Sunday, July 31, 2011

मुंशी प्रेमचंद -जयंती पर स्मरण ------ विजय राजबली माथुर



लमही (वाराणासी)मे 31 जूलाई 1880 को जन्मे स्व.धनपत राय श्रीवास्तव जो प्रारम्भ मे धनपत राय के नाम से उर्दू मे लिखा करते थे ;मुंशी प्रेमचंद के नाम से हिन्दी साहित्य मे अमर कथाकार हैं । स्व .अमृत राय और स्व .धरम वीर भारती (धर्मयुग के सम्पादक भी रहे) नामक उनके दो पुत्रों ने भी हिन्दी साहित्य मे अपना अमिट स्थान बनाया है । प्रेमचंद जी ने 'सेवा सदन','रंग भूमि','गोदान','गबन'आदि कई उपन्यास और सैंकड़ों कहानियाँ लिखी हैं । आपकी रचनाओं मे भारत के दरिद्र किसानों का सजीव चित्रण किया गया है । भाषा आपकी सरल और प्रवाह बद्ध है ।

1969 -71 मे बी .ए.के कोर्स मे गबन उपन्यास मेरठ कालेज ,मेरठ मे पढ़ा था । स्वाधीनता आंदोलन मे आमजन की भागीदारी का बड़ा ही मर्मांतक विवेचन प्रेम चंद जी ने इसमे प्रस्तुत किया है । शुरुआत  मे 'जालपा' नामक बच्ची के गहनों के प्रति लगाव से उपन्यास चला है और उसके इसी लगाव के कारण  बाद मे उसके पति को फरार होकर कलकत्ता जाना तथा पुलिस के चंगुल मे फंस कर क्रांतिकारियों के विरुद्ध गवाही देना पड़ा है । परंतु जालपा ने अपने पति रमानाथ के पथ-भ्रष्ट होने पर उसकी आँखें खोलने के लिए उसकी गवाही पर फांसी की सजा प्राप्त दिनेश की वृदधा माँ,पत्नी,बच्चों की खूब सेवाकी और उसे घेरने हेतु लगाई गई वेश्या  'ज़ोहरा' का भी हृदय परिवर्तन कर दिया । अन्ततः जालपा का त्याग और मेहनत रंग लायी एवं दिनेश तथा रमानाथ दोनों ही बरी हो गए । प्रेमचंद जी ने सफाई पक्ष के वकील की जुबानी 'गबन ' मे जो चित्रण किया है ,उसका अवलोकन करें -

"फिर रमानाथ के पुलिस के पंजे मे फँसने,फर्जी मुखबिर बनने और शहादत देने का जिक्र करके उसने कहा-

अब रमानाथ के जीवन मे एक नया परिवर्तन होता है ,ऐसा परिवर्तन जो एक विलासप्रिय,पद लोलुप युवक को धर्मनिष्ठ और कर्तव्यशील बना देता है । उसकी पत्नी जालपा,जिसे देवी कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी,उसकी तलाश मे प्रयाग से यहाँ आती है और यहाँ जब उसे मालूम होता है कि रमा एक मुकदमे मे पुलिस का मुखबिर हो गया है,तो वह छिप कर उससे मिलने आती है । फाटक पर संतरी पहरा दे रहा है । जालपा को पति से मिलने मे सफलता नही होती । तब वह एक पत्र लिख कर उसके सामने फेंक देती है और देवीदीन  के घर चली जाती है । रमा यह पत्र पढ़ता है और उसकी आँखों के सामने से पर्दा हट जाता है । वह छिप कर जालपा के पास आता है । जालपा उससे सारा वृतांत कह सुनाती है और उससे अपना बयान वापस लेने पर ज़ोर देती है । रमा पहले शंकाएँ करता है,पर बाद को राजी हो जाता है और बंगले पर लौट आता है । वहाँ वह पुलिस अफसरों से साफ कह देता है,कि मैं अपना बयान बादल दूंगा । .............................

........ फिर जालपा देवी ने फांसी की सजा पाने वाले मुलजिम दिनेश के बाल-बच्चों का पालन-पोषण करने का निश्चय किया । इधर-उधर से चन्दे मांग-मांग कर वह उनके लिए जिंदगी की जरूरतें पूरी करती थी ,उसके घर का काम-काज अपने हाथों करती थी,उसके बच्चों को खेलाने को ले जाती थी ।

एक दिन रमानाथ मोटर पर सैर करता हुआ जालपा को सिर पर एक पानी का मटका रखे देख लेता है । उसकी आत्म-मर्यादा जाग उठती है । ज़ोहरा को  पुलिस कर्मचारियों ने रमानाथ के मनोरन्जन के लिए नियुक्त कर दिया है । ज़ोहरा युवक की मानसिक वेदना देख कर द्रवित हो जाती है और वह जालपा का पूरा समाचार लाने के इरादे से चलती है । दिनेश के घर उसकी जालपा से भेंट होती है । जालपा का त्याग,सेवा और साधना देख कर इस  वेश्या का हृदय इतना प्रभावित हो जाता है ,कि वह अपने जीवन पर लज्जित हो जाती है और दोनों मे बहनापा हो जाता है । वह एक सप्ताह के बाद जाकर रमा से सारा वृतांत कह सुनाती है । वह उसी वक्त वहाँ से चल पड़ता है और जालपा से दो-चार बातें करके जज के बंगले पर चला जाता है । "

प्रेमचंद जी ने रमानाथ के बीच मे पुलिस के दबाव मे आने और लज्जा वश सकुचाने का वर्णन इस प्रकार किया है जो गौर फरमाने लायक है-

"इस लज्जा का सामना करने की उसमे सामर्थ्य न थी । लज्जा ने सदैव वीरों को परास्त किया है । जो काल से भी नहीं डरते ,वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते । आग मे कूद जाना,तलवार के सामने खड़ा हो जाना,इसकी अपेक्षा कहीं सहज है । लाज की रक्षा ही के लिए बड़े-बड़े राज्य मिट गए हैं,रक्त की नदियां बह गई हैं,प्राणों की होली खेल डाली गई है । इसी लाज ने आज रमा के पग भी पीछे हटा दिये । शायद जेल की सजा से वह इतना भयभीत न होता । "

यह आजादी के संघर्ष का जमाना है जिसका वर्णन प्रेमचंद जी ने किया है आज आजादी के 64 वर्ष होते -होते शर्म-ओ-हया हवा हो गई हैं । आज बेशर्मी का नग्न नृत्य चल रहा है । आज प्रेमचंद जी की आत्मा को बेहद कष्ट हो रहा होगा । 'गबन' मे उन्होने जज से भी कहलाया है -

"मुआमला केवल यह है ,कि एक युवक ने अपनी प्राण -रक्षा के लिए पुलिस का आश्रय लिया और जब उसे मालूम हो गया कि जिस भय से वह पुलिसका आश्रय ले रहा है वह सर्वथा निर्मूल है,तो उसने अपना बयान वापस ले लिया । ............... वह उन पेशेवर गवाहों मे नहीं है जो स्वार्थ के लिए निरपराधियों को फँसाने से भी नहीं हिचकते । अगर ऐसी बात न होती तो ,वह अपनी पत्नी के आग्रह से बयान बदलने पर कभी राजी न होता । यह ठीक है कि पहली अदालत के बाद ही उसे मालूम हो गया था,कि उस पर गबन का कोई मुकदमा नहीं है और जज की अदालत मे वह अपने बयान को वापस ले सकता था । उस वक्त उसने यह इच्छा प्रकट भी अवश्य की;पर पुलिस की धमकियों ने फिर उस पर विजय पायी । पुलिस का बदनामी से बचने के लिए इस अवसर पर उसे धमकियाँ देना स्वभाविक है ,क्योंकि पुलिस को मुलजिमों के अपराधी होने के विषय मे कोई संदेह न था । रमानाथ धमकियों मे आ गया,यह उसकी दुर्बलता अवश्य है;पर परिस्थिति को देखते हुये क्षम्यहै । इसलिए मैं रमानाथ को बारी करता हूँ"।

'गबन'उपन्यास के माध्यम से प्रेमचंद जी ने उस समय देशवासियों को आजादी के आंदोलन मे भाग लेने के लिए प्रेरित किया था । जालपा द्वारा हृदय परिवर्तन हेतु गांधीवादी दृष्टिकोण को अपनाया है । परंतु मौलिक रूप से प्रेमचंद जी बामपंथी रुझान वाले प्रगतिशील सर्जक थे । 1935 ई .मे जब लंदन के युवा भारतीय संस्कृति कर्मियों द्वारा प्रगतिशील लेखक संघ स्थापित करने के उद्देश्य से एक मसौदा तैयार हुआ तो "हंस" की ओर से प्रेमचंद जी ने समर्थन किया था ।

लखनऊ के रफा -ए-आम हाल मे जब 10 अप्रैल 1936 को 'प्रगतिशील लेखक संघ ' की स्थापना हुयी तो प्रेमचंद जी ने उसकी अध्यक्षता की थी जिसमे सज्जाद जहीर साहब (नादिरा बब्बर के पिताजी) महामंत्री चुने गए थे । प्रेमचंद जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण मे कहा था-"हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा,जिसमें उच्च चिंतन हो ,स्वाधीनता का भाव हो,सौंदर्य का सार हो,सृजन की आत्मा हो,जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो -जो हमे गति,संघर्ष और बेचैनी पैदा करे सुलाये नहीं क्यों अब और सोना मृत्यु का लक्षण है"। 

मैंने केवल 'गबन'से कुछ उद्धरण दिये हैं सारा  का सारा प्रेमचंद साहित्य देश-प्रेम और आजादी के संघर्ष को धार देता हुआ है । 'नशा'कहानी मे भी उन्होने एक छात्र के माध्यम से गांधी जी के आंदोलन का समर्थन किया है । 'बौड़म ' कहानी मे उन्होने सांप्रदायिक सौहर्द के साथ-साथ स्वाधीनता संघर्ष की हिमायत की है एवं उसी प्रकार 'कर्तव्य बल' कहानी मे भी । 'पंचपरमेश्वर' सामाजिक सम्बन्धों और न्याय की कहानी है ।

आज जो उपन्यास अथवा कहानियाँ लोकप्रिय हो रहे हैं वे सब प्रेमचंद जी की सोच के विपरीत हैं। ब्लाग जगत का लेखन भी लगभग उस धारणा के विपरीत है । जो ब्लागर्स वैसा दृष्टिकोण अपना रहे हैं उन्हें आलोचना का शिकार बनाया जा रहा है । साहित्य क्या है?और कैसा होना चाहिए ?इस संबंध मे भी प्रेमचंद जी की अध्यक्षता वाले प्र.ले .स .ने अपने घोषणा पत्र मे बताया था -

"भारतीय समाज मे बड़े-बड़े परिवर्तन हो रहे हैं । पुराने विचारों और विश्वासों की जड़ें हिलती जा रही हैं और एक नए समाज का जन्म हो रहा है । भारतीय लेखकों का धर्म है कि वे भारतीय जीवन मे पैदा होने वाली 'क्रान्ति' को शब्द और रूप दें और राष्ट्र को उन्नति के मार्ग पर चलाने मे सहायक हों"। 

प्रेमचंद जी तो 08 अक्तूबर 1936 को यह दुनिया छोड़ गए । उनके अवसान को भी 75 वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं । उनके विचार आज भी देश,समाज ,परिवार और विश्व के सभी आबाल-वृद्ध,नर-नारी के लिए अनुकरणीय एवं ग्राह्य हैं ।
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Wednesday, July 27, 2011

'जन-हित में'

यों तो पहले से ही 'क्रान्तिस्वर' एवं 'विद्रोही स्व-स्वर में' लिखने का उद्देश्य "सर्वजन-हिताय ,स्वान्तः सुखाय" रहा है और 'कलम और कुदाल' पर पूर्व प्रकाशित लेख या सार्वजनिक हित के अन्य लोगों के विचार देता रहा हूँ फिर एक अलग ब्लॉग के माध्यम की क्या जरूरत आ पडी ,यह कौतूहल सब को हो सकता है. वस्तुतः काफी समय से मेरा विचार जन-हितकारी एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित ऋषि-मुनियों द्वारा रचित स्तुतियाँ एवं प्रार्थनाएं ब्लॉग पर सार्वजानिक करने का था. विलम्ब इसलिए हुआ कि,'गर्व से ...',आर.एस.एस.ब्लागर्स ने अभद्र रूप से मेरे लेखों की आलोचना की तो इस सुविधा का लाभ वे भी क्यों उठायें?लेकिन व्यक्तिगत रूप से तीन ऐसे  ब्लागर्स भी  स्वास्थ्य संबंधी स्तुति हासिल कर चुके  हैं और उसके बाद उन्होंने एहसान फरामोशी की है. यदि मैं इन स्तुतियों को सार्वजनिक रूप से दे देता हूँ तो अन्य अनेक ब्लागर्स लाभ उठा सकते हैं और अपने परिचितों को भी लाभ दिला सकते हैं. कबीर दास जी का कथन है-

काल्ह करे सो आज कर ,आज करे सो अब.        
पल में परलय  होयगी ,बहुरी करेगो  कब?

