Wednesday, November 29, 2017
Saturday, November 25, 2017
वर्तमान शासकों को जनमत के आगे झुकाने हेतु नेहरू की प्रासंगिकता ------ विजय राजबली माथुर
26 नवंबर 1949 को संविधानसभा ने वर्तमान संविधान को स्वीकृत किया था जिसे 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया है । वर्तमान सत्तारूढ़ दल जिसे ध्वस्त करने की दिशा में बढ़ रहा है उस संविधान को भले ही डॉ बी आर अंबेडकर की अध्यक्षता वाली समिति ने बनाया और डॉ राजेन्द्र प्रसाद के सभापतित्व वाली संविधानसभा ने स्वीकृत किया किन्तु इसे स्वीकृत कराने और फिर लागू करने में टटकाली प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का भारी अतुलनीय योगदान रहा है। अतः संविधान की रक्षा हेतु नेहरू युग की नीतियों को पुनः बहाल करना जनहित में आवश्यक है ।
नेहरू जी द्वारा तानाशाही के प्रति चेतावनी :
धर्मयुग 13 नवंबर 1977 के अंक में शिव प्रसाद सिंह जी ने अपने लेख में ज़िक्र किया है कि ," नेहरू जी का सांस्कृतिक व्यक्तित्व एक स्वप्न दृष्टा का व्यक्तित्व था " । उन्होने यह भी उल्लेख किया है कि नेहरू जी जनता की उनके प्रति प्रतिक्रिया को काफी महत्व देते थे। इसी क्रम में नेहरू जी ने 'चाणक्य ' नामक छद्यम रूप से एक लेख लिखा था -"एक हल्का सा झटका और बस जवाहर लाल मंथर गति से चलने वाले जनतंत्र के टंट-घंट को एक तरफ करके तानाशाह में बदल सकते हैं। वे तब भी शायद प्रजातन्त्र और समाजवाद की शब्दावली और नारे दोहराते रहेंगे, लेकिन हम जानते हैं कि किस तरह तानाशाहों ने इस तरह के नारों से अपने को मजबूत किया है। और कैसे समय आने पर इन्हें बकवास कह कर एक तरफ झटक दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वे शायद सफल और योग्य शासक बने रहते , परंतु इस क्रांतिकारी युग में , सीजरशाही हमेशा ताक में बैठी रहती है और क्या यह संभव नहीं है कि नेहरू सीजर की भूमिका में उतरनेकी कल्पना कर रहे हों। "
शिव प्रसाद जी ने लिखा है कि इस लेख में व्यक्त विचारों के कारण जनता उस 'चाणक्य' को मारने/ फांसी देने को इच्छुक हो गई तब नेहरू जी को खुलासा करना पड़ा कि वह खुद इसके लेखक है इस खुलासे ने विस्मय उत्पन्न कर दिया था।
नेहरू जी की उदारता :
पूर्व पी एम बाजपेयी साहब ने भी नेहरू जी की उदारता का ज़िक्र करते हुये बताया था कि जब वह पहली बार सांसद बने थे तो लोकसभा की एक बैठक में जम कर नेहरू जी के परखचे उघाड़े थे लेकिन नेहरू जी चुपचाप सुनते रहे थे। उसी शाम राष्ट्रपति भवन में एक भोज था जिसमें वह नेहरू जी का सामना करने से बच रहे थे, किन्तु नेहरू जी खुद चल कर उनके पास आए और उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा 'शाबाश नौजवान ' इसी तरह डटे रहो तुम एक दिन ज़रूर इस देश के प्रधानमंत्री बनोगे।
पीटर रोनाल्ड डिसूजा साहब का लेख ज़िक्र करता है कि, बाद में नेहरू जी की इस सहिष्णुता का परित्याग कर दिया गया। भीष्म नारायण सिंह जी ने भी उदारीकरण के इस दौर में नेहरू जी की प्रासंगिकता की और ज़रूरत को रेखांकित किया है।
नेहरू जी और उनकी नीतियों पर आक्रामक प्रहार :
