की सांस घुट रही है। तंत्र के मालिकान न्याय की राह में सबसे बड़ी रुकावट बन गए हैं। श्रमिक, किसान, व्यापारी, छोटे कारखानेदार, डाक्टर, इंजीनियर, कलाकार महिलायें अर्थात समाज का हर वर्ग समूह इनसे त्रस्त है। हमारे लोकतंत्र को इन्होंने अपाहिज और बंधक बना रखा है।
पूरी आजादी की लड़ाई के दौरान इस बात पर हमेशा जोर था, आम सहमति थी कि, आजादी मिलने पर ‘पूरा तंत्र’ बदल दिया जाएगा विशेष तौर पर क्रांतिकारियों और शहीदों का यह मत था। आजादी मिलते ही जिस तरह कुछ बड़े नेताओं ने तंत्र और नौकरशाही का पक्ष लिया, उससे देश की आम जनता के हाथ से राजनीति की बागडोर छूट गई, और आज उसे पूरी तरह एक वोट बैंक में तब्दील करके राजनीतिक रुप से शून्य व निष्क्रिय कर दिया गया है। आजादी के बाद की इस ऐतिहासिक गलती का खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। लुटेरे अग्रेजों की हुकूमत की जगह ऐसे देशी लुटेरों की हूकूमत कायम हुई, जो अग्रेंजों की तरह ही आज हमारे देश और पूरी दुनिया में लूट का कारोबार करते हैं और इन्हीं की तरह पूरी दुनिया पर हुकूमत करने का ख्वाब देखते हैं। देश के सस्ते श्रम और प्राकृतिक संपदा खेती-किसानी की लूट के बल पर ये दुनिया के सबसे अमीर जमात में शामिल होते जा रहे हैं। जबकि हमारे देश की आधे से अधिक आबादी दुनिया के सबसे दरिद्र अभावग्रस्त लोगों में शामिल है। इसी विरोधाभास का मूर्त रुप है देश की हुकूमत, चाहे वह विकास की माला जपे, चाहे सामाजिक न्याय की धर्म निरपेक्षता की या सांप्रदायिकता की माला जपती रहे।
सांप्रदायिकता या सामाजिक-धार्मिक विद्वेष, जिसके खिलाफ हमारे शहीद दृढ़ता से खड़े हुए, आजादी की लड़ाई के वास्तविक नेता जिसके खिलाफ लड़े, विवेकानन्द सहित तमाम समाज सुधारकों ने जिसका विरोध किया और कभी भी जो भारतीय चिंतन परंपरा व जनसंस्कृति का हिस्सा नहीं रहा आज इन्हीं के नाम पर इस नफरत को नए सिरे से फैलाया जा रहा है, ताकि आम जनता के अंसतोष को गलत दिशा देकर अपना उल्लू सीधा किया जा सके। केन्द्र में बैठे भारतीय संस्कृति के तथाकथित लंबरदार पूरे भारतीय समाज की एकता की जड़े खोद रहे हैं। आजादी की विरासत को मिटाकर उसे एक सांप्रदायिक रुप देने की कोशिश कर रहे हैं। ये एक तरफ काले धन को सफेद बनाने की सरकारी योजनाएं ला रहे हैं तो दूसरी तरफ ट्रैफिक सुरक्षा, वाहन-सड़क सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा, नागरिक सुरक्षा के नाम पर ऐसे कानून ला रहे हैं, जिससे आम जनता से इनकी वसूली बढ़ जाएगी। आम आदमी का जीना मुहाल हो जाएगा, सड़क पर चलने वाला हर एक वाहन चालक, वाहन मालिक, कानून की नजर में अपराधी बन गया है और इनकी अगुवाई में पुलिस-कचहरी का नियंत्रण लोगों पर और बढ़ता जाएगा। हमारा लोकतंत्र धीरे-धीरे अघोषित तानाशाही की ओर बढ़ रहा है। अग्रेंजी हुकूमत से भी खतरनाक तानाशाही की ओर। इनकी लूट और लालच से पैदा हुए आर्थिक संकटों का इस हूकूमत के पास एक ही इलाज है- तानाशाही।
काकोरी दिवस के शहीदों को याद करते हुए हमें एक सच्चे लोकतंत्र के लिए नए सिरे से एकजुट होकर संघर्ष का संकल्प करना है। पिछले वर्षों देश में जो जनआंदोलन पैदा हुए, उसे और संगठित करते हुए आगे बढ़ने का सकल्प करना है। यह लोक के राज को मिटाने में लग गए हैं, हमे इनके तंत्र के राज को मिटाकर एक सच्ची पंचायती व्यवस्था और अवामी राज बनाने में लग जाना चाहिए। इस पंचायती राज की शुरुआत हमें अपने मुहल्ले और गांव से करनी है। इसी पंचायती व्यवस्था का सपना राम प्रसाद बिस्मिल समेत हमारे सभी विद्रोही देशभक्त शहीदों ने देखा था।