जब एक बार विचार बना लिया तो उस पर अमल करना ही उचित है. हालांकि हमारे बहन-बहनोई इस बात के खिलाफ हैं कि मैं सब के भले की सोचता हूँ. उनके अनुसार मेरे भले की कौन सोचता है?उनकी ही बात पर ध्यान दें तो सबसे पहले वे लोग खुद  ही उस श्रेणी में आते हैं.उन्हें तमाम स्तुतियाँ प्रिंट करा कर दे दीं हैं और पहले भी लिख कर दे चुके हैं.भांजियों (उनकी बेटियों को भी स्तुतियाँ दी हैं), हमारे तमाम विरोधियों और हमसे  शत्रुवत व्यवहार  करने वालों के प्रति उनका न केवल झुकाव है बल्कि घनिष्ठ एवं मधुर सम्बन्ध भी हैं.हमारी संस्कृति में -'सर्वे भवन्तु सुखिनः ' का अधिक महत्व रहा है.हमारे नाना जी और पिताजी ने तमाम लोगों को बगैर किसी लाभ की उम्मीद किये मदद की है,हमारे बाबाजी भी गाँव में लोगों को अपने पास से बायोकेमिक दवाएं देते थे.पूनम के माता जी -पिताजी भी लोगों की निस्वार्थ मदद करते रहे हैं अतः उन्हें भी कोई ऐतराज नहीं है और यशवन्त तो फाईनल फिनिशिंग करता ही है ,उसे भी मदद करने का शौक है. उसी परम्परा को जारी रखते हुए इस नये ब्लॉग के माध्यम से आज से मैं स्तुतियों को सार्वजानिक करना शुरू कर रहा हूँ. 'इदं न मम' ये मेरा नहीं है मैं तो अर्जित ज्ञान को कंजूस का धन नहीं बनाना चाहता इसलिए सब के भले के लिए उजागर कर रहा हूँ .जो न लेना चाहें लाभ न लें यह उनके विवेक और इच्छा पर है. 

परन्तु जो इनसे लाभ उठाना चाहें वे कुछ बातों को ध्यान रखें कि यह कोई पूजा-पाठ नहीं है. किसी आडम्बर या वितंड की जरूरत नहीं है. धुप-दीप,जल,किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है,केवल औषद्धि के रूप में इसका प्रयोग करें.यह भी ध्यान रखें वाचन के समय मुख पश्चिम की और रहे तथा अपने खुद के और धरती के बीच कोई इन्सुलेशन अवश्य   रहे.अर्थात लकड़ी के पट्टे,ऊनी वस्त्र या पोलीथिन शीट पर बैठें.ऐसा न करके नंगे पाँव या सीधी धरती पर बैठने से ऊर्जा-एनर्जी 'अर्थ'हो जायेगी और कोई लाभ नहीं प्राप्त होगा उससे अच्छा है कि करें ही नहीं.

किसी के भी बहकावे में किसी भी दशा में स्तुति पाठ के समय कोई भी मूर्ती या चित्र कभी भी न रखें ,यदि आपने ढोंग से जोड़ा और परिणाम शून्य रहा तो स्तुति या प्रस्तुतकर्ता का कोई दोष न होगा आप खुद ब खुद जिम्मेदार होंगें..

आज प्रथम दिवस 'गणेश -स्तुति 'से ही शुरुआत कर रहे हैं.'गणेश'=ज्ञान और मोक्ष का नियंता 'गणेश' है .कहावत है कि चिता मरनेके बाद जलाती है और  चिंता जीते जी जलाती है.तो आज 'चिंता और रोग' के निवारणार्थ यह 'गणेश' स्तुति प्रस्तुत है।
(http://janhitme-vijai-mathur.blogspot.com/2011/07/blog-post.html)

Monday, July 25, 2011

ऋतु अनुकूल मेह बरसे दुखप्रद दुष्काल न आवे

वृक्ष रूप में बच्चों ने चेन्ने के एक स्कूल में बैठ कर हमको वृक्षों एवं पर्यावरण की रक्षा का अनुपम सन्देश दिया है;देखें २९ जून २०११ के हिंदुस्तान,लखनऊ-पृष्ठ १७  पर  प्रकाशित इस तस्वीर की स्कैन कापी- 




"येभ्यो माता ................................................................आदित्यां अनुमदा स्वस्तये " (ऋग्वेद मंडल १० /सूक्त ६३ में वर्णित इस मन्त्र के भवानी दयाल सन्यासी जी द्वारा किये काव्यानुवाद की प्रथम पंक्ति को इस लेख का शीर्षक बनाया गया है-

ऋतू अनुकूल मेंह बरसे दुखप्रद दुष्काल न आवे.
सुजला सुफला मातृ भूमि हो,मधुमय क्षीर पिलावे..

आज से १० लाख वर्ष पूर्व जब मानव की इस पृथ्वी पर सृष्टि हुई तो रचयिता (परमात्मा)ने इस प्रथ्वी का उपभोग करने हेतु मानव के लिए कुछ नियमों का निरूपण किया .पूर्व सृष्टि में मोक्ष-प्राप्त आत्माओं को इस धरती पर ऋषियों के रूप में भेज कर उनसे इन वेदों का उपदेश दिलाया गया है.जिस प्रकार किसी भी संगठन अथवा संस्था के निर्माण से पूर्व बाई-लाज या विधान बनाया जाता है उसी प्रकार  इस सृष्टि में निर्वहन हेतु वेदोक्त उपदेश हैं.अपने अहंकार,अज्ञान और विदेशी भटकाव से ग्रस्त विद्वान वेदों के महत्व को नकार कर उनकी आलोचना करते हैं या कुछ उनकी गलत व्याख्या प्रस्तुत करते हैं जिसका परिणाम हम सब के समक्ष अपने वीभत्स रूप में मुंह बाये खड़ा है.

चेन्ने के स्कूली बच्चों द्वारा वृक्षों के महत्व को समझाने का प्रयास स्तुत्य एवं अनुकरणीय है.इस प्रकृति में पदार्थ तीन अवस्थाओं में हमें मिलते हैं जिनका परस्पर रूपांतरण होता रहता है और वे कभी नष्ट नहीं होते हैं.परन्तु मानव ने प्रकृति-नियमों की अवहेलना करके इन पदार्थों का कृत्रिम रूपांतरण कर दिया है जो मानव के अस्तित्व के लिए ही संकट का हेतु बन गया है.आज प्रथ्वी पर वृक्ष आदि वनस्पतियों का अंधाधुंध दोहन होने के  कारण अकाल पड़ता जा रहा है और कार्बन गैसें मात्रा में बढ़ कर प्रथ्वी का तापमान बढाती जा रही हैं.पर्वतों पर ग्लेशियरों के पिघलने का खतरा उत्पन्न हो गया है ,यदि ऐसा हुआ तो समुद्र में जल बढ़ कर काफी आबादी का सफाया कर देगा और शेष मनुष्य जल एवं वर्षा के आभाव में भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर असमय मौत के कराल गाल में समाविष्ट होने को बाध्य होंगे.
19 जूलाई 2011 का समपादकीय -
('हिंदुस्तान'-लखनऊ-19/07/2011)

चेन्ने के स्कूली बच्चों,शिक्षकों ,अभिभावकों को धन्यवाद कि,उन्होंने प्रकृति की इस गंभीर समस्या को मानवीय दृष्टिकोण से उठाया है.आज का संकट अपनी वैज्ञानिक -वैदिक संस्कृति को तिलांजली देने (और अवैज्ञानिक-पौराणिक पद्धति को आत्मसात करने )के कारण उत्पन्न हुआ है.प्रकृति में संतुलन को बनाए रखने हेतु हमारे यहाँ यग्य-हवन किये जाते थे.अग्नि में डाले गए पदार्थ परमाणुओं में विभक्त हो कर वायु द्वारा प्रकृति में आनुपातिक रूप से संतुलन बनाए रखते थे.'भ'(भूमि)ग (गगन)व (वायु) ।(अनल-अग्नि)न (नीर-जल)को अपना समानुपातिक भाग प्राप्त होता रहता था.Generator,Operator ,Destroyer भी ये तत्व होने के कारण यही GOD है और किसी के द्वारा न बनाए जाने तथा खुद ही बने होने के कारण यही 'खुदा'भी है. अब भगवान् का अर्थ मनुष्य की रचना -मूर्ती,चित्र आदि से पोंगा-पंथियों के स्वार्थ में कर दिया गया है और प्राकृतिक उपादानों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है जिसका परिणाम है-सुनामी,अति-वृष्टि,अनावृष्टि,अकाल-सूखा,बाढ़ ,भू-स्खलन,परस्पर संघर्ष की भावना आदि-आदि.

एक विद्वान की इस प्रार्थना पर थोडा गौर करें -

ईश हमें देते हैं सब कुछ ,हम भी तो कुछ देना सीखें.
जो कुछ हमें मिला है प्रभु से,वितरण उसका करना सीखें..१ ..

हवा प्रकाश हमें मिलता है,मेघों से मिलता है पानी.
यदि बदले में कुछ नहीं देते,इसे कहेंगे बेईमानी..
इसी लिए दुःख भोग रहे हैं,दुःख को दूर भगाना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..२ ..

तपती धरती पर पथिकों को,पेड़ सदा देता है छाया.
अपना फल भी स्वंय न खाकर,जीवन उसने सफल बनाया..
सेवा पहले प्रभु को देकर,बाकी स्वंय बरतना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..३..

मानव जीवन दुर्लभ है हम,इसको मल से रहित बनायें.
खिले फूल खुशबू देते हैं,वैसे ही हम भी बन जाएँ..
जप-तप और सेवा से जीवन,प्रभु को अर्पित करना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..४..

असत नहीं यह प्रभुमय दुनिया,और नहीं है यह दुखदाई.
दिल-दिमाग को सही दिशा दें,तो बन सकती है सुखदाई ..
'जन'को प्रभु देते हैं सब कुछ,लेकिन 'जन'तो बनना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..५..