लेकिन हम व्यवहार में देखते हैं कि 1977 के मुक़ाबले आज 40 वर्षों बाद नेहरू जी और उनकी नीतियों पर आक्रामक प्रहार किए जा रहे हैं। उस समय की मोरारजी देसाई की जपा सरकार के मुक़ाबले आज की भाजपाई मोदी सरकार तो नेहरू जी का नामोनिशान तक मिटा देने पर आमादा है। नेहरू जी ने यू एस ए अथवा रूस के खेमे में जाने के बजाए यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो तथा मिश्र के कर्नल अब्दुल गामाल नासर के साथ मिल कर एक 'गुट निरपेक्ष' खेमे को खड़ा करके दोनों के मध्य संतुलन बनाने का कार्य किया था। आज की मोदी सरकार ने यू एस ए के समक्ष ही नहीं देश के कारपोरेट घरानों के समक्ष भी आत्म समर्पण कर दिया है। नेहरू जी ने देश में मिश्रित अर्थ व्यवस्था लागू की थी और योजना आयोग के माध्यम से विकास का खाका खींचा था जिसने देश को आत्म-निर्भर बना दिया था। अब योजना आयोग समाप्त किया जा चुका है और सार्वजानिक क्षेत्र को समाप्त किए जाने की जो प्रक्रिया बाजपेयी नीत भाजपा सरकार ने शुरू की थी उसे पूर्ण सम्पन्न करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए बने क़ानूनों को समाप्त या निष्प्रभावी किया जा रहा है।'चाणक्य ' नाम से नेहरू जी ने जो लिखा था वह मोदी साहब पर लागू होने के आसार साफ-साफ नज़र आ रहे हैं। जनता त्राही-त्राही कर रही है जो नेहरू जी जनता की प्रतिक्रिया को महत्व देते थे उनके आज के उत्तराधिकारी जनता को महत्वहीन मानते हुये कुचलने पर आमादा हैं। ऐसे में वर्तमान शासकों को जनमत के आगे झुकने के लिए मजबूर करने के लिए नेहरू जी के कार्यों व उनकी नीतियों को बहाल करने की मांग उठाना आज वक्त की जोरदार ज़रूरत है।
~विजय राजबली माथुर ©
Sunday, November 19, 2017
इंदिराजी की जल्दबाजी और अदूरदर्शी चूकों पर भी गौर कर लिया जाये ------ विजय राजबली माथुर
****** इंदिराजी के जन्मदिन पर आज उनको याद करने,नमन करने और उनकी प्रशंसा के गीत गाने के साथ-साथ ज़रा उनकी जल्दबाजी और अदूरदर्शी चूकों पर भी गौर कर लिया जाये और उनसे बचने का मार्ग ढूँढना शुरू किया जाये तो देशहित में होगा व इंदिराजी को भी सच्ची श्रद्धांजली होगी।******
इतिहासकार सत्य का अन्वेषक होता है उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल में प्रविष्ट होकर ' तथ्य के मोतियों ' को सामने लाती हैं । इन्दिरा जी का कार्यकाल इतना भी भूतकाल नहीं है जो उसको ज्ञात करने के लिए किसी विशेष अनुसंधान की आवश्यकता पड़े। खेद की बात है कि, प्रोफेसर मृदुला मुखर्जी साहिबा ने इन्दिरा जी के कार्यकाल के प्रथम भाग के आधार पर उनका चित्रण किया है जबकि, उनके कार्यकाल के दिवतीय भाग के अलग आचरण की अवहेलना नज़र आती है। दो वर्ष पूर्व प्रकाशित अपने एक लेख का ज़िक्र इस अवसर पर पुनः करना अपना दायित्व समझता हूँ ------
इतिहासकार सत्य का अन्वेषक होता है उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल में प्रविष्ट होकर ' तथ्य के मोतियों ' को सामने लाती हैं । इन्दिरा जी का कार्यकाल इतना भी भूतकाल नहीं है जो उसको ज्ञात करने के लिए किसी विशेष अनुसंधान की आवश्यकता पड़े। खेद की बात है कि, प्रोफेसर मृदुला मुखर्जी साहिबा ने इन्दिरा जी के कार्यकाल के प्रथम भाग के आधार पर उनका चित्रण किया है जबकि, उनके कार्यकाल के दिवतीय भाग के अलग आचरण की अवहेलना नज़र आती है। दो वर्ष पूर्व प्रकाशित अपने एक लेख का ज़िक्र इस अवसर पर पुनः करना अपना दायित्व समझता हूँ ------
