सी.पी. भांबरी जिस राष्ट्रवाद को लेकर स्वाधीनता संग्राम विकसित हुआ वह बहुलतावादी और बहु-सांस्कृतिक था, साथ ही वह धर्मनिरपेक्षता पर आधारित था रक्षा समेत किसी भी मामले में सरकार के कामकाज पर सवाल खड़े करना विपक्ष की जिम्मेदारी है राष्ट्रवाद को चुनावी मुद्दा बनाना ठीक नहीं
पुलवामा में हुए आतंकी हमले और उसके बाद बालाकोट में भारतीय वायुसेना की एयर स्ट्राइक ने पूरे देश में राष्ट्रभक्ति की एक लहर पैदा कर दी है। इसके चलते राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा सबसे ऊपर हो गया है। लेकिन चुनावी माहौल ने इसे राजनीतिक जामा भी पहना दिया है। बालाकोट में मारे गए आतंकियों की संख्या सरकारी तौर पर नहीं बताई गई थी, मगर सत्तारूढ़ दल के वरिष्ठ नेताओं ने इसे 250 और कहीं-कहीं इससे भी ऊपर पहुंचा दिया। विपक्षी दलों ने इसका प्रतिवाद करना शुरू किया और संख्या का प्रमाण मांगा। कुछ अपोजिशन पार्टियों ने इसका प्रतिवाद करते हुए सर्जिकल स्ट्राइक की असलियत पर भी प्रश्न खड़े करने शुरू कर दिए। उन्होंने पुलवामा को खुफिया तंत्र की असफलता बताते हुए इस संबंध में गवर्नमेंट से वस्तुस्थिति स्पष्ट करने की मांग की। • संविधान का स्वरूप : अपोजिशन की उलझन दूर करने के बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी रैलियों में पाकिस्तान और विपक्षी दलों को एक ही तराजू में तौल दिया और कांग्रेस पार्टी पर राष्ट्रीय हितों से समझौता करने का आरोप लगाया। यहां तक कहा जाने लगा कि कांग्रेस और पाकिस्तान दोनों एक ही भाषा में बात कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि सत्तारूढ़ और विपक्षी, दोनों ही राजनेता अपनी-अपनी मर्यादा भूल गए। राष्ट्रीय सुरक्षा और संकट की घड़ी में इस तरह का संवाद अशोभनीय ही कहा जा सकता है और निस्संदेह इससे सेना का मनोबल गिरता है। बालाकोट के बाद प्रधानमंत्री ने यह दावा करना शुरू किया कि देश उनके हाथों में सुरक्षित है। बीजेपी और उनके सहयोगी संगठनों ने इसे एक अतिरेक तक पहुंच दिया और ‘मोदी है तो मुमकिन है ’ का नारा देकर ऐसा माहौल बनाया कि मोदी अगर प्रधानमंत्री बने रहें तो सारे असंभव काम संभव हो जाएंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार और सेना ने पुलवामा के आतंकी हमले के बाद बहुत ही सफलतापूर्वक कार्य किया। आतंक के मामले में उन्होंने एक कारगर स्टैंड लिया है जिसे दुनिया भी मान रही है। इस मसले पर आज हमें वैश्विक समर्थन मिल रहा है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि विपक्ष सरकार से सवाल पूछना छोड़ दे। विपक्ष से प्रश्न पूछने का अधिकार छीनना उसके अस्तित्व पर संकट पैदा कर देगा, जो किसी भी जनतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। सरकार को नहीं भूलना चाहिए की उसे अपने हर काम को लेकर पूछे गए सवाल का जवाब विपक्ष को देना पड़ेगा। पुलवामा के आतंकी हमले के पीछे यदि कोई सुरक्षा चूक है तो सरकार को इसे बताना होगा। सवाल पूछने वालों को पाकिस्तान का हिमायती कह देने से काम नहीं चलेगा। प्रजातंत्र में उत्तरदायित्व से नहीं बचा