शीशे की तरह चमकता हुआ साफ़ है कि वैदिक संस्कृति हमें जन  पर आधारित अर्थात  समष्टिवादी बना रही है जबकि आज हमारे यहाँ व्यष्टिवाद हावी है जो पश्चिम के साम्राज्यवाद की  देन है. दलालों के माध्यम से मूर्ती पूजा करना कहीं से भी समष्टिवाद को सार्थक नहीं करता है.जबकि वैदिक हवन सामूहिक जन-कल्याण की भावना पर आधारित है.

ऋग्वेद के मंडल ५/सूक्त ५१ /मन्त्र १३ को देखें-

विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये.
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्व्हंससः ..

(जनता की कल्याण -कामना से यह यग्य रचाया.
विश्वदेव के चरणों में अपना सर्वस्व चढ़ाया..)

जो लोग धर्म की वास्तविक व्याख्या को न समझ कर गलत  उपासना-पद्धतियों को ही धर्म मान कर चलते हैं वे अपनी इसी नासमझ के कारण ही  धर्म की आलोचना करते और खुद को प्रगतिशील समझते हैं जबकि वस्तुतः वे खुद भी उतने ही अन्धविश्वासी हुए जितने कि पोंगा-पंथी अधार्मिक होते हैं.

ऋग्वेद के मंडल ७/सूक्त ३५/मन्त्र १ में कहा गया है-

शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या डे
शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयो :शन्न इन्द्रा पूष्णा वाजसात..

(सूर्य,चन्द्र,विद्युत्,जल सारे सुख सौभाग्य बढावें.
रोग-शोक-भय-त्रास हमारे पास कदापि न आवें..)

वेदों में किसी व्यक्ति,जाति,क्षेत्र,सम्प्रदाय,देश-विशेष की बात नहीं कही गयी है.वेद सम्पूर्ण मानव -सृष्टि की रक्षा की बात करते हैं.इन्हीं तत्वों को जब मैक्समूलर साहब जर्मन ले गए तो वहां के विचारकों ने अपनी -अपनी पसंद के क्षेत्रों में उनसे ग्रहण सामग्री के आधार पर नई -नई खोजें प्रस्तुत कीं हैं.जैसे डा.हेनीमेन ने 'होम्योपैथी',डा.एस.एच.शुस्लर ने 'बायोकेमिक'  भौतिकी के वैज्ञानिकों ने 'परमाणु बम'एवं महर्षि कार्ल मार्क्स ने 'वैज्ञानिक समाजवाद'या 'साम्यवाद'की खोज की.

दुर्भाग्य से महर्षि कार्ल मार्क्स ने भी अन्य विचारकों की भाँती ही गलत उपासना-पद्धतियों (ईसाइयत,इस्लाम और हिन्दू ) को ही धर्म मानते हुए धर्म की कड़ी आलोचना की है ,उन्होंने कहा है-"मैंन  हैज क्रियेटेड द गाड फार हिज मेंटल सिक्योरिटी ओनली".आज भी उनके अनुयाई एक अन्धविश्वासी की भांति इसे ब्रह्म-वाक्य मान कर यथावत चल रहे हैं.जबकि आवश्यकता है उनके कथन को गलत अधर्म के लिए कहा गया मानने की.'धर्म'तो वह है जो 'धारण'करता है ,उसे कैसे छोड़ कर जीवित रहा जा सकता है.कोई भी वैज्ञानिक या दूसरा विद्वान यह दावा नहीं कर सकता कि वह-भूमि,गगन,वायु,अनल और नीर (भगवान्,GODया खुदा जो ये पाँच-तत्व ही हैं )के बिना जीवित रह सकता है.हाँ ढोंग और पाखण्ड तथा पोंगा-पंथ का प्रबल विरोध करने की आवश्यकता मानव-मात्र के अस्तित्व की रक्षा हेतु जबरदस्त रूप से है. 

यदि हम चेन्ने के स्कूली बच्चों द्वारा बताए संदेश पर चल कर अपने वृक्षों और पर्यावरण की रक्षा हेतु आगे बढ़ें तो मानवता की सच्ची सेवाऔर रक्षा दोनों होगी.

Saturday, July 23, 2011

तिलक और आजाद ------ विजय राजबली माथुर

बाल गंगा धर 'तिलक'और पं.चंद्रशेखर आजाद की जयन्ति २३ जूलाई पर श्र्द्धा -सुमन  


बाल गंगा धर 'तिलक 'का जन्म २३ जूलाई १८५६ ई.को रत्नागिरी (महाराष्ट्र)में हुआ था.१८९० में वह कांग्रेस में शामिल हुए.१८९६-९७ में महाराष्ट्र में प्लेग फैला तो उन्होंने राहत कार्यों को सुचारू रूप से संचालित किया.अरविन्द घोष के छोटे भाई बरेंद्र कुमार घोष एवं स्वामी  विवेकानंद(जिन्हें आर.एस.एस.जबरिया अपने बैनर पर घसीटता है) के भाई भूपेन्द्र नाथ दत्त 'युगांतर'तथा 'संध्या'नामक शक्तिशाली समाचार-पत्रों के माध्यम से 'क्रान्ति'का सन्देश फैला रहे थे.बंगाल के अरविन्द घोष और विपिन चन्द्र पाल तथा पूना के लोकमान्य तिलक कांग्रेस में 'बाम-पंथी'(लेफ्ट विंग)के नेता माने जाते थे.बम्बई के फीरोज शाह मेहता और पूना के जी.के.गोखले एवं बंगाल के एस.एन.बनर्जी  दक्षिण -पंथी (राईट विंग)के माने जाते थे.पंजाब के लाला लाजपत राय मध्यम मार्गी नेता थे.१९०६ में दादा भाई नौरोजी के कुशल नेत्रित्व के कारण कांग्रेस ने स्व-राज्य का ध्येय अपना लिया और स्व-देशी के प्रचार का प्रस्ताव भी पास किया.

१९०७ में सूरत अधिवेंशन में लाल-बाल-पाल जैसे कर्मठ नेता कांग्रेस से अलग होकर आजादी की लड़ाई में जुट गए.इन परिस्थितियों में ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार ने उदार कांग्रेसियों,मुस्लिमों जागीरदारों,धनवानों के प्रति नरम रुख रख कर उग्र -दल के नेताओं का निर्मम दमन-चक्र चलाया.

१९०७ में बंगाल के गवर्नर की रेल गाडी पर बम फेंका गया और ढाका के जिलाधीश की हत्या का असफल प्रयास हुआ.१९०८ में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट पर गोली चलाई गयी.इस सम्बन्ध में खुदी राम बोस को फांसी की सजा दी गयी. इन बम कांडों पर १९०८ में 'केसरी' में तिलक ने लिखा था कि,"बम जनता के राजनीतिक तापक्रम का थर्मा मीटर है."एक दुसरे लेख में उन्होंने लिखा-"बंगालियों के बम समाज के लिए राजद्रोहात्मक न थे,वरन उनके मूल में देश-भक्ति की अत्यधिक भावना थी".ऐसे ही लेखों के लिए उन्हें छः वर्षों के लिए 'मांडला'(बर्मा)में कैद करके रखा गया.१९१४ में छूटने  के बाद वह पुनः आजादी के कार्य में जुट गए.

१९१५ में फीरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले की मृत्यु हो गई अतः तिलक आदि १९१६ में  पुनः कांग्रेस में लौट आये .तिलक और एनी बेसेंट ने मिल कर १९१६ में 'होम रूल लीग'बना कर स्वदेशी आन्दोलन को और धार दी.१९१६ में लखनऊ में संपन्न हुए कांग्रेस अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने भी संयुक्त रूप से भाग लिया और इसका श्रेय पूरी तौर पर तिलक को है.(यह बेहद गौर करने की बात है जिन तिलक को आर.एस.एस.हिंदूवादी घोषित करते नहीं थकताऔर जनता को गुमराह करता रहता है  वही बाल गंगा धर तिलक मुस्लिम लीग को कांग्रेस के मंच पर लाने और आजादी के लिए संयुक्त संघर्ष हेतु राजी करने में सफल रहे थे,वस्तुतः तिलक बामपंथी -राष्ट्र भक्त थे).

अगस्त १९२० में तिलक का निधन होने से बाम-पंथी आन्दोलन अनाथ हो गया .


चंद्र शेखर आज़ाद 

बाल गंगाधर तिलक के जन्म के ५० वर्ष बाद २३ जूलाई १९०६ को पं.सीता राम तिवारी और माता जगरानी देवी के पुत्र के रूप में क्रांतिकारी चंद्रशेखर 'आजाद ' का जन्म हुआ.इनके पिता मूल रूप से कानपूर जिले के राउत मरा बानपुर के निकट भाँती ग्राम निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे.यह अपने माता -पिता की पांचवीं एवं अंतिम तथा एकमात्र जीवित संतान थे.इन्होने ईमानदारी तथा स्वाभिमान पिता से सीखा था.

१३ अप्रैल १९१९ को हुए जलियाँ वाला बाग़ नर-संहार ने  इन्हें व्यथित कर दिया था.१९२१ में गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने पर इन्हें १५ बेंतों की सजा मिली थी जिसे गांधी जी की जयकारे के साथ इन्होने भुगता.मरहम -पट्टी के लिए इन्हें तीन आने मिले जिन्हें जेलर के ऊपर फेंक कर इन्होने अपने दोस्त डा. से मरहम-पट्टी कराई.

फरवरी १९२२ में चौरी-चौरा के आधार पर गांधी जी के आन्दोलन वापिस लेने पर यह १९२३ में 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी'में सम्मिलित हो गए.क्रांतिकारी कार्यों हेतु धन-संग्रह के उद्देश्य से लखनऊ के 'काकोरी'स्टेशन पर इनके नेत्रित्व में गार्ड के डिब्बे से ०९ अगस्त १९२५ ई.को  सरकारी खजाना हस्तगत कर लिया गया.हालांकि अशफाक उल्ला खान ने पहले ही चेतावनी दे दी थी कि,ऐसा करने पर प्रशासन  उनके दल को जड़ से उखाड़ देगा और उनकी यह भविष्य वाणी सत्य हुई.

१७ तथा १९ दिसंबर १९२७ को राम प्रसाद 'बिस्मिल',अशफाक उल्ला खान ,रोशन सिंह तथा राजेन्द्र लाहिड़ी को फांसी दे दी गई.अब चंद्रशेखर 'आजाद'ने सरदार भगत सिंह के साथ मिल कर दल का पुनर्गठन करके 'सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन' नामकरण कर दिया.पं.जवाहर लाल नेहरू ने 'स्वराज भवन'में आजाद के दल के सदस्यों को रूस में प्रशिक्षण हेतु रु.१०००/-दिए थे जिनमें से बचे हुए रु.४४८/-उनके वस्त्रों से शहादत के समय प्राप्त हुए थे.

भगत सिंह और साथियों द्वारा नेशनल असेम्बली में बम फेंक कर गिरफ्तार होने से वह अकेले पड़ गए थे.इलाहाबाद में ०६ फरवरी १९२७ को मोती लाल नेहरू की शव यात्रा में उन्होंने गुप्त रूप से भाग लिया था और ब्रिटिश पुलिस उन्हें पकड़ न सकी थी.यह छिपते-छिपाते अंग्रेजों के छक्के छुडाते रहे.किन्तु जब साथियों को रूस भेजने की योजना पर विचार करने हेतु सुखदेव से २७ फरवरी १९३१ को अल्फ्रेड पार्क ,इलाहाबाद में वह चर्चा कर रहे थे तो मुखबिर की सूचना पर पुलिस ने पार्क को चारों और से घेर लिया.अकेले ही पिस्तौल से संघर्ष करते रहे और जब आख़िरी गोली बची तब उसे अपने सीने में उतार कर 'आजाद'ही रहते हुए प्राणोत्सर्ग कर दिया.परन्तु शत्रु ब्रिटिश साम्राज्यवाद उन्हें गुलाम न बना सका.