इन्दिरा गांधी का वर्तमान केंद्र सरकार के निर्माण में योगदान :
VIJAI RAJBALI MATHUR·THURSDAY, NOVEMBER 19, 2015
1966 में लाल बहादुर शास्त्री जी के असामयिक निधन के बाद सिंडीकेट (के कामराज नाडार, अतुल घोष, सदाशिव कान्होजी पाटिल, एस निज लिंगप्पा, मोरारजी देसाई ) की ओर से मोरारजी देसाई कांग्रेस संसदीय दल के नेता पद के प्रत्याशी थे जबकि कार्यवाहक प्रधानमंत्री नंदा जी व अन्य नेता गण की ओर से इंदिरा जी । अंततः इन्दिरा जी का चयन गूंगी गुड़िया समझ कर हुआ था और वह प्रधानमंत्री बन गईं थीं। 1967 के आम चुनावों में उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस का पराभव हो गया व संविद सरकारों का गठन हुआ। पश्चिम बंगाल में अजोय मुखर्जी (बांग्ला कांग्रेस ),बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा (जन क्रांति दल ),उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह (जन कांग्रेस - चन्द्र् भानु गुप्त के विरुद्ध बगावत करके ) , मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह (द्वारिका प्रसाद मिश्र के विरुद्ध बगावत करके ) मुख्यमंत्री बने ये सभी कांग्रेस छोड़ कर हटे थे। केंद्र में फिर से मोरारजी देसाई ने इंदिरा जी को टक्कर दी थी लेकिन उन्होने उनसे समझौता करके उप-प्रधानमंत्री बना दिया था। 1969 में 111 सांसदों के जरिये सिंडीकेट ने कांग्रेस (ओ ) बना कर इन्दिरा जी को झकझोर दिया लेकिन उन्होने वामपंथ के सहारे से सरकार बचा ली। 1971 में बांगला देश निर्माण में सहायता करने से उनको जो लोकप्रियता हासिल हुई थी उसको भुनाने से 1972 में उनको स्पष्ट बहुमत मिल गया किन्तु 1975 में एमर्जेंसी के दौरान हुये अत्याचारों ने 1977 में उनको करारी शिकस्त दिलवाई। मोरारजी प्रधानमंत्री बन गए और उनके विदेशमंत्री ए बी बाजपेयी व सूचना प्रसारण मंत्री एल के आडवाणी। इन दोनों ने संघियों को प्रशासन में ठूंस डाला। इसके अतिरिक्त गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह के पीछे ए बी बाजपेयी,पी एम मोरारजी के पीछे सुब्रमनियम स्वामी तथा जपा अध्यक्ष चंद्रशेखर के पीछे नानाजी देशमुख छाया की तरह लगे रहे और प्रशासन को संघी छाप देते चले। संघ की दुरभि संधि के चलते मोरारजी व चरण सिंह में टकराव हुआ और इंदिराजी के समर्थन से चरण सिंह पी एम बन गए।
एमर्जेंसी के दौरान हुये मधुकर दत्तात्रेय 'देवरस'- इन्दिरा (गुप्त ) समझौते को आगे बढ़ाते हुये चरण सिंह सरकार गिरा दी गई और 1980 में संघ के पूर्ण समर्थन से इन्दिरा जी की सत्ता में वापसी हुई। अब संघ के पास (पहले की तरह केवल जनसंघ ही नहीं था ) भाजपा के अलावा जपा और इन्दिरा कांग्रेस भी थी। संघ के इशारे पर केंद्र में सरकारें बनाई व गिराई जाने लगीं। सांसदों पर उद्योपातियों का शिकंजा कसता चला गया। 1996 में 13 दिन, 1998 में 13 माह फिर 1999 में पाँच वर्ष ए बी बाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र सरकार का भरपूर संघीकरण हुआ। 