जा सकता। यहां यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि न तो सवाल पूछने वाला विपक्ष राष्ट्रविरोधी है, न ही हिंदूराष्ट्र-वादी राष्ट्रवाद के एकमात्र संरक्षक हैं। पहले तो यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या हिंदू महासभा की भूमिका बहुत खास नहीं थी। इस स्थिति में उन्हें भारतीय राष्ट्रवादी तो कतई नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह कि जिस अर्थ में भारतीय राष्ट्रवाद स्वाधीनता आंदोलन के दौर में विकसित हुआ, वही हमारे संविधान का आधार बना। संविधान की प्रस्तावना से यह साफ हो जाता है। परंतु संघ का राष्ट्रवाद इससे अलग था। अर्थात जिस राष्ट्रवाद को लेकर स्वाधीनता संग्राम विकसित हुआ वह बहुलतावादी था, बहु-सांस्कृतिक था, साथ ही धर्मनिरपेक्षता पर आधारित था। उसमें किसी भी प्रकार के धार्मिक, सांप्रदायिक, क्षेत्रवादी आग्रह की कोई जगह नहीं थी। संघ की विचारधारा इससे अलग है। इसे केवल संयोग नहीं कहा जा सकता है कि उसके लिए पाकिस्तान का विरोध राष्ट्रवाद की मूल संकल्पना का अंग है। पर क्या शत्रु राष्ट्र और देशवासियों के बीच कभी कोई तुलना की जा सकती है / यदि ऐसा नहीं है तो सवाल पूछने वाले विपक्ष की तुलना पाकिस्तान से हरगिज नहीं की जानी चाहिए। इतना ही नहीं, भारत में सेना हमेशा राजनीति निरपेक्ष रही है। यह इस देश के मजबूत प्रजातंत्र की देन है। लेकिन हाल के घटनाक्रम में सेना को भी घसीटने का काम हो रहा है। यहां सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों ही कठघरे में खड़े दिखते हैं। सर्जिकल स्ट्राइक्स पहले भी हुई हैं पर सरकारों ने यह कार्य सेना पर छोड़ दिया था। अब सरकारें इसका श्रेय लेने लगी हैं। यह कोई अच्छी बात नहीं कही जा सकती। नरेंद्र मोदी सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुनाव प्रचार करते हुए जिस राष्ट्रवाद की बात कर रहे हैं, वह संघ परिवार का राष्ट्रवाद है। इसमें भावनात्मक आग्रह तो है ही, भावुकता का विशेष स्थान भी है। सबको साथ लेकर चलना इसकी प्रवृत्ति में नहीं है। विरोधियों को सम्मान देते हुए उन्हें साथ लेकर चलने का भाव इसमें नहीं है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राष्ट्रवाद के भीतर जो भी भावुकता थी, वह स्वाधीनता के साथ ही राजनीतिक सहयोग की शक्ल लेने लगी थी। मगर आज का राष्ट्रवादी मुहावरा भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में राष्ट्रवाद के सदियों में अर्जित रूप से पलायन है। कई अर्थों में यह पीछे की ओर ले जाने वाला कदम है। • निशाने पर विपक्ष :
राष्ट्रीय संकट की घड़ी में अब तक के सभी प्रधानमंत्रियों ने विपक्ष को साथ रखकर कार्य किया है। आम सहमति बनाने की कोशिशें की हैं। 1965 के पाकिस्तान युद्ध के समय लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान ’ का नारा बुलंद कर देश को अपने साथ खड़ा किया था। लेकिन आज पहली बार विपक्ष की तुलना भारत के मुख्य विरोधी देश के साथ की जा रही है। राष्ट्रवाद के मुद्दे पर देश को विभाजित किया जा रहा है। जैसा कि कहा जा चुका है, इसके लिए विपक्ष की कुछ बातें भी कम जिम्मेदार नहीं हैं, लेकिन सरकार उनकी अनदेखी कर सकती थी।