हिन्दुस्तान,लखनऊ के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित प्रबुद्ध पाठकों के विचारों का अवलोकन करें तो आज के तथा-कथित नेताओं के प्रति वितृष्णा होती है.वस्तुतः ये लोग जन-नेता नहीं हैं बल्कि स्वयंभू नेता हैं और वस्तुतः आधुनिक साम्राज्यवादियों के एजेंट हैं.क्या  इन्हीं की मौज मस्ती के लिए 'तिलक','आजाद' सरीखे जन-नायकों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी.कदापि नहीं उनका ध्येय कोटि-कोटि जनता की आर्थिक और राजनीतिक आजादी था.आज अपने इन दो महान नेताओं के जन्म दिन पर नमन,स्मरण,आदि औपचारिक संबोधनों का परित्याग करते हुए हम सब क्या  यह संकल्प ले सकते हैं कि ,भारत माँ के इन वीर सपूतों की इच्छा को अब साकार करेंगे?

हिंदुस्तान-लखनऊ-22/07/2011 
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Friday, July 22, 2011

दान की भ्रामक दास्तान

हिंदुस्तान,लखनऊ के 18 जूलाई 2011 के पृष्ठ 16 पर मुंबई से एक भ्रामक दास्तान छ्पी है कि,'अमीर और दानवीर होते जा रहे हैं भारतीय'।स्कैन कापी का अवलोकन करें :-




यह आंकलन अपर्ण सेठ और मधुर सिंघल ने 'भारत परोपकार रिपोर्ट 2011'मे 300 अमीरों पर किए सर्वे के आधार पर दिया है।उन्होने यह भी बताया है कि ,74 प्रतिशत दान कारपोरेट क्षेत्र और विदेशी फंड से आता है।यही वह रहस्य है जो इस धोखे के खेल को समझने के लिए काफी है।आय कर की धारा 80 एल आदि के अंतर्गत दान देने वाले को आय कर मे छूट मिल जाती है जिसका लाभ उठाने हेतु दान का यह स्वांग किया जाता है।इस दान का प्रयोग कहाँ होता है जब आप यह जानेंगे तब मानेंगे कि वस्तुतः यह न तो दान है और न ही परोपकार।

कारपोरेट क .पार्कों आदि को गोद लेकर उनका विकास करती हैं जिनमे झूले वगैरह लगाए जाते हैं घूमने का प्रबंध किया जाता है और इंनका  प्रयोग समृद्ध वर्ग ही करता है।वहाँ गरीब और निम्न आय वर्ग के लोगों का प्रवेश संभव ही नहीं है,फिर वह कैसा दान हुआ? विदेशी कारपोरेट क .जो धन देती हैं वह राजनीतिक दृष्टिकोण उनके देश के पक्ष मे करने हेतु व्यय किया जाता है ।जब पी.एल.480 के तहत शराब हेतु सत्व खींचने के बाद गेंहू हमारे देश मे अमेरिका से आता था तो अमेरिकी विदेश मंत्रालय कालेजों के छात्रों को वहाँ की मेगजीन्स आदि मुफ्त मे वितरित करता था जाहिर है यह उनका दान था जो उनकी विचार-धारा फैलाने के काम आता था।

बाबरी आंदोलन के दौरान कार निर्माता क .फोर्ड ने 'फोर्ड फाउंडेशन' के फ़ंड से 'विश्व हिन्दू परिषद'को बेहद दान दिया था जो रथ-यात्राएं,ईंट-पूजन,शस्त्र-खरीद आदि मे व्यय हुआ था और नतीजा इतिहास मे दर्ज है ।इसी प्रकार आज कल 26 प्रतिशत दान देने वाले निजी लोग भी इस दान का व्यवसायिक और राजनीतिक लाभ लेते हैं,आयकर से छूट अलग प्राप्त हो जाती है।क्या यह सब दान है?

पहले हमारे देश मे जब व्यापारी दान देते थे तो वह उस धन से छायादार वृक्ष मार्ग के दोनों ओर लगवाते थे,प्याऊ लगवा कर यात्रियों की क्षुधा शांत करने का प्रबंध करते थे।तालाब खुदवाते थे,बावड़ियों का बंदोबस्त करते थे और इन सब चीजों से आम जनता को प्रत्यक्ष लाभ होता था,राहत मिलती थी।उन चीजों को तो दान की श्रेणी मे माना जा सकता है परंतु आयकर विभाग से छूट प्राप्त  करने हेतु किया गया स्वांग दान नहीं है ।

हाल ही मे आपने पढ़ा कि दान किया खजाना मंदिरों मे छिपा पड़ा है और असंख्य जनता भूख से तड़प -तड़प कर अपनी जान गवां रही है,तमाम लोग अपने बच्चों से बाल-मजदूरी करा रहे हैं उनके पढ़ने का प्रबंध नहीं कर पा रहे हैं ।क्या ऐसा धन दान है?इसका पुण्य दाता को मिलेगा ?कदापि नहीं।वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति को हर वस्तु का दान करना भी नहीं चाहिए अन्यथा हानि ही होती है।एक दो उदाहरण देना चाहूँगा -

एक सेमी इंजीनियर साहब ने अपनी फैक्टरी के मंदिर मे अपनी श्रीमती जी के नाम का पत्थर लगवाने के चक्कर मे रु.1100/-का दान दिया जिसका नतीजा यह हुआ आर्मी स्कूल मे वाईस प्रिंसीपल उनकी श्रीमती जी का लौटते मे कार से एक्सीडेंट हुआ जिसमे सामने से टकराने वाले मोटर साईकिल सवार दंपति की मौत हो गई।भले ही गलती मरने वालों की थी इन लोगों को नौ वर्ष मुकदमे को झेलना और व्यर्थ की परेशाने तथा धन की तबाही का सामना करना पड़ा ।यह कैसा दान हुआ ?पुण्य मिला या दण्ड?लेकिन ठोकर खा कर भी अक्ल मे सुधार नहीं हुआ।

एक ई.ओ.सहाब ने अपने साढू की नकल मे एक देवी मंदिर मे रु .101/-चढ़ाये नतीजा?उनकी माता जी गंभीर बीमार हुयीं तथा परेशानी और अपव्यय का सामना करना पड़ा ।उनके साढू साहब तो अक्सर दान करते ही रहते थे और असमय केंसर से मौत को गले लगा चुके हैं और परेशानी उनके बच्चों एवं पत्नी को है ।

एक ई .ई .साहब पहले गरीबों को भोजन आदि खूब कराते थे उनकी पत्नी भी मांगने वालों को भोजन या सीधा देती रहती थीं । नतीजा उनके साथ लूट-पाट की घटनाएँ होती रहती थीं । अपने आगरा के कार्यकाल मे वह मेरे संपर्क मे आए थे ,मैंने उन्हें तमाम चीजों के दान का निषेद्ध बताया तब से नहीं कर रहे हैं । अब यहाँ लखनऊ मे भी वह मेरे संपर्क मे हैं। गोमती नगर मे अपने मकान का भूमि-पूजन उन्होने कर्मकांडी से नहीं मुझसे ही कराया था।

आगे किसी लेख मे किस व्यक्ति को किस वस्तु का दान नहीं देना चाहिए यह स्पष्ट करने का प्रयास  करूंगा ।


Friday, July 15, 2011

लखनऊ वासियों के समक्ष ऐतिहासिक अवसर

सन १९३६ ई. में लखनऊ में आजादी के आंदोलन को गति प्रदान करने हेतु तीन संगठनों की स्थापना हुई थी.उनमें से दो के ७५ वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और तीसरा संगठन भी अगस्त माह में ७५ वर्ष पूर्ण करने जा रहा है और इस उपलक्ष्य में उसका स्थापना समारोह भी लखनऊ में ही होने जा रहा है.१९३६ में वे लोग भाग्यशाली थे जिन्होंने इन संगठनों की स्थापना होते देखी और उसमें भाग लिया.उसी प्रकार अब वे लोग भी भाग्यशाली होंगें जो लखनऊ में हो रहे इस समारोह में भाग लेंगें या अपना योगदान देंगें.लखनऊ वासियों के लिए यह एक ऐतिहासिक और अमूल्य अवसर है कि वे इस कार्यक्रम में भाग लेकर अपने को धन्य कर सकते हैं.

१९३६ ई. की अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ

स्पेन में जेनरल फ्रैंको के नेतृत्व में फासीवादियों ने बर्बर नर-संहार का तांडव रचा.जर्मनी और इटली में हिटलर और मुसोलिनी का ख़तरा आ गया.इन परिस्थितियों में १९३६ ई. में 'रोम्या रोला','इडम फास्टर','आंद्रे मालेरा','टामसमान ',वोल्ड फ्रैंक ''मैक्सिम गोर्की',हेनरी बार्बूज'आदि के आह्वान पर पेरिस में 'विश्व लेखक अधिवेंशन' नामक सम्मलेन हुआ.

भारतीय परिस्थितियाँ

इसी काल-खंड में भारत में चल रहे आजादी के आंदोलन को किसानों,लेखकों एवं छात्रों के शोषण-उत्पीडन का सामना करना पड़ रहा था.१९२०-३० के दशकों में कई किसान सम्मलेन तथा संगठन बने. स्वाधीनता आंदोलन का समर्थन करने के कारण १९३०-३४ के बीच ३८४ पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा 'वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 'द्वारा  रोक लगाई गई .

विश्व-व्यापी मंदी,ब्रिटिश शासकों की नृशंसता,जमींदारों,जागीरदारों का उत्पीडन और शोषण चरम पर था.कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की पुस्तिका 'रूस से चिट्ठी'पर अंग्रेज सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया.साहित्यकार 'सत्य जीवन वर्मा'ने 'हिन्दी लेखक संघ'बनाया और सितम्बर १९३४ में इसकी सदस्यता केलिए अपील की.'मुंशी प्रेम चंद'और रामचंद्र टंडन ने भी 'भारतीय साहित्य परिषद' और 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' नामक सहकारी प्रकाशन संस्थान लेखकों के सहयोग से स्थापित किये जिनका उद्देश्य अभिव्यक्ति की रक्षा करना था.

१९३५ ई.में लन्दन स्थित क्रांतिकारी युवा भारतीय लेखकों ने प्रगतिशील लेखक संघ स्थापित करने के उद्देश्य से एक मसौदा तैयार किया.इस अभियान को लखनऊ के सज्जाद जहीर के अलावा मुल्क राज आनंद,प्रमोद सेनगुप्त,अहमद अली,हीरेंन  मुखर्जी,ज्योति घोष,मह्म्दुज्जफर,डा. मोहमद दीन तासीर  आदि ने भी बल दिया."हंस"पत्रिका की और से मुंशी प्रेमचंद ने भी पूरा समर्थन किया.