हमारे आंदोलन के शुरुआती मुद्दे-
1- लखनऊ जीपीओ (अग्रेंजीकाल के रिंक थियेटर) में अग्रेजों ने अदालत लगाकार हमारे क्रांतिकारी शहीदों को सजाएं सुनाईं, उन्हें फांसी पर चढ़ाने के लिए यहीं पर अदालती नाटक खेला गया था। इसलिए यह स्थान आजादी के आंदोलन का स्मारक है। लखनऊ के नागरिक इस ऐतिहासिक इमारत को आजादी की लड़ाई का स्मारक, शहीद स्मृति लाइब्रेरी, शोध केन्द्र, सभा-सेमीनार-जनआंदोलन व सत्याग्रह केन्द्र के रुप में देखना चाहते हैं। इसलिए हम मांग करते हैं कि केन्द्र सरकार इसे जल्द से जल्द खाली करवाते हुए इस इमारत को आजादी की लड़ाई का स्मारक घोषित करते हुए खाली कर इसे प्रदेश की जनता को सौंप दे।
2- देश में एक एकीकृत श्रम कानून, जो पूरी श्रमिक आबादी पर एक जैसा लागू हो और इसे श्रमिकों की निर्वाचित कमेटियों को लागू करने का अधिकार दिया जाए। ठेका-संविदा मजदूरी का खात्मा।
3- नगरपालिकाओं और ग्राम पंचायतों को अपने क्षेत्र की विकास योजनाएं बनाने का पूरा अधिकार, पूरा वित्तीय अधिकार एवं उस क्षेत्र की पुलिस न्यायालय, प्रशासन को इसके अधीन लाया जाए।
4- हर महिला का प्रसूति के समय एक साल तक भरण पोषण की पूरी जिम्मेदारी सरकार एवं समाज की।
5- दोहरी शिक्षा एवं चिकित्सा प्रणाली का अंत एवं इसे हर स्तर पर लोगों को निःशुल्क उपलब्ध कराया जाय।
6- खेती-किसानी के लिए आवश्यक सभी चीजों को पूरी तरह कर मुक्त किया जाए एवं किसान सहकारी समितियों का पुर्नगठन कर उन्हें किसानों की हित में नीतियां बनाने का अधिकार दिया जाए।
7- व्यापारियों एवं छोटे उद्यमियों को आसानी से ऋण उपलब्ध कराकर उन्हें परेशान करने वाले अधिकारियों को दंडित किया जाए।
8- देश के अपराध कानून में जमानत लेने के लिए धन-संपत्ति के आधार पर जमानत की बाध्यता समाप्त करके सिर्फ नागरिक पहचानपत्र के आधार पर लोगों को जमानत देने का कानून बनाया जाए।
9- सरकारी कर्ज को भूमि लगान की तरह वसूलने का कानून समाप्त किया जाए, यह कानून ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में सन् 1793 में लार्ड कार्नवालिस ने आम किसानों, नागरिकों को लूटने के लिए बनाया था।
10- हर गांव, कस्बे और शहर में निर्वाचित न्याय पंचायतों का आम निर्वाचन द्वारा गठन करके लोगों के आपसी विवाद एवं संपत्ति विवाद को हल करने के लिए इसे सौंपा जाए।
11- बच्चों एवं बुजर्गों के अच्छे जीवन के लिए विशेष योजनाएं बनाईं जाएं।
मुद्दे और भी हो सकते हैं, लेकिन हमें अभी इन्हीं से शुरुआत करनी है, और धीरे-धीरे उन सवालों को उठाते हुए आगे बढ़ना है, जिससे हुकूमत की पकड़ आम जनता पर लगातार ढीली पड़ती जाय और आम नागरिक की पकड़ हुकूमत/नौकरशाही पर मजबूत हो ताकि लोकतंत्र वास्तविकता बने।
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~विजय राजबली माथुर ©
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Thursday, December 18, 2014
कलम और कागज के जरिये 'क्रांति' का पैगाम --- विजय राजबली माथुर
''न खींचो तीर कमानों को , न तलवार निकालो।
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो । । "
वस्तुतः 'विद्रोह' या 'क्रांति' कोई ऐसी चीज़ नहीं होती कि जिसका विस्फोट एकाएक अचानक होता है। बल्कि इसके अनंतर 'अंतर' के तनाव को बल मिलता रहता है। अखबार निकालने की क्षमता तो मुझ में न थी न है परंतु मैं 1973 से ही विभिन्न अखबारों में अपने लेख भेजता रहा और छ्पते भी रहे हैं। एक साप्ताहिक पत्र व एक त्रैमासिक पत्रिका में सह-संपादक के रूप में कार्य करने का अवसर भी मिल चुका है अब जून 2010 से ब्लाग्स के माध्यम से लेखन जारी रखे हुये हूँ।
06 दिसंबर 2014 : को फेसबुक पर यह स्टेटस दिया था-
मेरे लेखन के कटु आलोचक व प्रबल विरोधी द्वारा दिया गया निम्नांकित फेसबुक स्टेटस देख कर बेहद हैरानी हुई कि यह शख्स कितने दोहरे चरित्र का आदमी है। 26 दिसंबर 2010 को भाकपा के प्रदेश कार्यालय में पार्टी के एक जन-प्रिय राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अंजान साहब के 'मुख्य वक्ता' के रूप में बोल चुकने के उपरांत उस गोष्ठी के संचालक के रूप में इसी शख्स ने अरविंद केजरीवाल को बोलने का अवसर दिया था। यह शख्स कल्याण सिंह और सी बी गुप्ता का भी प्रशंसक है।खुद को एथीस्ट घोषित करने के बावजूद 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' तथा हज़ारे-केजरीवाल-मोदी के विरुद्ध लिखे मेरे लेखों की खिल्ली उड़ाता है। बर्द्धन जी व अंजान साहब के पोस्ट्स पार्टी ब्लाग में लगा देने के कारण इसी शख्स ने मुझे उस ब्लाग की आथरशिप व एडमिनशिप से हटा दिया था। तब 'साम्यवाद (COMMUNISM ) ' नामक अलग ब्लाग बना कर मैं बर्द्धन जी व अंजान साहब के पोस्ट्स भी उसमें निकालने लगा तो मुझे लखनऊ भाकपा की ज़िला काउंसिल से भी हटवा दिया। जन-हितैषी और ईमानदार कार्यकर्ताओं के शत्रु इस शख्स के उद्धृत स्टेटस पर कतई विश्वास नहीं किया जा सकता जिसकी 'कथनी और करनी' में भारी अंतर है जो नीचे दिये गए इन तीन फोटो से स्पष्ट हो जाएगा।
16 dec.2014
भाजपा और कांग्रेस का विकल्प केवल वामपंथ.................................................. वामपंथी दलों और उसमें विशेषकर भाकपा का पूरे देश में संगठन है।"
एक ओर जहां यह शख्स भाजपा,उ प्र के प्रभारी ओम माथुर को प्रसन्न करने हेतु भाकपा को जन-प्रिय बनाने के मेरे सुझावों की भर्त्सना करता है वहीं दूसरी ओर कल्याण सिंह समर्थक व्यापारियों व हिन्दू परिषद के लोगों की भाकपा में घुसपैठ करा रहा है जैसा कि उपरोक्त तीनों फोटो से साफ ज़ाहिर होता है (डिस्ट्रीब्यूटर व हिन्दू परिषद के लोग इसी शख्स के संरक्षण वाले AISF, यू पी में सम्मानित पदों पर विराजे गए हैं )। ऐसे ही लोगों के लिए CPM नेता की पुत्री व निर्भीक पत्रकार सुश्री मनीषा पांडे जी ने लिखा है-
https://www.facebook.com/manisha.pandey.564/posts/10205667154182873
राइट-लेफ्ट होना और बात है और अच्छा इंसान होना बिलकुल दूसरी बात। वाम मार्ग से तनिक भी सो कॉल्ड विचलन देखकर आपका घर-खानदान, जीवन गालियों से तौल देने वाले वाम सिपाही भी बहुत क्रूर, तंगदिल मनुष्य हो सकते हैं। बल्कि हैं ही।
एक तरफ अपने फेसबुक स्टेटस द्वारा इसी शख्स ने लोगों को भ्रमित करने की बातें लिखी हैं दूसरी तरफ यही शख्स अपनी ही पार्टी भाकपा को खोखला करने में लगा हुआ है। लखनऊ ज़िले का सदस्य होते हुये भी यही ज़िला इंचार्ज भी बना हुआ है तथा अपने गुरु को पर्यवेक्षक बनवा कर भिजवाया था तथा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को मखौल बना कर रख दिया था। यथा---
लखनऊ का 22वा ज़िला सम्मेलन :23 नवंबर 2014