2004 से 2014 तक कहने को तो मनमोहन सिंह कांग्रेसी पी एम रहे किन्तु संघ के एजेंडा पर चलते रहे। 1991 में जब वह वित्तमंत्री बन कर ‘उदारीकरण ‘ लाये थे तब यू एस ए जाकर आडवाणी साहब ने उसे उनकी नीतियों को चुराया जाना बताया था। स्पष्ट है कि वे नीतियाँ संघ व यू एस ए समर्थक थीं। जब सोनिया जी ने प्रणव मुखर्जी साहब को पी एम बना कर मनमोहन जी को राष्ट्रपति बनाना चाहा था तब तक वह हज़ारे /रामदेव/केजरीवाल आंदोलन खड़ा करवा चुके थे। 2014 के चुनावों में 100 से अधिक कांग्रेसी मनमोहन जी के आशीर्वाद से भाजपा सांसद बन कर वर्तमान केंद्र सरकार के निर्माण में सहायक बने हैं।
यदि इंदिरा जी ने 1975 में 'देवरस'से समझौता नहीं किया होता व 1980 में संघ के समर्थन से चुनाव न जीता होता तब 1984 में राजीव जी भी संघ का समर्थन प्राप्त कर बहुमत हासिल नहीं करते। विभिन्न दलों में भी संघ की खुफिया घुसपैठ न हुई होती।
इंदिराजी के जन्मदिन पर आज उनको याद करने,नमन करने और उनकी प्रशंसा के गीत गाने के साथ-साथ ज़रा उनकी जल्दबाजी और अदूरदर्शी चूकों पर भी गौर कर लिया जाये और उनसे बचने का मार्ग ढूँढना शुरू किया जाये तो देशहित में होगा व इंदिराजी को भी सच्ची श्रद्धांजली होगी।
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प्रोफेसर मृदुला मुखर्जी साहिबा ने इस तथ्य को भी नहीं इंगित किया है कि, 1977 के चुनावों में पराजित होने के बाद इंदिराजी भयभीत हो गईं थीं और उनको पुनः सत्ता वापिसी की उम्मीद नहीं थी इसलिए मोरारजी देसाई की सरकार को परेशान करने हेतु पंजाब में भिंडरावाला के माध्यम से खालिस्तान आंदोलन खड़ा करवाया था उनके सम्मेलन में भाग लेने अपने पुत्र संजय गांधी को भी भेजा था। परंतु संजय के प्रयासों से 1980 में पुनः सत्तासीन होने और फिर संजय के निधन के बाद वह चाह कर भी इस आंदोलन को ठंडा नहीं कर पाईं और अपने दूसरे पुत्र राजीव गांधी से भिंडरावाला को 'इस सदी के महान संत ' का खिताब दिलवाने के बावजूद भी उनके राज़ी न होने पर जून 1984 में सैनिक कारवाई के जरिये भिंडरावाला को खत्म किया गया जिसकी प्रतिक्रिया में उसी वर्ष अक्तूबर में उनकी हत्या हुई और जिसके बाद देशव्यापी सिख विरोधी दंगे हुये। ये गतिविधियेँ निश्चित तौर पर ' सांप्रदायिक ' ही थीं।
(होने जा रहे गुजरात के इन चुनावों में इन्दिरा जी के पौत्र और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जिस साफ्ट हिन्दुत्व का सहारा ले रहे हैं उसके पीछे भी आर एस एस से प्रभावित वहाँ की जनता और उस संगठन की सहानुभूति प्राप्त करना ही है। यदि वहाँ कांग्रेस सरकार गठित होती है तो 1980 व 1984 की भांति उसके पीछे आर एस एस का समर्थन ही होगा जो मोदी को नियंत्रित करने की उसकी एक चाल मात्र ही होगी। )
~विजय राजबली माथुर ©
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फेसबुक कमेंट्स :