"प्रगतिशील लेखक संघ" की स्थापना

सामाजिक रूढीवाद के विरुद्ध और आजादी के संघर्ष  हेतु लखनऊ के 'रफा-ए-आम' हाल में ०९ अप्रैल १९३६ से एक सम्मलेन हुआ जिसमें भारतीय भाषाओं के विश्व-स्तरीय २५० लेखकों ने भाग लिया.इनमें प्रमुख थे-
सुमित्रा नंदन पन्त,यशपाल,भीष्म साहनी,केदारनाथ अग्रवाल,उपेन्द्र नाथ अश्क,राम वृक्ष बेनीपुरी,बाल कृष्ण शर्मा नवीन,शमशेर बहादुर सिंह,नागार्जुन,रामधारी सिंह दिनकर,राहुल सांस्कृत्यायन,राम प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी,प्रकाश चन्द्र गुप्त,अमृत राय ,भैरव प्रसाद गुप्त,क्रिशन चंदर,राजेन्द्र सिंह बेदी,कुर्रतुल एन "हैदर",इस्मत चुगताई,देवेन्द्र सत्यार्थी,मखदूम,वामिक जौनपुरी,गोपाल सिंह नेपाली,सुदर्शन शील,विजन भाषचार्य,कैफी आजमी,सरदार जाफरी,मजरूह सुलतान पूरी,बलराज साहनी,सआदत हसन मंटो,डा.राम विलास शर्मा,शिवदान सिंह चौहान,ख्वाजा अहमद अब्बास,साहिर लुध्यानवी,हसरत मोहानी आदि.

१० अप्रैल १९३६ ई.को सम्मलेन में संगठन बन गया जिसके महामंत्री बने सज्जाद जहीर और अध्यक्ष मुंशी प्रेम चंद.इस संगठन के घोषणा पत्र में कहा गया था-"भारतीय समाज में बड़े-बड़े परिवर्तन हो रहे हैं.पुराने विचारोनौर विश्वासों की जड़ें हिलती जा रही हैं और एक नए समाज का जन्म हो रहा है.भारतीय लेखकों का धर्म है कि वे भारतीय जीवन में पैदा होने वाली 'क्रान्ति'को शब्द और रूप दें और राष्ट्र को उन्नति के मार्ग पर चलने में सहायक हों."  मुंशी प्रेम चंद ने तब जो अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है-

"हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा,जिसमें उच्च चिंतन हो,स्वाधीनता का भाव हो,सौंदर्य का सार हो,सृजन की आत्मा हो,जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो जो हमें गति,संघर्ष और बेचैनी पैदा करे सुलाये नहीं क्यों अब और सोना मृत्यु का लक्षण है"

१९५३ ई.तक यह संगठन भारतीय साहित्यकारों के मध्य छाया रहा.'इप्टा' पहले इसी की एक शाखा था जो अब अलग संगठन है.राजनीतिक कारणों से इससे कुछ और संगठन अब अलग चल रहे हैं परन्तु भारत की आजादी के संघर्ष में इसके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता.

"किसान सभा "की स्थापना

छिट-पुट रूप से किसान आंदोलन को गति देने हेतु संगठन बनते रहे.१८ जून १९३३ को बिहटा में 'बिहार प्रदेश किसान सभा'का पहला सम्मलेन हुआ और दूसरा सम्मलेन १९३५ ई. में हाजीपुर में हुआ.१५ जनवरी १९३६ को मेरठ (यूं.पी.)में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अखिल भारतीय सम्मलेन में किसान नेताओं एवं कार्यकर्ताओं ने एक अखिल भारतीय किसान संगठन बनाने का निश्चय किया और प्रो.एन.जी.रंगा तथा जय प्रकाश नारायण के संयोजकत्व में एक समिति गठित कर दी.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशन के मध्य ११ अप्रैल १९३६ ई. को लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सम्मलेन आयोजित हुआ और स्वामी सहजानंद की अध्यक्षता में 'अखिल भारतीय किसान कांग्रेस'की स्थापना की गई ,कुछ ने इसे अखिल भारतीय किसान संघ भी कहा और आगे चल कर १४ जुलाई १९३७ को गया(बिहार)में  इसका नाम "अखिल भारतीय किसान सभा"कर दिया गया.

स्थापना सम्मलेन में बिहार ,बंगाल,आंध्र,तामिलनाडू,मलाबार,मध्य प्रांत,पंजाब ,गुजरात,दिल्ली और यूं.पी.का प्रतिनिधित्व रहा. सम्मलेन को संबोधित करने वालों में प्रमुख नेता थे-सोहन सिंह जोश,राम मनोहर लोहिया,भाग लेने वालों में और प्रमुख लोग थे-इंदु लाल याग्निक,के.एम्.अशरफ,एन.जी.रंग,जय प्रकाश नारायण आदि.

"आल इंडिया स्टुडेंट्स फेडरेशन"- A.I.S.F.की स्थापना

१९३६ ई. में विश्व तथा अपने देश में भी परिस्थितियाँ बड़ी विकट थीं.विदेशी हुकूमत का जुल्म सबसे ज्यादा युवा वर्ग विशेषकर छात्रों को भुगतना पड़ रहा था.अतः स्वीधीनता संग्राम के अग्रणी नेताओं ने लेखकों तथा किसानों के समान ही छात्रों हेतु भी एक अखिल भारतीय संगठन बनाने हेतु लखनऊ में अमीनाबाद के 'गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल'में १२ अगस्त १९३६ को छात्रों का एक सम्मलेन बुलाया.ए .आई .एस.एफ.के प्रथम महामंत्री लखनऊ के ही प्रेम नारायण भार्गव चुने गए ,हजरत गंज में उनका भार्गव प्रेस आज भी कार्य रत है.अध्यक्ष पं.जवाहर लाल नेहरू चुने गए थे और मुख्य अतिथि थे मो.अली जिन्नाह.महात्मा गांधी तथा रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपने सन्देश भेज कर इसे आशीर्वाद दिया था.क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह,राजगुरु,सुखदेव भी इसके सदस्य रहे हैं.

ए.आई.एस.एफ ने आजादी की लड़ाई में सक्रीय रूप से भाग लिया था.आज हमारे सामने फिर वैसी ही समस्याएं मुंह बाएं सामने हैं.पूंजीवादी जनतंत्र की खर्चीली धोखाधड़ी ,लूटतंत्र का दमन जारी है.पंचायती राज की कपट पूर्ण सरकारी नौटंकी चल रही है.साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की यह घुटन ,यह सडांध अब ज़िंदा आदमी के बर्दाश्त के काबिल नहीं है.

यूरोप में छात्र -युवा उठ खड़े हुए हैं.नवंबर २०१० में शिक्षा मदों में कटौती और फीसों को बढाए जाने की सरकार की योजना के खिलाफ ब्रिटेन के स्कूलों और विश्वविद्यालयों के छात्र बार-बार सड़कों पर उतरे और अपने गुस्से का भरपूर प्रदर्शन किया.सत्ताधारी कंजर्वेटिव पार्टी के दफ्तर पर हजारों छात्रों ने हमला बोल दिया था.२४ नवंबर २०१० के प्रदर्शनों में पूरे ब्रिटेन में १ लाख ३० हजार छात्रों ने भाग लिया.त्रैफल्गार चौराहे पर भारी तोड़-फोड की.

इससे पहले फ्रांस,जर्मनी,स्पेन,पुर्तगाल और यूनान में भी छात्र शिक्षा में किये जाने वाले सुधारों के खिलाफ झुझारू प्रदर्शन कर चुके थे.उनके यहाँ पूंजीवादी सरकारों ने अपने बजट घाटे को घटाने के नाम पर सार्वजनिक व्यय में कमी करना शुरू कर दिया है.ब्रिटेन,फ्रांस समेत यूरोपीय देशों की जनता अपनी हुकूमत से पूंछ रही है -सट्टेबाजी में लिप्त बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के जुए की कीमत हम क्यों अदा करें?

१९३० की मंदी के बाद अमेरिका में हाल में आई मंदी से वहाँ काफी झटका लगा है और अभी फिर लगने वाला है.हमारे देश में पढाई दिन दूनी रात चौगुनी मंहगी होती जा रही है.अभी बी.एड.कालेजों में यूं.पी.में फीस रु.५१०००/-निर्धारित कर दी गई है.हमारे यहाँ आज छात्र आंदोलन शून्य है.

आगामी १२ और १३ अगस्त को ए.आई.एस.एफ.के ७५ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में पहले दिन का समारोह उसी ऐतिहासिक गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल में होने जा रहा है.इस सम्बन्ध में विगत १० जुलाई को एक आवश्यक बैठक जिसकी अध्यक्षता प्रो.डा.रमेश दीक्षित ने की थी द्वारा आगामी सम्मलेन हेतु एक 'स्वागत समिति'का गठन किया गया है जिसकी महामंत्री सुश्री निधि चौहान बनायी गई हैं.

यह लखनऊ वासियों के लिए गौरव की बात है कि उन्हें फिर एक बार ऐतिहासिक क्षण की मेजबानी मिली है.उनका कर्तव्य है कि ए.आई.एस.एफ के सम्मलेन को सफल बनाने हेतु अपना योगदान दें.संगठन मांग कर रहा है कि सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.)का ६ प्रतिशत तथा राज्य बजट का १० प्रतिशत भाग शिक्षा पर खर्च किया जाए.इससे अधिकाधिक मुफ्त शिक्षा का प्रबंध किया जा सकता है.शिक्षा के बाजारीकरण पर रोक लगाने तथा सारे देश में 'एक सामान शिक्षा प्रणाली'लागू करना भी प्रमुख मांग है.छात्रों की सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देने तथा युवाओं की राज्नीतिक्भागीदारी बढ़ाना भी संगठन का उद्देश्य है.

आगामी पीढ़ियों का भविष्य संवारने हेतु लखनऊ में हो रहे इस ऐतिहासिक कार्यक्रम को सफल बनाना प्रत्येक लखनऊ वासी का धर्म होना चाहिए.


(संपर्क स्थल :- कार्यालय स्वागत समिति,ए.आई.एस.एफ.,२२ -कैसर बाग,लखनऊ)

Tuesday, July 12, 2011

समझदारों की नासमझी

इंटरनेट के माध्यम से ब्लॉग का प्रयोग करने वाले सभी लोग समझदार होते हैं.एक-दुसरे के विचारों को पढ़ने-समझने का बेहतरीन मौका इसके द्वारा मिलता है ,लेकिन यदि पढ़ कर भुला दिया जाए या उसकी उपेक्षा कर दी जाए तो उसे मेरी समझ से नासमझी मानना चाहिए.आज आप सब को ऐसी ही कुछ बातें बताना चाहता हूँ.

गुरु मेष राशी और शनि के कन्या राशी में होने से षडाष्टक योग बन रहा है जिसके परिणामस्वरूप शासन तंत्र को विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा ,श्रमिकों के कोप का सामना करना पड़ेगा.(पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ा कर सर्कार ने आग में घी झोंक ही दिया है).यान-खान दुर्घटनाओं के भी योग इससे उत्पन्न हो रहे हैं और स्वास्थ्य एवं राहत कार्यों हेतु विशेष व्यय करना पड़ेगा.


१० जुलाई को हुए हादसे से पूर्व ०२ जुलाई को ही 'कुछ इधर की कुछ उधर की' शीर्षक से लिखे लेख द्वारा इस प्रकार की दुर्घटनाओं की चेतावनी दी थी.परन्तु बुद्धिमान लोगों ने बचाव का कोई प्रबंध नहीं किया और अकाल मौत के मुंह में समां गए.अधिकृत रूप से कुल ७० मौतें बतायी जा रही हैं,यह कैसे संभव है?एक जेनरल कोच में सैंकडों यात्री सफर करते हैं और पूरा का पूरा कोच ध्वस्त हो जाए और एक भी मौत न हो? एस.-२ कोच भी चकनाचूर हो गया और तमाम कोच एक-दुसरे पर चढ गए और कुल मौतें हईं सिर्फ ७० यह बात बिलकुल अविश्वसनीय है.