वर्चस्व का औजार बना इस्लामोफोबिया : शिवप्रसाद जोशी क्राइस्टचर्च का हमलावर वही बोल रहा है जो यूरोप में पिछले कुछ सालों में उभरे राष्ट्रवादी कह रहे हैं और अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप दोहरा रहे हैं।
न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में पिछले दिनों हुए आतंकी हमले से जाहिर है कि यूरोप-अमेरिका में उभरे धुर दक्षिणपंथ का संक्रमण अब ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड तक हो चुका है। क्राइस्टचर्च की दो मस्जिदों पर हमला करने वाला मुख्य हमलावर 28 वर्षीय ब्रैंटन टैरेंट इस्लामोफोबिया का शिकार है और विशुद्ध श्वेतवाद को पु्नर्स्थापित करना चाहता है। उसका रास्ता भले ही आतंक का हो, पर वह वही सब बोल रहा है जो पिछले यूरोप में कुछ सालों में उभरे राष्ट्रवादी कह रहे हैं और अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप दोहरा रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि टैरेंट अपना आदर्श ट्रंप को ही मानता है। ब्रैंटन टैरेंट जैसे युवा पश्चिम के नव वर्चस्ववादी अभियान की उपज हैं। आज तेल और खनिज को हड़पने वाली, वर्चस्व के उन्माद में धंसी इस्लामोफोबिक सोच ने पश्चिम एशिया और अफ्रीकी भूभाग को धूल, खून और चीखों से सना एक बवंडर बना छोड़ा है। दुनिया के परम प्रतापी देशों अमेरिका और रूस के अलावा आज के और भविष्य के अभियानों में फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देश भी शामिल हैं। हथियार लॉबियां अपने-अपने उत्पादन क्षेत्रों में मुस्तैदी से मुस्करा रही हैं। • भय का माहौल : इस्लाम के डर को इतिहास के मलबों से ढूंढकर प्रचारित किया जा रहा है। लगातार बमबारी के शिकार सीरिया के आम जन धूल और बमों की आवाजों की तरह जहां-तहां बिखरे हुए हैं। जान बचाकर कुछ लोग भूमध्यसागर पार यूरोपीय देशों में अनिश्चित भविष्य और धुर राष्ट्रवादी खतरों के बीच शरणार्थी के रूप में झूल रहे हैं। शरणार्थियों के खिलाफ इन देशों में एक भयानक माहौल बन चुका है। नव-दक्षिणपंथी ताकतें सरसराने लगी हैं और उन्होंने आने वाले खतरों और दबावों के बारे में जनता को भ्रमित करना शुरू कर दिया है। जर्मनी, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, स्वीडन, इटली और यूरोप में हर जगह नव-फासीवादी धुआं फैल चुका है। सर्बिया से होते हुए जमीन के रास्ते हंगरी में दाखिल शरणार्थियों की शामत है। उनके खिलाफ तो बाकायदा एक तरह का जनमत बनाया गया है। हंगरी के संसदीय चुनावों में कट्टरपंथी नेता विक्टर ऑर्बन की जीत हुई है जो शरणार्थियों के खिलाफ रहे हैं। हालांकि यह भी सही है कि उनकी जीत से जनता का एक बड़ा हिस्सा खफा ही है, लेकिन ऑर्बन के रूप में जो एक लक्षण वहां पनप रहा है, उससे मुकाबले की चुनौती कड़ी है। पिछले दिनों जर्मनी में नई गठबंधन सरकार बनी तो उसके गृह मंत्री होर्स्ट सीहोफेर के बयानों में मुसलमानों के प्रति कड़वाहट ही नजर आई। उनका कहना है कि इस्लाम का जर्मनी