("-- पार्टी संविधान की धारा 22 की उप धारा 9 (घ ) के अंतर्गत राज्य सम्मेलन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करना था जो वास्तव में नहीं हुआ।
-उप धारा 9 (ड़.) ज़िला हिसाब जांच आयोग की रिपोर्ट पर विचार करना और उसके संबंध में फैसले करना चाहिए था जो नहीं हुआ। कोई आय-व्यय विवरण प्रस्तुत ही नहीं किया गया था। 27 नवंबर 2011 के 21 वे सम्मेलन के समय रिपोर्ट न पेश करने के साथ आश्वासन दिया गया था कि बाद में ज़िला काउंसिल में पेश की जाएगी जो कि विगत तीन वर्षों में कभी भी नहीं प्रस्तुत की गई। इस बार न तो ऐसा कुछ भी बताया गया था न ही न बताने का कारण दिया गया था।
-ज़िला काउंसिल के निर्वाचन हेतु संविधान की धारा 16 की उप धारा (च) में वर्णित " गुप्त मतदान द्वारा तथा एक-एक वित्तरणशील वोट के तरीके से मत लिया जाएगा " की प्रक्रिया का अनुपालन न करके ज़िला काउंसिल के लिए प्रस्तवित 21 की संख्या को बढ़ा कर 23 कर के दो बढ़ाए हुये नामों को शामिल किया गया। एक स्थान रिक्त भी रखा गया।
-पार्टी संविधान की धारा 24 की उप धारा 3 (च ) का पिछली ज़िला काउंसिल में कभी भी पालन नहीं किया गया था-"ज़िले के आय-व्यय पर नियंत्रण रखना ")
इन साहब की मेहरबानी से लखनऊ में तीन वर्षों के दौरान 168 सदस्य पार्टी से अलग हो चुके हैं और अब भाजपा समर्थकों को भाकपा में भर कर यह जनाब भाकपा को ध्वस्त करने की प्रक्रिया को तेज़ करने लगे हैं। इनको व इनके गुरु को यदि उत्तर प्रदेश में ऐसी ही मनमानी छूट मिली रही तो ये लोग अपने मंसूबों में कामयाब भी हो सकते हैं। विगत में प्रदेश में भाकपा को दो-दो बार विभाजित कराने में इन दोनों की ही महती भूमिका रही है।
आज जब साम्राज्यवाद/सांप्रदायिकता देश की एकता को छिन्न-भिन्न करने की लगातार कोशिशों में जुटे हुये हैं 'एथीस्टवाद' के मकड़-जाल से बाहर निकल कर सांप्रदायिकता के आधार को समाप्त करने की नितांत आवश्यकता है। जनता के समक्ष सच्चाई बता कर ही हम कामयाब हो सकते हैं कि,:
परंतु इस सच्चाई को बताना इस शख्स और इस जैसे लोगों को अखरता व नागवार लगता है जिसका पूरा-पूरा लाभ सांप्रदायिक शक्तियों को मिलता है और वे पाखंड तथा ढोंग को ही 'धर्म' के नाम पर परोस कर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़्ती रहती हैं जो कि पूंजीवाद/साम्राज्यवाद का अभीष्ट है। अतः इस प्रकार 'एथीस्टवाद' ढोंग-पाखंड रूपी अधर्म व पूंजीवाद/साम्राज्यवाद का ही सहायक सिद्ध होता है।
एक ओर जहां यह शख्स भाजपा,उ प्र के प्रभारी ओम माथुर को प्रसन्न करने हेतु भाकपा को जन-प्रिय बनाने के मेरे सुझावों की भर्त्सना करता है वहीं दूसरी ओर कल्याण सिंह समर्थक व्यापारियों व हिन्दू परिषद के लोगों की भाकपा में घुसपैठ करा रहा है जैसा कि उपरोक्त तीनों फोटो से साफ ज़ाहिर होता है (डिस्ट्रीब्यूटर व हिन्दू परिषद के लोग इसी शख्स के संरक्षण वाले AISF, यू पी में सम्मानित पदों पर विराजे गए हैं )। ऐसे ही लोगों के लिए CPM नेता की पुत्री व निर्भीक पत्रकार सुश्री मनीषा पांडे जी ने लिखा है-
https://www.facebook.com/manisha.pandey.564/posts/10205667154182873
राइट-लेफ्ट होना और बात है और अच्छा इंसान होना बिलकुल दूसरी बात। वाम मार्ग से तनिक भी सो कॉल्ड विचलन देखकर आपका घर-खानदान, जीवन गालियों से तौल देने वाले वाम सिपाही भी बहुत क्रूर, तंगदिल मनुष्य हो सकते हैं। बल्कि हैं ही।