'पं.बंगाल के बंधुओं से एक बेपर की उड़ान' शीर्षक से लिखे लेख में सुश्री ममता बैनर्जी से सावधान रह कर वोट देने की अपील की थी.परन्तु बंग-बंधुओं ने उपेक्षा की और ममता जी को सत्ता सौंप दी.हिंदुस्तान ,लखनऊ के १२ जुलाई के सम्पादकीय का अवलोकन करें (चित्र ऊपर)तो स्पष्ट होगा उनका ध्येय क्या था? इसी प्रकार पं.बंगाल का शासन अब चलेगा जैसा २२ जून को टाटा कारखाने में सरकारी संरक्षण में लूट से जाहिर भी हो जाता है.यह कह कर बच के नहीं भागा जा सकता ग्रहों के प्रकोप का मुकाबला कैसे करें? प्रत्येक बात का उपचार और उपाय होता है.यदि बचाव करेंगें तो बचेंगें नहीं तो पिसेंगे.मेरा इरादा तो सार्वजनिक रूप से कुछ स्तुतियों और प्रार्थनाओं को जो अर्वाचीन ऋषि-मुनियों द्वारा रचित हैं ब्लॉग पर देने का था.किन्तु ममता जी के पूर्व मंत्रालय के आधीन कार्य-रत भ्रष्ट सर्जन और 'गर्व से....'के  प्रवक्ता द्वारा मेरे विचारों को 'मूर्खतापूर्ण कथा'कहने और उसका आर.एस.एस.के पिट्ठू ब्लागर्स द्वारा समर्थन करने के कारण उस प्रक्रिया को त्याग दिया.हालांकि उससे से असंख्य लोग लाभान्वित हो सकते थे.०२ जुलाई वाले लेख में आगे और भी कुछ चेतावनियाँ दी हैं.यदि समय रहते उपाय किये जाएँ तो घटनाओं को घटित होने से न रोक पाने के बावजूद जान-माल की सुरक्षा की जा सकती है.

ममता जी ने अपने दो वर्ष के रेल मंत्रित्व काल में रेलवे की सुरक्षा प्रणाली की और कतई ध्यान नहीं दिया.एक वर्ष से रेलवे बोर्ड में 'सदस्य यातायात' का पद खाली चला आ रहा है.यातायात की सुरक्षा कौन सुनिश्चित करे?यदि ये उपाय किये जाते तो भी इतनी जन-हानि नहीं होती.लेकिन बात जब 'गर्व से....'एवं संकीर्ण साम्प्रदायिकता के निर्वहन की हो तो वैज्ञानिक उपायों को कौन महत्त्व देता है?यदि अन्ना,रामदेव,रवि शंकर या आशा राम कुछ भी बहका दें तो लोग लपक कर उसे अपना लेंगे भले ही काफी नुक्सान भी उठाना पड़े .वैज्ञानिक उपाय बताना तो मूर्खतापूर्ण कथा के रूप में उपहास का हेतु बन जाता है.

राहुल की कवायद मायावती को सत्ता में वापिस लाने हेतु

हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक एवं आई.बी.एन.-७ के मेनेजिंग एडिटर महोदय अन्य गणमान्य लोगों की भाँती ही आज कल श्री राहुल गांधी के गुण-गान में लगे हुए हैं.पूरी की पूरी कारपोरेट लाबी राहुल को किसानों के मसीहा के रूप में पेश कर रही है.प्राचारित किया जा रहा है राहुल २०१२ के चुनावों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत यूं.पी. में दिला देंगें.बिहार में उनका करिश्मा देखा ही जा चूका है अब यहाँ भी देख लीजियेगा. राहुल गांधी जी की कृपा से मायावती जी आसान जीत के साथ सत्ता में वापिस आ जायेंगीं.

मुलायम सिंह जी जो बसपा को सत्ता में साझीदार बनाने का सर्व-प्रथम श्रेय रखते हैं.अब भाजपा के पूरक के रूप में कार्य कर रहे हैं.इसी लिए आर.एस.एस. समर्थित रामदेव जी का समर्थन करने में उन्होंने पल भर की भी देर नहीं की.यह बात पढ़े-लिखे लोगों को भले ही न समझ आये,परन्तु भोली समझी जाने वाली ग्रामीण जनता को खूब समझ में आती है.बाद में भाजपा ने भी बसपा को खूब सत्ता सुख दिलाया है.अब राहुल साहब प्रदेश सरकार की मुखालफत के नाम पर गांव वालों को भरमा रहे हैं.ऐसे में कांग्रेस की जितनी भी ताकत बढ़ेगी विपक्ष के वोट उतने ही बतेंगें और भाजपा को स्पष्ट लाभ होगा.परन्तु प्रदेश का मुस्लिम वोटर यदि भाजपा को सत्ता में आने देना चाहेगा तभी कांग्रेस को वोट देगा अन्यथा उसका थोक वोट भाजपा को हराने हेतु बसपा को ही मिलेगा जिसकी संभावना अधिक है.जाहिर है मायावती जी को राहुल के अभियान से लाभ ही लाभ है.यही कारण है जबानी हल्ले के अलावा राहुल के विरुद्ध कोई कारवाई बसपा सरकार ने नहीं की है.

क्या बसपा,भाजपा,कांग्रेस को एक साथ पराजित किया जा सकता है?

जवाब हाँ में हो सकता है यदि समझदारी से काम लिया जाए और बेवजह का अहंकार पाल कर नासमझी न बरती जाए तो.परन्ति ऐसी संभावना कम ही है जो अहंकार का त्याग किया जा सके.बिहार में लालू जी ने और यूं.पी.में मुलायम जी ने कम्यूनिस्ट आंदोलन को भारी क्षति पहुंचाई है एवं दोनों के सामने उसका परिणाम भी भुगतने को मिला है.गरीब किसान-मजदूर के हिमायती विधायिकाओं में नहीं पहुँच सके और उनका उत्पीडन-शोषण व्यापक रूप से बढ़ गया है.किसानों की उपजाऊ भूमि हडप कर सरकारें बिल्डरों को सौंप रही हैं जो कुछ राहत मिली है वह न्यायालय के कारण ही.

यदि मुलायम सिंह जी की कथनी और करनी एक है और वह सच में साम्प्रदायिक भाजपा को हराना चाहते हैं तो उन्हें अपनी सरकार बनाने का दावा छोडना होगा.कम्यूनिस्ट एवं किसान नेता का.अतुल कुमार अनजान जिनकी छवि भी उज्जवल है और जो जुझारू नेता भी हैं उनके नेतृत्व में मुलायम सिंह जी एक नया मोर्चा बनाने का मार्ग प्रशस्त करें भले ही इसके लिए उन्हें पूर्व कृत्य के लिए पश्चाताप भी करना पड़े,तब यह संभावना बन सकती है -कांग्रेस,भाजपा और बसपा जो तीनों वर्ग-चरित्र में एक ही हैं एक साथ सत्ता से दूर हो जाएँ.प्रदेश की जनता ऐसा ही चाहती भी है.अभी समय भी पर्याप्त है प्रयास किया जा सकता है,समय बीतने के साथ-साथ परिस्थितियां हाथ से निकलती जायेंगीं.

मुझे लगता है इस आंकलन को समझदार लोग दिवा स्वप्न कह कर उपहास उड़ाएंगें  और फिर एक बार नासमझी का परिचय देंगें.

Friday, July 8, 2011

विकास या विनाश

१९४७ में जब हमारा देश औपनिवेशिक गुलामी से आजाद हुआ था तो हमारे यहाँ सुई तक नहीं बंनती थी और आज हमारे देश में राकेट ,मिसाईलें तक बनने लगी हैं.विकास तो हुआ है जो दीख रहा है उसे झुठलाया नहीं जा सकता.लेकिन यह सारा विकास ,सारी प्रगति,सम्पूर्ण समृद्धि कुछ खास लोगों के लिए है शेष जनता तो आज भी भुखमरी,बेरोजगारी,कुपोषण आदि का शिकार है.गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर हुआ है.आजादी का अर्थ यह नहीं था.इसके लिए सरदार भगत सिंह,चंद्रशेखर आजाद,रामप्रसाद बिस्मिल,अश्फाक उल्लाह खां,रोशन लाल लाहिरी आदि अनेकों क्रांतिकारियों ने कुर्बानी नहीं दी थी.यह मार्ग विकास का नहीं ,विनाश का है.

विकास का लाभ आम जन को मिले इस उद्देश्य से प्रेरित नौजवानों नें नक्सलवाद का मार्ग अपना लिया और छत्तीस गढ की भाजपा सरकार ने इन्हें कुचलने हेतु 'सलवा-जुडूम' तथा एस पी ओ का गठन स्थानीय युवकों को लेकर कर लिया था जिसे भंग करने का आदेश देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि,"इस सशस्त्र विद्रोह के लिए सामजिक,आर्थिक विषमता,भ्रष्ट शासन तंत्र और 'विकास के आतंकवाद'  हैं".

जस्टिस बी.सुदर्शन रेड्डी का मत है-"मिडिल क्लास की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए हो रहे औद्योगिकीकरण व् अंधाधुंध माइनिंग के कारण किसान जमीन-जंगल से लगातार बेदखल हो रहे हैं.नक्सल आंदोलन के पैदल सिपाही यही किसान और आदिवासी हैं"

(Hindustan-08/07/2011-Lucknow-Page-16)


कोरिया की पास्को कं.को उड़ीसा में ५० वर्ष तक लौह अयस्क ले जाने हेतु किसानों की उपजाऊ जमीन दे दी गयी है लेकिन किसान कब्ज़ा नहीं छोड़ रहे हैं और ऐसा करना उनका जायज हक है.२४ जून को सारे देश में किसानों के प्रति एकजुटता प्रदर्शित करने हेतु 'पास्को विरोधी दिवस' मनाया गया था (इस ब्लाग में इस आशय का एक लेख भी दिया था),किन्तु अधिकाँश लोग अपने-अपने में मस्त थे,उन्हें उड़ीसा के गरीब किसानों से कोई मतलब नहीं था .नंदीग्राम और सिंगूर में हल्ला बोलने वाली मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी भी चुप्पी साधे रहीं.

'नया जमाना',सहारनपुर के संस्थापक संपादक स्व.कन्हैया लाल मिश्र'प्रभाकर' ने आर.एस.एस.नेता लिमये जी से एक बार कहा था कि शीघ्र ही दिल्ली की सत्ता के लिए सड़कों पर संघियों-कम्यूनिस्टों के मध्य संघर्ष होगा.दिल्ली नहीं तो छत्तीस गढ़ में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पूर्व यह हो ही रहा था.१९२५ में आजादी के आंदोलन को गति प्रदान करने हेतु जब 'भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी' का गठन किया गया तो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने पृष्ठपोषक बुद्धिजीवियों को बटोर कर आर.एस.एस.का गठन करवा दिया जिसने साम्राज्यवाद की सहोदरी 'साम्प्रदायिकता' को पाला-पोसा और अंततः देश का विभाजन करा दिया.१९४७ में हुआ विभाजन १९७१ में एक और विभाजन लेकर आया जिसने दो राष्ट्रों की थ्योरी को ध्वस्त कर दिया.भारत के ये तीनों हिस्से भीषण असमानता के शिकार हैं.तीनों जगह सत्ताधीशों ने अवैध्य कमाई के जरिये जनता का खून चूसा है.तीनों जगह आम जनता का जीवन यापन करना बेहद मुश्किल हो रहा है.सरकारें साम्राज्यवाद के आधुनिक मसीहा अमेरिका के इशारे पर काम कर रही हैं न कि अपने-अपने देश की जनता के हित में.