प्रोफेसर मृदुला मुखर्जी साहिबा ने इस तथ्य को भी नहीं इंगित किया है कि, 1977 के चुनावों में पराजित होने के बाद इंदिराजी भयभीत हो गईं थीं और उनको पुनः सत्ता वापिसी की उम्मीद नहीं थी इसलिए मोरारजी देसाई की सरकार को परेशान करने हेतु पंजाब में भिंडरावाला के माध्यम से खालिस्तान आंदोलन खड़ा करवाया था उनके सम्मेलन में भाग लेने अपने पुत्र संजय गांधी को भी भेजा था। परंतु संजय के प्रयासों से 1980 में पुनः सत्तासीन होने और फिर संजय के निधन के बाद वह चाह कर भी इस आंदोलन को ठंडा नहीं कर पाईं और अपने दूसरे पुत्र राजीव गांधी से भिंडरावाला को 'इस सदी के महान संत ' का खिताब दिलवाने के बावजूद भी उनके राज़ी न होने पर जून 1984 में सैनिक कारवाई के जरिये भिंडरावाला को खत्म किया गया जिसकी प्रतिक्रिया में उसी वर्ष अक्तूबर में उनकी हत्या हुई और जिसके बाद देशव्यापी सिख विरोधी दंगे हुये। ये गतिविधियेँ निश्चित तौर पर ' सांप्रदायिक ' ही थीं।
(होने जा रहे गुजरात के इन चुनावों में इन्दिरा जी के पौत्र और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जिस साफ्ट हिन्दुत्व का सहारा ले रहे हैं उसके पीछे भी आर एस एस से प्रभावित वहाँ की जनता और उस संगठन की सहानुभूति प्राप्त करना ही है। यदि वहाँ कांग्रेस सरकार गठित होती है तो 1980 व 1984 की भांति उसके पीछे आर एस एस का समर्थन ही होगा जो मोदी को नियंत्रित करने की उसकी एक चाल मात्र ही होगी। )
~विजय राजबली माथुर ©
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Saturday, November 18, 2017
शहीद - ए - आजम के क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के जन्मदिवस दिवस पर नमन्
बटुकेश्वर दत्त (१८ नवंबर १९०८ - २० जुलाई १९६५) :
~विजय राजबली माथुर ©
बटुकेश्वर दत्त एक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी हैं जिनका जन्म 18 नवम्बर, 1908 में कानपुर में हुआ था। उनका पैतृक गाँव बंगाल के 'बर्दवान ज़िले ' में था, पर पिता 'गोष्ठ बिहारी दत्त ' कानपुर में नौकरी करते थे। बटुकेश्वर ने 1925 ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की और तभी माता व पिता दोनों का देहान्त हो गया। इसी समय वे सरदार भगतसिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद के सम्पर्क में आए और क्रान्तिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’ के सदस्य बन गए। सुखदेव और राजगुरु के साथ भी उन्होंने विभिन्न स्थानों पर काम किया।
प्रतिशोध की भावना :
विदेशी सरकार जनता पर जो अत्याचार कर रही थी, उसका बदला लेने और उसे चुनौती देने के लिए क्रान्तिकारियों ने अनेक काम किए। 'काकोरी' ट्रेन की लूट और लाहौर के पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या इसी क्रम में हुई। तभी सरकार ने केन्द्रीय असेम्बली में श्रमिकों की हड़ताल को प्रतिबंधित करने के उद्देश्य से एक बिल पेश किया। क्रान्तिकारियों ने निश्चय किया कि वे इसके विरोध में ऐसा क़दम उठायेंगे, जिससे सबका ध्यान इस ओर जायेगा।
असेम्बली बम धमाका :