एक तरफ अपने फेसबुक स्टेटस द्वारा इसी शख्स ने लोगों को भ्रमित करने की बातें लिखी हैं दूसरी तरफ यही शख्स अपनी ही पार्टी भाकपा को खोखला करने में लगा हुआ है। लखनऊ ज़िले का सदस्य होते हुये भी यही ज़िला इंचार्ज भी बना हुआ है तथा अपने गुरु को पर्यवेक्षक बनवा कर भिजवाया था तथा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को मखौल बना कर रख दिया था। यथा---
लखनऊ का 22वा ज़िला सम्मेलन :23 नवंबर 2014
("-- पार्टी संविधान की धारा 22 की उप धारा 9 (घ ) के अंतर्गत राज्य सम्मेलन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करना था जो वास्तव में नहीं हुआ।
-उप धारा 9 (ड़.) ज़िला हिसाब जांच आयोग की रिपोर्ट पर विचार करना और उसके संबंध में फैसले करना चाहिए था जो नहीं हुआ। कोई आय-व्यय विवरण प्रस्तुत ही नहीं किया गया था। 27 नवंबर 2011 के 21 वे सम्मेलन के समय रिपोर्ट न पेश करने के साथ आश्वासन दिया गया था कि बाद में ज़िला काउंसिल में पेश की जाएगी जो कि विगत तीन वर्षों में कभी भी नहीं प्रस्तुत की गई। इस बार न तो ऐसा कुछ भी बताया गया था न ही न बताने का कारण दिया गया था।
-ज़िला काउंसिल के निर्वाचन हेतु संविधान की धारा 16 की उप धारा (च) में वर्णित " गुप्त मतदान द्वारा तथा एक-एक वित्तरणशील वोट के तरीके से मत लिया जाएगा " की प्रक्रिया का अनुपालन न करके ज़िला काउंसिल के लिए प्रस्तवित 21 की संख्या को बढ़ा कर 23 कर के दो बढ़ाए हुये नामों को शामिल किया गया। एक स्थान रिक्त भी रखा गया।
-पार्टी संविधान की धारा 24 की उप धारा 3 (च ) का पिछली ज़िला काउंसिल में कभी भी पालन नहीं किया गया था-"ज़िले के आय-व्यय पर नियंत्रण रखना ")
इन साहब की मेहरबानी से लखनऊ में तीन वर्षों के दौरान 168 सदस्य पार्टी से अलग हो चुके हैं और अब भाजपा समर्थकों को भाकपा में भर कर यह जनाब भाकपा को ध्वस्त करने की प्रक्रिया को तेज़ करने लगे हैं। इनको व इनके गुरु को यदि उत्तर प्रदेश में ऐसी ही मनमानी छूट मिली रही तो ये लोग अपने मंसूबों में कामयाब भी हो सकते हैं। विगत में प्रदेश में भाकपा को दो-दो बार विभाजित कराने में इन दोनों की ही महती भूमिका रही है।
आज जब साम्राज्यवाद/सांप्रदायिकता देश की एकता को छिन्न-भिन्न करने की लगातार कोशिशों में जुटे हुये हैं 'एथीस्टवाद' के मकड़-जाल से बाहर निकल कर सांप्रदायिकता के आधार को समाप्त करने की नितांत आवश्यकता है। जनता के समक्ष सच्चाई बता कर ही हम कामयाब हो सकते हैं कि,:
"समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग
कैसे हो सकता
है? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के
लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।
भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा
हैं।
इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।"
परंतु इस सच्चाई को बताना इस शख्स और इस जैसे लोगों को अखरता व नागवार लगता है जिसका पूरा-पूरा लाभ सांप्रदायिक शक्तियों को मिलता है और वे पाखंड तथा ढोंग को ही 'धर्म' के नाम पर परोस कर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़्ती रहती हैं जो कि पूंजीवाद/साम्राज्यवाद का अभीष्ट है। अतः इस प्रकार 'एथीस्टवाद' ढोंग-पाखंड रूपी अधर्म व पूंजीवाद/साम्राज्यवाद का ही सहायक सिद्ध होता है।
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