तीनों देशों में फिरकापरस्त लोग अफरा-तफरी फैला कर जीवन की मूलभूत समस्याओं से ध्यान हटा रहे हैं.लोक-लुभावन नारे लगा कर पूंजीपतियों के पिट्ठू ही साधारण जन को ठग कर सत्ता में पहुँच जाते हैं.जाती,धर्म.सम्प्रदाय,गोत्र ,क्षेत्रवाद की आंधी चला कर सर्व-साधारण को गुमराह कर दिया जाता है.जो लोग गरीबों के रहनुमा हैं किसानों और मजदूरों के हक के लड़ाका हैं वे अपने अनुयाइयों के वोट हासिल नहीं कर पते हैं और सत्ता से वंचित रह जाते हैं.नतीजा साफ़ है जो प्रतिनिधि चुने जाते हैं वे अपने आकाओं को खुश करने की नीतियाँ और क़ानून बनाते हैं ,आम जन तो उनकी वरीयता में होता ही नहीं है.

क्या आम जनता इसके लिए उत्तरदायी है?कुछ हद तक तो है ही क्योंकि वही तो जाती,धर्म ,सप्रदाय के बहकावे में गलत लोगों को वोट देकर भेजती है.लेकिन इसके लिए जिम्मेदार मुख्य रूप से समाज में प्रचलित अवैज्ञानिक मान्यताएं और धर्म के नाम पर फैले अंध-विशवास एवं पाखण्ड ही हैं.विज्ञान के अनुयायी और साम्यवाद के पक्षधर सिरे से ही धर्म को नकार कर अधार्मिकों के लिए मैदान खुला छोड़ देते हैं जिससे उनकी लूट बदस्तूर जारी रहती है और कुल नुक्सान साम्यवादी-विचार धारा तथा वैज्ञानिक सोच को ही होता है.

धर्म=जो धारण करता है वही धर्म है -यह धारणा कैसे अवैज्ञानिक और मजदूर-किसान विरोधी हो गयी.लेकिन किसान-मजदूर विरोधी लोग जम कर धर्म की गलत व्याख्या प्रस्तुत करके किसान और मजदूर को उलटे उस्तरे से लूट ले जाते हैं क्योंकि हम सच्चाई बताते ही नहीं तो लोग झूठे भ्रम जाल में फंसते चले जाते हैं.

भगवान=भूमि का 'भ'+गगन का 'ग'+वायु का 'व्'+अनल(अग्नि)का अ ='I'+नीर(जल)का' न ' मिलकर ही भगवान शब्द बना है यह कैसे अवैज्ञानिक धारणा हुयी,किन्तु हम परिभाषित नहीं करते तो ठग तो भगवान के नाम पर ही जनता को लूटते जाते हैं.

मंदिरों से प्राप्त खजाने इस बात का गवाह हैं कि ये मंदिर बैंकों की भूमिका में थे जहाँ समाज का धन सुरक्षित रखा गया था लेकिन आज इसे 'ट्रस्ट'के हवाले करके समृद्ध लोगों की मौज मस्ती का उपाय मुकम्मिल करने की बातें हो रही हैं.१९६२ में गोला बाजार,बरेली में हम लाला धरम प्रकाश जी के मकान में किराए पर रहते थे.जो दीवार कच्ची अर्थात मिट्टी की बनी थी उसे ढहा कर उन्होंने पक्की ईंटों की दीवार बनवाई .कच्ची दीवार से गडा खजाना निकला तुरंत पुलिस पहुँच गयी क्योंकि कानूनन पुराना खजाना सर्कार या समाज की संपत्ति है.पुलिस को भेंट चढा कर उन्होंने रिपोर्ट लगवा दी खजाने की खबर झूठी थी.लेकिन मंदिरों से प्राप्त खजाने की खबर तो झूठी नहीं है फिर इसे किसी ट्रस्ट को क्यों सौंपने की बातें उठ रही हैं ,यह क्यों नहीं सीधे सरकारी खजाने में जमा किया जा रहा है?यदि यह धन सरकारी खजाने में पहुंचे तो गरीब तबके के विकास और रोजगार की अनेकों योजनाएं परिपूर्ण हो सकती हैं.जो करोड़ों लोग भूख से बेहाल हैं उन्हें दो वक्त का भोजन नसीब हो सकता है.

कहीं भी किसी भी उपासना स्थल से प्राप्त होने वाला खजाना राष्ट्रीय धरोहर घोषित होना चाहिए न कि किसी विशेष हित -साधना का माध्यम बनना चाहिए.चाहे संत कबीर हों ,चाहे स्वामी दयानंद अथवा स्वामी विवेकानंद और चाहे संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डाक्टर अम्बेडकर सभी ने आम जन के हित पर बल दिया है न कि वर्ग विशेष के हित पर.अतः यदि समय रहते आम जन का समाज ने ख्याल नहीं किया तो आम जन बल प्रयोग द्वारा समाज से अपना हक हासिल कर ही लेगा.

Tuesday, July 5, 2011

सदाचार ही भ्रष्टाचार दूर कर सकता है --- विजय राजबली माथुर




(हिन्दुस्तान-लखनऊ-05/07/2011)

कल पूर्व प्रधानमंत्री स्व.गुलजारी लाल नंदा की ११३ वी जयंती 'नंदा स्मृति संस्थान'के तत्वाधान में गांधी भवन ,लखनऊ में मनाई गई,जिसमें विचारकों ने 'सदाचार'द्वारा भ्रष्टाचार दूर करने के नंदा जी के प्रयास को पुनर्जीवित किये जाने पर बल दिया.

गुलजारी लाल नंदा जी एक दबंग -ईमानदार व्यक्तित्व के धनी थे.सादगी पसंद नंदा जी को सितम्बर  १९६३ में नेहरू जी ने गृह मंत्री बनाया था.उनके निजी सचिव रहे श्री राम प्यारे त्रिवेदी ने बताया कि,तब उन्होंने लोक-सभा में कहा था,-"दुसरे विश्व युद्ध के बाद भारत में जो भ्रष्टाचार बढ़ा है,वह अभी शुरुआती दौर में है किन्तु यदि इसे रोका न गया तो यह रेगिस्तान बन कर विकास की दरिया को आगे बढ़ने नहीं देगा.इसलिए मैं दो वर्षों में भ्रष्टाचार मिटा देने का संकल्प लेता हूँ".

नंदा जी ने काफी सख्ती की और अपने निवास पर रोजाना जनता से उसकी समस्याएं सुन कर उनका समाधान कराना शुरू किया.भ्रष्ट लोगों को काफी पीड़ा हुई.एक रोज निर्धारित समय समाप्त होने से थोडा पहले एक व्यक्ति आया और लाईन में लगे दुसरे व्यक्ति को रु.५००/-देकर अगले दिन आने के लिए घर भेज दिया और खुद उसकी जगह लग गया.न.आने पर नंदा जी ने उसकी समस्या पूँछी तो वह बोला कि,मैं आपको यह बताने आया हूँ कि आप कभी भ्रष्टाचार दूर नहीं कर सकेंगें क्योंकि मैं भ्रष्टाचार के जरिये ही आप तक पहुंचा हूँ.उसने स्पष्ट किया कि जो व्यक्ति भ्रष्टाचार की शिकायत के लिए लाईन में खड़ा था उसे उसने रु.५००/-देकर भगा दिया और उन्हें सिर्फ यही बताने आया है.नंदा जी अपने निवास पर खेले गए भ्रष्टाचार के खेल से विस्मय में पड़ गए.वह उस व्यक्ति को कुछ जवाब देने में असमर्थ थे परन्तु उनको बोद्ध हो गया.
(शाहजहांपुर में 'नेशनल हेराल्ड'में यह समाचार तब पढ़ा था और याद है)

११ नवम्बर १९६६ को गृह मंत्री पद से त्याग-पत्र देने के बाद त्रिवेदी जी के अनुसार नंदा जी ने कहा-"मैं समझता था कि केंद्र सरकार में भ्रष्टाचार समाप्त कर देने की शक्ति है ,किन्तु वह शक्ति केवल समाज में है .इस दिशा में यदि मुझे एक अकेला सुझाव देने को कहा जाए तो मैं जनता से कहूंगा कि वह लोकपाल की नियुक्ति पर दबाव डाले ,जिसका कार्यक्षेत्र स्वतंत्र होगा".

अब से ४५ वर्ष पूर्व कार्यवाहक प्रधानमंत्री एवं गृह मंत्री रहे नंदा जी ने 'लोकपाल'नियुक्त किये जाने की बात कही थी और पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौडा जी के कार्यकाल में पहली बार लोकपाल बिल लोक सभा में पेश किया गया था जिसके पीछे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के गृह मंत्री का.इन्द्रजीत गुप्त और कृषि मंत्री का.चतुरानन मिश्र जी का दबाव था.लेकिन अन्ना और रामदेव की सपोर्टर भाजपा ने तब कांग्रेस से मिल कर उस सर्कार को गिरवा दिया था और आज तक उस बिल को पास होने नहीं दिया है.

हरियाणा की एक याचिका के आधार पर अन्ना के विरुद्ध दो लाख रु.गबन करने का मुकदमा अदालत में विचाराधीन है और वह भ्रष्टाचार दूर करने के मसीहा माने जा रहे हैं.रामदेव करोड़ों के घपले में फंसे हैं और नादान लोग उन्हें भ्रष्टाचार विरोधी संत कह रहे हैं.कितना क्रूर मजाक चल रहा है इस देश में ,चोर को कोतवाल बनाने की मुहिम चल रही है.विस्तृत जानकारी के लिए प्रेम सिंह जी के लेख का अवलोकन करें.

१९६९-७१ में जब बी.ए.में मेरठ कालेज में पढ़ रहा था तो हमारे पोलिटिकल साईंस के प्रो.के.सी.गुप्त जी बताया करते थे कि,भ्रष्टाचार पानी की भांति ऊपर से नीचे की और चलता है और 'सदाचार' धुएं की तरह नीचे से ऊपर की और उठता है.नंदा जी ने इसी लिए 'सदाचार समितियों' का गठन कराया था.उनका जोर समाज में सदाचार फ़ैलाने पर था ,यदि सम्पूर्ण समाज सदाचारी हो जाए तो भ्रष्टाचार टिक ही नहीं सकता.अतः समाज को सदाचारी बनाए बगैर भ्रष्टाचार दूर कर देनें की बातें कोरा ढकोसला ही हैं.समाज को भ्रष्ट बनाने में तथा-कथित धार्मिक कुरीतियों का ही प्रबल योगदान है.इन पर कौन कुठाराघात कर रहा है? अन्ना या रामदेव? इन दोनों को आर.एस.एस.समर्थन दे रहा है जो एक अर्ध-सैनिक संगठन है और वर्ग-विशेष की तानाशाही स्थापित करना जिसका मूल लक्ष्य है.लोकतंत्र समर्थकों को इस साजिश को समझना चाहिए.