से कोई ताल्लुक नहीं है। उन्होंने तो और आगे बढ़कर मुस्लिम देशों से आए शरणार्थियों को वापस भेजने की प्रक्रिया शुरू करने की बात तक कह दी। मर्केल जैसी उदारवादी और समतावादी नेता की सरकार का एक सीनियर मंत्री जब ऐसा बयान दे तो समझा जा सकता है कि एकीकृत यूरोप (यूरोपीय संघ) में राजनीतिक-सांस्कृतिक रूप से इस सबसे ताकतवर और प्रभावशाली देश में दक्षिणपंथ, नव-फासीवाद और धुर राष्ट्रवादियों की कितनी तीव्रता से ‘घर वापसी’ हो रही है। इन विचारों के विरोधी नेताओं को लगने लगा है कि इन पार्टियों की सफलता का रहस्य इनके पक्ष में बनाया जा रहा शरणार्थी विरोधी जनादेश है, और इस कथित जनादेश की अवज्ञा करना उनके अपने राजनीतिक भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा। उधर चांसलर मर्केल ने सफाई दी कि ‘यूं तो हमारी विरासत ऐतिहासिक रूप से ईसाइयत वाली है लेकिन जर्मन मूल्यों और जर्मन वैधानिक ढांचे के मद्देनजर इस्लाम भी जर्मनी का हिस्सा है।’ जर्मनी में धुर दक्षिणपंथ का उभार पिछले करीब डेढ़ दशकों में हो चला था लेकिन उसकी उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष संरचना पर पहली बड़ी चोट पिछले साल ही पड़ी जब धुर दक्षिणपंथियों की पार्टी आल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी), जर्मन संसद (बुंडेश्टाग) में दूसरे नंबर पर आ गई और इसी के चलते मर्केल अपने बूते सरकार नहीं बना पाईं। लंबी माथापच्ची और कड़े अवरोधों के बाद उनकी पार्टी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन और सोशल डेमोक्रेट्स का चिर-परिचित महागठबंधन फिर से अस्तित्व में आ गया लेकिन इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि अंदर ही अंदर इसमें कुछ खालीपन और डर भी दिख रहा है और गठबंधन का मनोबल काफी गिरा हुआ लगता है। उधर इटली के चुनावों में एकीकृत यूरोप विरोधी दक्षिणपंथी दल ‘फाइव स्टार मूवमेंट (एम5एस) सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनकर उभरा है। फ्रांस में धुर राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी शक्तियां पहले से सक्रिय हैं और आतंकी हमलों के बाद से वह यूरोप में इस्लामोफोबिया का बड़ा केंद्र बन चुका है। ब्रिटेन तो यूरोप से खुद को अलग कर ही चुका है। अन्य समुदायों और शरणार्थियों के इंटीग्रेशन को लेकर सत्तारूढ़ कंजरवेटिव दल का नजरिया किसी से छिपा नहीं है। • नया विकल्प चाहिए : दुर्भाग्य से वैश्विक इस्लामोफोबिया भारत में भी पैर पसार रहा है। दक्षिणपंथी-फासिस्ट ताकतें लगातार अल्पसंख्यकों के खिलाफ दुष्प्रचार में लगी हैं और समाज में भय का माहौल बना दिया गया है। आश्चर्य यह है कि अपने को प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष कहने वाली पार्टियां भी उनका साथ छोड़ रही हैं। पिछले दिनों कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि बीजेपी ने यह भ्रम फैलाकर कि कांग्रेस मुस्लिम पार्टी है, बहुत नुकसान पहुंचाया। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी अपनी इस ‘पहचान’ से खासी परेशान रही हैं और अपनी लालसाओं के लिए इससे तौबा कर बैठी हैं। कौन कितना मुसलमान विरोधी हो सकता है, यह दिखाने की बेताबी है। सच कहा जाए तो मानवीय करुणा, गरिमा और आत्मसम्मान की लड़ाई को पीछे धकेलने की कोशिशों में सबके हाथ रंगे हैं। अल्पसंख्यक एक के बाद एक राजनीतिक दलों से झटका खा रहे हैं। ऐसे में एक नई वैकल्पिक राजनीतिक ताकत की जरूरत है जो मनुष्यता पर मंडरा रहे खतरे से निपटने के लिए प्रतिबद्ध हो।