8 अप्रैल, 1929 ई. को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दर्शक दीर्घा से केन्द्रीय असेम्बली के अन्दर बम फेंककर धमाका किया। बम इस प्रकार बनाया गया था कि, किसी की भी जान न जाए। बम के साथ ही ‘लाल पर्चे’ की प्रतियाँ भी फेंकी गईं। जिनमें बम फेंकने का क्रान्तिकारियों का उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। दोनों ने बच निकलने का कोई प्रयत्न नहीं किया, क्योंकि वे अदालत में बयान देकर अपने विचारों से सबको परिचित कराना चाहते थे। साथ ही इस भ्रम को भी समाप्त करना चाहते थे कि काम करके क्रान्तिकारी तो बच निकलते हैं, अन्य लोगों को पुलिस सताती है।
आजीवन कारावास :
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त दोनों गिरफ्तार हुए, उन पर मुक़दमा चलाया गया। 6 जुलाई, 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अदालत में जो संयुक्त बयान दिया, उसका लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। इस मुक़दमें में दोनों को आजीवन कारावास की सज़ा हुई। बाद में लाहौर षड़यंत्र केस में भी दोनों अभियुक्त बनाए गए। इससे भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा हुई, पर बटुकेश्वर दत्त के विरुद्ध पुलिस कोई प्रमाण नहीं जुटा पाई। उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा भोगने के लिए अण्डमान भेज दिया गया।
रिहाई :
इसके पूर्व राजबन्दियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार के लिए भूख हड़ताल में बटुकेश्वर दत्त भी सम्मिलित थे। यही प्रश्न जब उन्होंने अण्डमान में उठाया तो, उन्हें बहुत सताया गया। गांधीजी के हस्तक्षेप से वे 1938 ई. में अण्डमान से बाहर आए, पर बहुत दिनों तक उनकी गतिविधियाँ प्रतिबन्धित रहीं। 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में भी उन्हें गिरफ्तार किया गया था। छूटने के बाद वे पटना में रहने लगे थे।
12 जून 1929 को इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी. बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए। बटुकेश्वर दत्त अपनी आखिरी दिनों में अभाव में गुजारे! चाहते तो वो भी अपनी पहचान का उपयोग करके आसानी से ऐश की जिंदगी जीते . पर ऐसे मतवाले क्रांतिकारियों को देश ही सब कुछ होता है और इन्हें सिद्धानतों के सिवा कुछ भी मंजूर नहीं होता
12 जून 1929 को इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी. बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए। बटुकेश्वर दत्त अपनी आखिरी दिनों में अभाव में गुजारे! चाहते तो वो भी अपनी पहचान का उपयोग करके आसानी से ऐश की जिंदगी जीते . पर ऐसे मतवाले क्रांतिकारियों को देश ही सब कुछ होता है और इन्हें सिद्धानतों के सिवा कुछ भी मंजूर नहीं होता
निधन :
एक दुर्घटना में घायल हो जाने के कारण दत्त की मृत्यु 20 जुलाई, 1965 को नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। मृत्यु के बाद इनका दाह संस्कार इनके अन्य क्रांतिकारी साथियों-भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की समाधि स्थल पंजाब के हुसैनी वाला,फिरोजपुर में किया गया आज वहीं उनकी समाधि है।
साभार :
~विजय राजबली माथुर ©
Saturday, November 11, 2017
विरोध की आवाज़ को सुनने की जगह दबाना शासकों के लिए ही घातक होता रहा है ------ विजय राजबली माथुर