नंदा जी दो बार प्रधानमंत्री रहे ,गृह मंत्री रहे और एक बार इंदिराजी के संकट के समय उनके रेल मंत्री भी रहे.उन पर भ्रष्टाचार की एक उंगली भी नहीं उठायी जा सकती.बेहद सादगी से सरल जीवन व्यतीत करते थे ,वह जिस अपार्टमेन्ट में दिल्ली में रहते थे अधिकाँश को पता भी नहीं था कि एक महान व्यक्तित्व भी उन्हीं के अपार्टमेन्ट में रह कर समाज सेवा कर रहा है.एक बार आग के धुएं में घिर कर नंदा जी बेहोश हो कर गिर पड़े थे -साधारण इंसान समझ कर किसी ने भी उन्हें मदद करना मुनासिब नहीं समझा,इत्तिफाक से एक जानकार की निगाह उन पर चली गयी तब उसने उन्हें रहत प्रदान कराई और गुजरात में प्राईवेट सेवारत उनके पुत्र को सूचित किया जो आकर उन्हें अपने साथ लिवा ले गए.समाज अपने एक ईमानदार राज नेता के लिए कुछ नहीं कर सका.

आज समाज से यदि सच में भ्रष्टाचार को दूर करना है तो नंदा जी के बताये मार्ग पर चल कर 'सदाचार समितियां ' बनाई जाएँ और समाज को सुधारा जाए,कुरीतियों को मिटाया जाए,ढोंग-पाखण्ड को नष्ट किया जाए .इतना करने पर भ्रष्टाचार तो खुद-ब- खुद ख़त्म हो जाएगा.


Saturday, July 2, 2011

कुछ इधर की कुछ उधर की

आज ०२ जूलाई को हमारे नगर में होम्योपैथी के जनक डा.हैनीमेन का निर्वाण दिवस मनाया जा रहा है और ०४ जूलाई को स्वामी विवेकानंद का भी निर्वाण दिवस है,इधर ग्रहों की आकाशीय स्थिति में भी जो परिवर्तन हो रहा है उसका भी व्यापक प्रभाव होगा अतः आज कुछ इधर की कुछ उधर की ---




महात्मा हैनीमेन जर्मनी में उत्पन्न हुए थे और वहीं पर एलोपैथी प्रेक्टिस करते थे.काफी धन कमा चुकने के बाद उन्हें बोद्ध हुआ कि,वह तो माला-माल हो गए किन्तु सभी मरीजों को सम्पूर्ण लाभ इस चिकित्सा पद्धति से न हो सका.उन्होंने प्रेक्टिस बंद कर दी और अनुसंधान में लग गए.एक दिन अचानक 'सिनकोना'की पत्तियां चबा लेने पर उन्हें कंपकपी लगने लगी.रासायनिक विश्लेषण करने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सादृश्य से सादृश्य का इलाज करने पर लाभ होता है क्योंकि 'सिनकोना'से बनी दवा 'कुनैन' मलेरिया के उपचार में काम आती थी और उसकी ताजी पत्तियां चबाने पर उसी के लक्षण उभरने लगे थे.

डा.हैनीमेन अब महात्मा हैनीमेन हो गए ,उन्होंने जन-कल्याण हेतु अनेक अनुसन्धान करके एक नयी चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया जो आज उन्हीं के नाम पर 'होम्योपैथी'कहलाती है.इस चिकित्सा पद्धति में लक्षणों के आधार पर दवा दी जाती है और व्यक्ति -विशेष पर आधारित होती है.अर्थात-स्त्री-पुरुष,मोटा-पतला,गोरा-काला,बच्चा-बड़ा के आधार पर एक ही बीमारी के लिए अलग-अलग दवा दी जाती है.ये दवाएं ज्यादातर 'शुगर आफ मिल्क'से बनी मीठी-मीठी गोलियों में दी जाती हैं,वैसे 'मदर टिन्चर' और 'रेकटी फाईड-स्प्रिट'द्वारा भी दवाओं का प्रयोग किया जाता है.

देश के ८ से १० प्रतिशत तथा यूं.पी. के १५ प्रतिशत बच्चों में पढाई सम्बंधित परेशानी आम हैं.चिकित्सा विज्ञान में इस रोग को 'लर्निंग डिसेबिलिटी'कहा जाता है.यों तो होम्योपैथी में अनेकों दवाएं इस रोग की हैं.परन्तु यदि याद-दाश्त कम हो तो परिक्षा से १० दिन पूर्व से 'एनाकार्डियम' ३० शक्ति में ४ टी.डी एस सेवन कराने से बच्चा परीक्षा में सुगमता से सफल हो जाता है उसे याद की बातें  ध्यान में बनी रहती हैं.

इसी प्रकार आज 'सीजेरियन' एक विकट समस्या है ,एलोपैथी में इसका प्रचलन अत्यधिक है,जो लोग आर्थिक रूप से समृद्ध और उतावले नहीं हैं वे होम्योपैथी द्वारा सुरक्षित लाभ उठा सकते हैं.'कोलोफाइलम'की ३० शक्ति ४ टी डी एस मात्रा आनुमानित प्रसव तिथि से एक माह पूर्व देना प्रारम्भ किया जाए तो बिना आपरेशन के नार्मल डिलीवरी हो जायेगी.आर्य वैदिक पद्धति में तो इस हेतु छः विशेष मन्त्र भी हैं जिनके द्वारा हवन करके बिना किसी दवा प्रयोग के आपरेशन बगैर नार्मल डिलीवरी हो सकती है.(कृपया कर्मकांडियों के झूठ से सावधान रहें क्योंकि उनके पास ये मन्त्र नहीं होंगें,किसी भी पुजारी के पास भी ये मन्त्र नहीं होंगें  ).

मांस-पेशियों में या किसी चोट के कारण बदन में दर्द हो तो बायोकेमिक 'मेग्नीशिया फास'६ शक्ति में ४ टी डी एस सेवन करें या शीघ्रता हेतु १०-१० -१० मिनट के अंतराल पर ३ मात्रा गोलियां चूसें या गर्म पानी में घोल कर लें तो तत्काल राहत मिल सकती है.

महात्मा हैनीमेन ने मानवता -हित में सस्ती,अचूक और निरापद चिकित्सा पद्धति उपलब्ध कराई है उनके आज निर्वाण दिवस पर हम उनका साभार स्मरण करते हैं.

स्वामी विवेकानंद




विवेकानंद जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है.उनके हाथ में हंस योग था और वे ३५ वर्ष की आयु पूर्ण करके इस संसार को छोड़ गए,किन्तु अत्यल्प समय में भी उन्होंने देश,समाज और सम्पूर्ण मानवता के लिए जो सन्देश दिया वह सदैव लागू किया जा सकता है.स्वामी जी पर साम्यवाद का पूरा प्रभाव था और इसी लिए उनका कहना था कि,जब तक सारे संसार में प्रत्येक गरीब की झोंपरी में दीपक नहीं जलता और प्रत्येक परिवार को रोटी नसीब नहीं होती संसार में खुश हाली नहीं आ सकती.

अफ़सोस की बात है कि साम्यवादियों के स्थान पर संघियों ने स्वामी विवेकानंद के विचारों को तोड़-मरोड़ कर साम्प्रदायिक रंग में रंग डाला है.'विवेकानंद विचार मंच'के माध्यम से संघ विवेका  नन्द जी का साम्प्रदायिक प्रयोग कर रहा है जब कि स्वामी जी के विचार साम्यवाद का प्रचार-प्रसार करने में सहायक हैं.

श्री शेष नारायण सिंह जी ने अपने ब्लाग में पहले ही स्पष्ट किया था कि,अन्ना का भाजपा साम्प्रदायिक प्रयोग कर रही है,उसकी पुष्टि -हिंदुस्तान,लखनऊ के प्रथम पृष्ठ में छपे इस समाचार से होती है.

Hindustan-Lucknow-02/07/2011


०४ जूलाई को स्वामी विवेकानंद जी की पुण्य-तिथि है ,इस अवसर पर हमें जनता को जाग्रत करना चाहिए कि स्वामी जी वस्तुतः क्या कहते थे,वह क्या चाहते थे.यह साम्यवादियों का कर्तव्य है कि स्वामी विवेकानंद के विचारों का साम्प्रदायिक दरुपयोग न होने दें.

गुप्त नवरात्र (०२ जूलाई-०९ जूलाई २०११)

वर्षा ऋतु में आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक नव-रात्र होते हैं जिन्हें अब गुप्त रखा गया है (कर्मकांडियों द्वारा)जबकि सभी को अपने स्वास्थ्य रक्षा हेतु इस अवधि  में हवन करना चाहिए जिससे पर्यावरण भी शुद्ध रहता है कीटाणुओं से छुटकारा भी मिलता है.

इस अवसर पर इधर हो रहे ग्रहों के परिवर्तन का असर क्या-क्या हो सकता है,निर्णय सागर पंचांग के अनुसार कुछ का उल्लेख प्रस्तुत है-

राहू-मंगल एक-दुसरे से सप्तम अर्थात १८० डिग्री पर हैं जिनके प्रभाव से जन,धन की क्षति और प्रथ्वी पर उथल-पुथल होने की संभावना है.
सूर्य-शुक्र के एक ही राशि (मिथुन)में होने से वर्षा अच्छी हो ही रही है.कृषी को लाभ रहेगा.

गुरु मेष राशी और शनि के कन्या राशी में होने से षडाष्टक योग बन रहा है जिसके परिणामस्वरूप शासन तंत्र को विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा ,श्रमिकों के कोप का सामना करना पड़ेगा.(पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ा कर सर्कार ने आग में घी झोंक ही दिया है).यान-खान दुर्घटनाओं के भी योग इससे उत्पन्न हो रहे हैं और स्वास्थ्य एवं राहत कार्यों हेतु विशेष व्यय करना पड़ेगा.

२३ जूलाई से २६ सितम्बर २०११ तक शुक्र तारा अस्त रहेगा.इसके प्रभाव से व्यापारियों के प्रति शासन का कडा रुख रहेगा.मिथुन राशि वालों  पर तथा मालवा,गुर्जर सौराष्ट्र भाग में आपदाएं असर डालेंगीं. पश्चिमी तट पर सागर में चक्रावात आदि आने से क्षति होगी.सेना और सेक्रेटरीज के लिए भारी रहेगा.

१३ अगस्त २०११ को रक्षाबंधन (श्रावणी पूर्णिमा)भी शनिवार को पड़ रही है  जबकि ३० जून की अमावस्या भी शनिवार को थी.परिणामतः रोग-शोक की वृद्धि,निर्धन लोगों पर कष्ट,पशुओं तथा मनुष्यों के स्वास्थ्य में न्यूनता,रहने की संभावना है.लिहाजा सर्कार द्वारा विशेष व्यय भी संभावित है.अन्ना को खुला साम्प्रदायिक समर्थन मिलने से जनता के बीच सौहाद्र नष्ट होने की भी सम्भावना प्रबल है.१९७४ में लोकनायक जयप्रकाश के सप्तक्रांति आन्दोलन में घुस कर भ्रष्टाचार को आवरण बना कर जनसंघ ने अपनी ताकत बढ़ा ली थे,फिर १९८८-८९ में वी.पी.सिंह के बोफोर्स भ्रष्टाचार आन्दोलन में घुस कर उनकी सर्कार को नचाया -गिराया और अंततः १९९८-२००० तक खुद के नेत्रित्व में सरकार चलाई.आज फिर अन्ना -आन्दोलन में घुस कर भाजपा-संघ अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं न कि भ्रष्टाचार का खात्मा करना.बगैर धार्मिक भ्रष्टाचार दूर किये आर्थिक भ्रष्टाचार दूर करने की बातें केवल आकाश-कुसुम तोडना ही है.