अरुण जेटली अग्रिम पंक्ति के भाजपा नेताओं में पहले थे जिन्होंने नरेंद्र मोदी में 'पीएम मेटेरियल' के दर्शन किये थे। उधर, कारपोरेट सेक्टर में अनिल अंबानी पहले उद्योगपति थे जिन्होंने सार्वजनिक मंच से यह कहा था कि उन्हें नरेंद्र मोदी में भारत का भविष्य नजर आता है। मौका था 2007 में हुए 'वाइब्रेंट गुजरात' नाम के सम्मेलन का, जिसमें देश-विदेश के बहुत सारे उद्योगपतियों ने शिरकत की थी। छोटे अंबानी के सुर में सुर मिलाते हुए उसी मंच से तब कई अन्य उद्योगपतियों ने भी मोदी के प्रधानमंत्री बनने की अभिलाषा व्यक्त की थी। यद्यपि, 2006-07 के उस दौर में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए 1 का सूरज भारत के राजनीतिक आकाश पर चमक रहा था और विकल्प की तलाश की कोई बेचैनी देश की जनता में नहीं थी। अभी इस शासन का तीसरा वर्ष ही बीत रहा था और यूपीए चेयर पर्सन के रूप में सोनिया गांधी आम लोगों से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण कदमों को नापने की कोशिशों में लगी थी। रोजगार गारंटी योजना और सूचना का अधिकार जैसे मुद्दे कानून का रूप ले चुके थे और शिक्षा के अधिकार को लागू करने की तैयारियां चल रही थीं। इधर, निजी और विदेशी निवेश बढाने के प्रयास भी जारी थे और सार्वजनिक इकाइयों के विनिवेशीकरण के माध्यम से कारपोरेट सेक्टर के लिये खेल के मैदान का क्षेत्रफल लगातार बढाया जा रहा था। गठबंधन सरकार की मजबूरियों के बावजूद मनमोहन आर्थिक नीतियों के स्तर पर अपनी किये जा रहे थे और कुछ गठबंधन सहयोगियों के द्वारा प्रतीकात्मक विरोध के अलावा कोई प्रभावी व्यवधान नहीं डाला जा रहा था। यानी, कारपोरेट सेक्टर के लिये 2006-07 का दौर आमतौर पर 'ऑल इज वेल' का था। राजनीति उनके अनुकूल थी और राजनेता उनके हितों के साथ थे। लेकिन, विजनरी होना कारपोरेट प्रभुओं की पहली विशेषता होती है और भविष्य की राजनीति की पदचाप वे राजनीतिक विश्लेषकों से भी पहले सुनने-समझने लगते हैं। राजनीति को नियंत्रित-संचालित करते रहने के लिये भविष्य की पदचाप को सुनने की योग्यता पहली शर्त्त है। फिर...यह भी एक तथ्य है कि कारपोरेट चाहे जिसे सत्ता में स्वीकार करे, लेकिन तीसरा मोर्चा नामक राजनीतिक स्ट्रक्चर को वह किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करना चाहता। मनमोहन के बाद किसी तीसरे मोर्चे की संभावना को खत्म करने के लिये भी कारपोरेट को किसी नायक की जरूरत थी। ऐसा नायक, जो जनता के दिलों पर राज करे लेकिन जनता के हितों की कीमत पर उनके हितों की रखवाली करे। भाजपा के शीर्ष पर उभर रहे खालीपन को कारपोरेट प्रभु भांप रहे थे। वाजपेयी नेपथ्य में जा चुके थे, जिन्ना प्रकरण के बाद आडवाणी स्वीकार्यता के लिये एक नए संघर्ष में उलझ चुके थे और 2006 के मई में प्रमोद महाजन की हत्या ने भाजपा के शीर्ष को असमंजस भरी शून्यता से भर दिया था। यद्यपि, 2009 में आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने चुनाव में भाग लिया और बुरी तरह मुंह की खाई। भाजपा की इस पराजय ने शीर्ष मंच पर मोदी को लाने की कवायदों को नई ऊर्जा दे दी। 