राज्यसभा के अस्तित्व पर बहस बेमानी
केसी त्यागी, वरिष्ठ जद-यू नेता First Published:28-06-2016 09:53:54 PMLast Updated:28-06-2016 09:53:54 PM
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा: वृद्धा न ते ये न वदन्ति
धर्मं।/ नासौ धर्मों यत्र न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम्।।
राज्यसभा के प्रवेश द्वार पर लिखा महाभारत का यह श्लोक कहता है कि जिस सभा में वृद्धजन (अनुभवी जन) नहीं, वह सभा नहीं; जो धर्म की बात न कहें, वे वृद्धजन नहीं; जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं और जो कपट से पूर्ण हो, वह सत्य नहीं। लेकिन विडंबना यह है कि आज देश में राज्यसभा के अस्तित्व पर ही प्रश्न उठाए जा रहे हैं।
किसी भी संघीय शासन में विधायिका का ऊपरी सदन सांविधानिक बाध्यता के चलते राज्य के हितों की रक्षा करने के लिए होता है। इसी सिद्धांत के चलते राज्यसभा का गठन हुआ है। राज्यसभा का गठन एक पुनरीक्षण सदन के रूप में हुआ है, जो लोकसभा द्वारा पास किए गए प्रस्तावों की समीक्षा करे। संविधान के अनुच्छेद-80 में राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 निर्धारित की गई है, जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं और 238 सदस्य राज्यों और संघ-राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं।
हालांकि, राज्यसभा के सदस्यों की वर्तमान संख्या 245 है, जिनमें से 233 सदस्य राज्यों और संघ राज्य-क्षेत्र दिल्ली व पुडुचेरी के प्रतिनिधि हैं और 12 राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाजसेवा जैसे क्षेत्रों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव होता है। ये 12 मनोनीत सदस्य संसद में विशेषज्ञों की कमी पूरी करते हैं।
संविधान से राज्यसभा को दो ऐसे विशेषाधिकार प्राप्त हैं, जो लोकसभा के पास भी नहीं हैं। अनुच्छेद-249 के अंतर्गत राज्यसभा संसद को राज्य सूची के अंतर्गत सूचीबद्ध किसी भी विषय पर कानून बनाने के लिए प्राधिकृत कर सकता है। केंद्र और राज्य, दोनों में ही समान नई 'ऑल इंडिया सर्विसेज' बनाने का अधिकार संसद को राज्यसभा की ही मंजूरी से मिल सकता है। यह बात सही है कि राज्यसभा का गठन ब्रिटेन के 'हॉउस ऑफ लॉर्ड्स' से प्रेरित होकर किया गया था, पर यह उसकी तरह कमजोर बिल्कुल नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि इसके सांविधानिक विशेषाधिकार ही देश में संघीय साम्यावस्था और संतुलन बनाए रखने में अब तक असाधारण भूमिका निभाते आए हैं।
मोदी सरकार ऐसी पहली सरकार नहीं है, जिसे राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण विभिन्न विधेयकों को पारित कराने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री ही ऐसे प्रधानमंत्री रहे हैं, जिन्हें अपने पूरे कार्यकाल के दौरान ऊपरी सदन में पूर्ण बहुमत प्राप्त रहा। ज्यादातर शासक दलों को राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। विपक्ष को भरोसे में न ले पाना यह सरकार की कमजोरी हो सकती है, लेकिन इस आधार पर किसी सदन को समाप्त करने का विचार अलोकतांत्रिक है। राज्यसभा वही काम कर रही है, जो उसे सौंपा गया था। किसी भी विधेयक के पास होने से पहले उस पर गहन चिंतन और वाद-संवाद होना चाहिए। संवाद-सहमति के माध्यम से कानून बनाए जाने चाहिए। इस संदर्भ में सरकार की भूमिका काफी अहम है और यह देखना उसकी जिम्मेदारी है कि किस प्रकार से हर पक्ष की जायज मांगों के आधार पर एक समावेशी विधेयक पास हो।