आज फिर मोदी सरकार उसी किस्म की हेंकड़ी पर चलते हुये बिना सेंसरशिप के चापलूस प्रेस के जरिये जनता को अंधेरे में रखने का प्रयत्न कर रही है। फिर भी मुखर होने वाले पत्रकारों, चिंतकों, लेखकों, नेताओं की हत्यायें सरकार समर्थकों द्वारा की जा रही हैं।
यू एस ए के प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रम्प साहब का कहना है भारत को मोदी साहब एक करने की कोशिश कर रहे हैं।
असहमति की आवाज़ को कुचल कर दबा कर एक कैसे किया जा रहा है उसी का एक नमूना हि यु वाहिनी के लोगों ने तहज़ीब की नगरी लखनऊ में 10 नवंबर को छात्र नेता कन्हैया कुमार के साथ पेश किया। ------
देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी विरोध या असहमति का मान करते थे और इसे दबाने के प्रयासों को अच्छा नहीं मानते थे। डॉ राम मनोहर लोहिया को तो वह काफी ध्यान से सुनते ही थे। जनसंघ के नए युवा सांसद ए बी बाजपेयी को भी उन्होने धैर्य पूर्वक सुना था।खुद बाजपेयी साहब ने इसका ज़िक्र किया था कि अपने जोरदार भाषण के जरिये उन्होने नेहरू जी व सरकार की कड़ी आलोचना लोकसभा में की थी और उसी रोज़ शाम को राष्ट्रपति भवन में भोज कार्यक्रम में वह नेहरू जी का सामना करने से बच रहे थे लेकिन नेहरू जी ने पास आ कर उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा - ' शाबाश नौजवान इसी तरह जोश को कायम रखो तुम एक दिन ज़रूर देश के प्रधानमंत्री बनोगे। '
शुरू शुरू में इन्दिरा गांधी ने भी सब विपक्षी नेताओं को सुनने की परंपरा कायम रखी थी किन्तु 1975 में एमर्जेंसी लगाने के बाद उनके द्वारा प्रेस की स्वतन्त्रता का भी गला घोंट दिया गया। प्रमुख विपक्षी नेताओं यहाँ तक कि, डायलिसिस पर चल रहे जे पी को भी गिरफ्तार करवा लिया था। इंडियन एक्स्प्रेस की बिजली कटवाने पर तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री इंदर कुमार गुजराल द्वारा आपत्ति जतलाये जाने पर उनको मास्को राजदूत बना कर भेज दिया था।
परिणाम यह हुआ कि, अखबारों के बजाए विरोध प्रचार के लिए साईकिलोस्टाईल पर्चों का इस्तेमाल होने लगा जिसकी भनक तक खुफिया विभागों को न लग सकी। सरकारी कर्मचारी और खुफिया विभाग के अधिकारी तक तानाशाही वाले फर्मानों से आजिज़ आ गए थे और वे भी सरकार तक सही सूचना नहीं पहुंचा रहे थे, अखबारों को तो खुद सरकार ने ही सेंसर कर रखा था। इन्दिरा जी अपनी ही धुन में मस्त थीं उन्होने लोकसभा के बढ़ाए हुये कार्यकाल के बावजूद एक वर्ष पूर्व ही चुनावों की घोषणा कर दी उनकी सोच थी कि वह पुनः भारी बहुमत से वापिस आ जाएंगी।
उस वक्त मैं निर्माणाधीन होटल मुगल, आगरा के लेखा विभाग में कार्यरत था । हमारे सिक्यूरिटी आफिसर साहब रिटायर्ड DSP इंटेलिजेंस थे वह मुझसे मित्रवत व्यवहार रखते थे । क्यों ? तो वही जानते होंगे मैं नहीं जान सका । उनके पास तत्कालीन इंटेलिजेंस इंस्पेक्टर्स मिलने आते रहते थे उनकी वजह से मेरी भी उन सबसे जान - पहचान हो गई थी। अतः हम लोगों को मालूम था कि, इन चुनावों में इन्दिरा जी अपनी पार्टी समेत बुरी तरह से हारने जा रही हैं और वही हुआ था।
यदि प्रेस सेंसरशिप नहीं होती विपक्षी नेता गण जेल में न होते तो सारी गतिविधियों का सरकार को सही - सही पता रहता और वह अपना बचाव सुचारु रूप से कर सकती थी।