2009 में यूपीए 2 की शुरुआत के साथ ही एक अलग स्तर पर भी खेल शुरू हुआ। विकल्प के रूप में नरेंद्र मोदी की चर्चा। उम्र के नवें दशक में पहुंचे, अपनी निर्णायक परीक्षा में विफल रहे आडवाणी किनारे किये जाने लगे और तारणहार के रूप में 'मोदी-मोदी' का जाप शुरू हो गया। विरोधाभासी गठबंधन की उलझनों में घिरे मनमोहन की सीमाएं थीं जो यूपीए 2 में अधिक स्पष्ट होने लगी। उनकी सौम्यता को उनकी कमजोरी के रूप में प्रचारित किया जाने लगा और मीडिया, जिसका मालिकाना हक कुछ खास हाथों में सिमटता जा रहा था, उन्हें एक कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में दिखाने की हर संभव कोशिश करने लगा। तब, जबकि हाल में हुए अमेरिकी परमाणु समझौते में उन्होंने अपनी सैद्धांतिक और वैयक्तिक दृढ़ता का अहसास देश को कराया था। यूपीए 2 सरकार के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के नए-नए आरोप रोजाना की खबरों में शामिल होने लगे जिनमें प्रमुख था 1 लाख 76 हजार करोड़ का वह दूर संचार घोटाला, जिसके होने न होने पर बहस अब तक जारी है। निस्संदेह...इन आरोपों के कोलाहल में सरकार दिशाहीन सी दिखने लगी और अधिकांश अवसरों पर मनमोहन की चुप्पी ने उनके विरोधियों को उन्हें 'मौनमोहन' का विशेषण देने की सुविधा प्रदान की। नरेंद्र मोदी के लिये पिच तैयार करने वालों की सहूलियत बढ़ती जा रही थी। लोकतांत्रिक भारत के इतिहास में किसी एक नेता को शीर्ष पद तक लाने के लिये इतनी सुविचारित योजनाओं, इतने षड्यंत्रों और व्यापक पैमाने पर इतने बहुआयामी प्रचार का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। अन्ना आंदोलन इन्हीं षड्यंत्रों की एक महत्वपूर्ण कड़ी था जिसने मनमोहन सरकार को बदनाम करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई। यद्यपि, इस आंदोलन का मूल स्वर भारतीय राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र में ऊपर से नीचे तक समाए भ्रष्टाचार के वायरस के विरोध का था, लेकिन इसका तात्कालिक और निर्णायक, दोनों प्रहार मनमोहन सरकार को ही झेलना पड़ा। "....मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, अब तो सारा देश है अन्ना..." के नारे लगाते, अन्ना टोपी पहने, हाथों में जलते कैंडिल थामे जुलूस की शक्ल में देश के नगरों-महानगरों की सड़कों पर निकले मध्यवर्ग की उम्मीदों को कारपोरेट संपोषित मीडिया ने बड़ी सफाई से नरेंद्र मोदी के साथ जोड़ना शुरू कर दिया। वही मीडिया, जो 2002 के गुजरात दंगों के बाद मोदी को संदेह भरी नजरों से देखता रहा था। लेकिन, एक दशक बीतते न बीतते मीडिया के स्वर पर मालिकान के राजनीतिक-आर्थिक हित पूरी तरह हावी हो चुके थे और संदेहों का स्थान समर्थन ने ले लिया था। 