हमारे संविधान में 'चेक ऐंड बैलेंस' के सिद्धांत को आधार बनाया गया है। राज्यसभा को संविधान से मिला हुआ विशिष्ट दर्जा इसी का एक उदाहरण है। कुछ लोगों द्वारा केवल 245 सांसदों को राज्यसभा मान लेना उनके अल्प ज्ञान का सूचक है। भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यसभा देश के हर राज्य और उसकी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है। ऐसे में, इसे समाप्त करने की मांग उठाने वाले देश की संसद में राज्यों की अभिव्यक्ति को खत्म कर देना चाहते हैं। इस प्रकार की मांग अलोकतांत्रिक होने के साथ-साथ असांविधानिक भी है। जिन बीमारियों के आधार पर राज्यसभा के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़े किए जा रहे हैं, उनसे तो देश का हर संस्थान ग्रसित है। बाकी सदनों में तो हालत और भी खराब है। राज्यसभा में कुछ ही नाम सामने आए हैं, जिन्होंने इसकी गरिमा को ठेस पहुंचाई है।
लेकिन उन दलों का क्या, जो टिकट ही पैसे लेकर देते हैं? कई बार तो उनकी सरकार भी बनती है। तो क्या लोकसभा और विधानसभा समेत ऐसी सभी संस्थाओं को भंग करके देश में संसदीय प्रणाली को ही खत्म कर देना चाहिए? या फिर समस्या का निदान निकालने की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए? आर्थिक और सामाजिक विधेयकों को, जिनका कि समाज व देश की उन्नति में दूरगामी असर पड़ सकता है, सिर्फ राजनीतिक विरोध के कारण बाधित करना उचित नहीं है। लेकिन जिसे बदलने की जरूरत है, वह तंत्र नहीं, बल्कि पक्षपातपूर्ण व परस्पर टकराव की राजनीति है।
विगत दिनों हुए राज्यसभा सीटों के चुनाव में विधायकों के क्रय-विक्रय, क्रॉस वोटिंग और वोट को खराब करने जैसी अनियमितताएं उजागर हुई हैं। इससे यह साफ हुआ है कि अवैध पूंजी और काले धन के इस्तेमाल से राजनीति की नैतिक पूंजी का तेजी से क्षरण हो रहा है। यह एक गंभीर विषय है, इस पर विस्तृत चर्चा होनी चाहिए। राजनीति को साफ करने के लिए सुधार के प्रयास तेज किए जाने चाहिए। इसके विपरीत देखने में आ रहा है कि राजनीतिक मौकापरस्ती की वजह से हर दिन किसी-न-किसी बहाने से राज्यसभा के औचित्य पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। राज्यसभा की कार्य-प्रणाली पर बहस होनी चाहिए, बदलते राजनीतिक परिवेश में इसकी बदलती भूमिका पर भी चर्चा होनी चाहिए। लेकिन जो लोग इसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं, क्या वे लोग किसी तरह की रचनात्मक बहस करने को तैयार हैं? या फिर इसी तरह की वाक्पटुता चलती रहेगी? चुनाव सुधार राजनीतिक दलों व चुनाव आयोग के बीच का विषय है। लेकिन इसके नाम से किसी संस्था को कैसे कठघरे में खड़ा किया जा सकता है? कुछ लोगों की गलतियों के लिए पूरी संस्था जिम्मेदार नहीं हो सकती।
हमारी संसद की पूर्णता दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) से है और किसी एक के साथ छेड़छाड़ करने का विचार रखना भी वास्तव में संविधान की आत्मा से खिलवाड़ होगा। संविधान की आत्मा को अक्षुण्ण रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट को संविधान से कई विशेषाधिकार प्राप्त हैं। उसी प्रकार, देश के संघीय ढांचे की आत्मा को बनाए रखने की जिम्मेदारी संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा को सौंपी है, जिसे उसने अभी तक बखूबी निभाया है और उम्मीद यही है कि आगे भी वह इसका ईमानदारी से निर्वाह करती रहेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-meaningless-debate-on-rajya-sabha-existence-541904.html
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।