2012 के गुजरात विधान सभा चुनाव में मोदी की लगातार तीसरी जीत ने योजनाकारों को उत्साह से भर दिया और अब निर्णायक कदम बढ़ाने का वक्त आ चुका था। लंबे समय से अरुण जेटली भाजपा की अंदरूनी राजनीति में मोदी के लिये बैटिंग करते रहे थे। 2009 में आडवाणी की हार के बाद जेटली की सक्रियता मोदी के लिये वरदान साबित हो रही थी क्योंकि यह जेटली ही थे जो भाजपा के शीर्ष राजनीतिक कमान और कारपोरेट के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी थे। यह कोई छुपा रहस्य नहीं है कि एक सफल और बड़े वकील के रूप में अरुण जेटली कोर्ट में बड़े कारपोरेट घरानों का पक्ष रखते रहे हैं। मन और आत्मा से वे कई कारपोरेट घरानों के हितैषी रहे हैं और राजनीतिक मंच पर निरन्तर बढ़ते उनके कद का एक बड़ा कारण कारपोरेट समुदाय का उनके प्रति समर्थन भी रहा है। बहरहाल...नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए...और पूरी धज से बने। उनके चुनाव प्रचार का वितान जितना व्यापक था उतना अतीत में कभी नहीं देखा गया था। कारपोरेट ने खुल कर उनका साथ दिया और उन्होंने भी खुल कर...प्रायः निर्लज्ज बन कर उद्योगपतियों का बहुआयामी सहयोग लिया। वर्षों से किये गए प्रयत्नों का पुरस्कार जेटली को भी मिला...जो मिलना ही था। अमृतसर से लोकसभा का बहुचर्चित चुनाव हारने के बावजूद उन्हें मोदी सरकार में नम्बर टू की जगह और वित्त मंत्री की हैसियत दी गई। अरुण जेटली का वित्त मंत्री बनना मोदी का उनके प्रति विश्वास से अधिक कारपोरेट के समर्थन का परिणाम था। वे भारत सरकार में कारपोरेट के प्रमुख प्रतिनिधि बने और अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने इस प्रतिनिधित्व के प्रति निष्ठा कायम रखी। उनकी कारपोरेट हितैषी नीतियों से आम लोगों में मोदी सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ती गई लेकिन वे अपने पथ पर अविचलित रहे। यहां तक कि मोदी और भाजपा का मुखर समर्थक मध्य वर्ग भी नाराज होने लगा, लेकिन जेटली कारपोरेट के प्रति अपनी निष्ठा से टस से मस नहीं हुए। आखिर वे जनता के नहीं, कारपोरेट के वित्त मंत्री ही तो थे और अपनी यह असलियत वे सबसे अच्छी तरह जानते रहे। इसलिये, सार्वजनिक मंचों पर अपनी जन विरोधी नीतियों के बचाव के लिये उन्हें निर्लज्ज होने में भी कभी गुरेज नहीं हुआ। यद्यपि, अपनी इस निर्लज्जता को उन्होंने अपनी वाकपटुता से ढकने की हर संभव कोशिश हमेशा की। भाजपा के नीति निर्धारण समूह के प्रमुख सदस्य के रूप में जेटली को पता था कि अगले आम चुनाव में आर्थिक मुद्दे नहीं, भावनात्मक मुद्दे ही सामने लाए जाएंगे और तब जो कोलाहल मचेगा उसमें पांच वर्षों तक कारपोरेट हितों के लिये की गई उनकी जनविरोधी कवायदों की कोई चर्चा भी नहीं होगी। नरेंद्र मोदी का कार्य काल पूरा होने वाला है। अगले चुनाव के लिये उनकी मनमाफिक पिच बन कर तैयार है। जनाकांक्षाओं के संदर्भ में उनकी विफलता इतिहास में दर्ज हो चुकी है लेकिन, जैसा कि बहुत पहले से बहुत सारे लोग कहते रहे हैं, अपनी विफलताओं को वे धर्म और राष्ट्र के प्रतिगामी विमर्शों के कुहासे में धकेलने की पूरी कोशिश करेंगे। जाहिर है, लोगों की आशंकाएं सही साबित हो रही हैं। मोदी फिर से अपने रंग में हैं। शहीद होते सैनिकों की संख्या बढ़ रही है, विधवाओं और अनाथ हुए बच्चों के करुण क्रंदन से माहौल का सीना चाक हो रहा है...और उसी अनुपात में मोदी की राजनीति में अचानक से चमक और गतिशीलता बढ़ गई है। मंजर बदल चुका है। बढ़ती बेरोजगारी, नोटबन्दी के हाहाकारी दुष्प्रभाव, विकास दर के भ्रामक आंकड़े, संस्थाओं की दुर्गति, अच्छे दिनों का खोखलापन...ये सारे मुद्दे पीछे छूट चुके हैं। सामने है भ्रामक राष्ट्रवाद के उन्माद का लहराता महासागर...जो मनुष्यता को लीलने के लिये तैयार बैठा है, जो आमलोगों के जीवन से जुड़े तमाम जरूरी सवालों को अपनी लहरों के शोर में गुम करता जा रहा है। अरुण जेटली अपनी भूमिका निभा चुके हैं। मोदी अपनी अगली भूमिका के लिये कमर कस रहे हैं। लेकिन, इस देश की जो संस्कृति रही है, जो समाजशास्त्र रहा है, वह मोदी के अगले कार्यकाल की अभिलाषा के सामने बड़ी चुनौती बन सकता है। आखिर, देश बहुत बड़ा है और भाजपा ब्रांड राष्ट्रवाद का प्रवक्ता बना हिन्दी पट्टी का सवर्ण उच्च और मध्य वर्ग, जो अपनी मुखरता और सामाजिक प्रभुत्व के कारण मोदी समर्थक माहौल का निर्माता नजर आ रहा है, की चुनावी औकात सीमित है। हो सकता है, नरेंद्र मोदी फिर सत्ता में आ जाएं, लेकिन कारपोरेट की बंधक बनी रही उनकी राजनीति ने, झूठ को सच बना कर गाल बजाने की उनकी शैली ने, आम लोगों की आकांक्षाओं के प्रति द्रोही उनकी रीतियों-नीतियों ने भावी भारत की राजनीति में भाजपा की राजनीतिक संभावनाओं को कितना आघात पहुंचाया है, यह उनके विचारक आज नहीं तो कल, स्वयं विचार करेंगे। जिस संगठन को गर्व रहा है कि वह व्यक्ति केंद्रित नहीं विचार केंद्रित है, उस पर मोदी-शाह की जोड़ी का एकछत्र नियंत्रण संगठन के व्यक्ति केंद्रित हो जाने का सबूत देता है। यह संगठन के लिये कितना नुकसानदेह साबित होगा, इतिहास उन्हें बताएगा। आज मोदी हैं, कल नहीं रहेंगे, लेकिन भाजपा को रहना है। सवाल यह है कि मोदी कैसी भाजपा को छोड़ कर जाएंगे और फिर से उठने के लिये भाजपा को कितनी तपस्या करनी होगी, कितना प्रायश्चित करना होगा? एक विफल प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की विरासत भाजपा के लिये भारी बोझ साबित होगी लेकिन उससे भी अधिक चुनौतीपूर्ण सवाल भाजपा के सामने मोदी की लफ्फाजी भरी राजनीतिक शैली को ले कर होगा। इतिहास बहुत निर्मम होता है और वह व्यक्ति मोदी से अधिक सवाल भाजपा नामक संगठन से करेगा। इतना तय है कि अब भाजपा गिरेगी तो उसके लिये फिर से उठना बिल्कुल आसान नहीं होगा, क्योंकि मोदी ने देश का नुकसान तो किया ही है, एक संगठन के रूप में भाजपा का बहुत नुकसान कर दिया है। उन्होंने दिखाया है कि अपने दम पर बहुमत लाने पर भाजपा के शासन और उसकी राजनीति की यही शैली होगी। जाहिर है, इस देश में शासन की यह शैली नहीं चल सकती। इन अर्थों में, मोदी राज ने भाजपा को राजनीतिक और वैचारिक रूप से एक्सपोज करके रख दिया है।