आज फिर मोदी सरकार उसी किस्म की हेंकड़ी पर चलते हुये बिना सेंसरशिप के चापलूस प्रेस के जरिये जनता को अंधेरे में रखने का प्रयत्न कर रही है। फिर भी मुखर होने वाले पत्रकारों, चिंतकों, लेखकों, नेताओं की हत्यायें सरकार समर्थकों द्वारा की जा रही हैं।कल 10 नवंबर को छात्र नेता कन्हैया कुमार के साथ सत्ताधीशों के चहेतों द्वारा जो बर्ताव किया गया और आगे का कार्यक्रम जिलाधिकारी द्वारा रद्द कर दिया गया वह सब 1975 वाली एमर्जेंसी की पुनरावृत्ति ही है। हो सकता है इस बार का गुजरात और फिर 2019 का लोकसभा चुनाव सत्ताधारी गफलत से जीत भी लें लेकिन तब जो जनाक्रोश पनपेगा उसका किंचित मात्र भी आभास सत्तारूढों को पहले से कतई नहीं लग सकेगा लेकिन वह इन दमनकारियों को भी रसातल में पहुंचा ज़रूर देगा।
~विजय राजबली माथुर ©
यू एस ए के प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रम्प साहब का कहना है भारत को मोदी साहब एक करने की कोशिश कर रहे हैं।
असहमति की आवाज़ को कुचल कर दबा कर एक कैसे किया जा रहा है उसी का एक नमूना हि यु वाहिनी के लोगों ने तहज़ीब की नगरी लखनऊ में 10 नवंबर को छात्र नेता कन्हैया कुमार के साथ पेश किया। ------
देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी विरोध या असहमति का मान करते थे और इसे दबाने के प्रयासों को अच्छा नहीं मानते थे। डॉ राम मनोहर लोहिया को तो वह काफी ध्यान से सुनते ही थे। जनसंघ के नए युवा सांसद ए बी बाजपेयी को भी उन्होने धैर्य पूर्वक सुना था।खुद बाजपेयी साहब ने इसका ज़िक्र किया था कि अपने जोरदार भाषण के जरिये उन्होने नेहरू जी व सरकार की कड़ी आलोचना लोकसभा में की थी और उसी रोज़ शाम को राष्ट्रपति भवन में भोज कार्यक्रम में वह नेहरू जी का सामना करने से बच रहे थे लेकिन नेहरू जी ने पास आ कर उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा - ' शाबाश नौजवान इसी तरह जोश को कायम रखो तुम एक दिन ज़रूर देश के प्रधानमंत्री बनोगे। '
शुरू शुरू में इन्दिरा गांधी ने भी सब विपक्षी नेताओं को सुनने की परंपरा कायम रखी थी किन्तु 1975 में एमर्जेंसी लगाने के बाद उनके द्वारा प्रेस की स्वतन्त्रता का भी गला घोंट दिया गया। प्रमुख विपक्षी नेताओं यहाँ तक कि, डायलिसिस पर चल रहे जे पी को भी गिरफ्तार करवा लिया था। इंडियन एक्स्प्रेस की बिजली कटवाने पर तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री इंदर कुमार गुजराल द्वारा आपत्ति जतलाये जाने पर उनको मास्को राजदूत बना कर भेज दिया था।
परिणाम यह हुआ कि, अखबारों के बजाए विरोध प्रचार के लिए साईकिलोस्टाईल पर्चों का इस्तेमाल होने लगा जिसकी भनक तक खुफिया विभागों को न लग सकी। सरकारी कर्मचारी और खुफिया विभाग के अधिकारी तक तानाशाही वाले फर्मानों से आजिज़ आ गए थे और वे भी सरकार तक सही सूचना नहीं पहुंचा रहे थे, अखबारों को तो खुद सरकार ने ही सेंसर कर रखा था। इन्दिरा जी अपनी ही धुन में मस्त थीं उन्होने लोकसभा के बढ़ाए हुये कार्यकाल के बावजूद एक वर्ष पूर्व ही चुनावों की घोषणा कर दी उनकी सोच थी कि वह पुनः भारी बहुमत से वापिस आ जाएंगी।
उस वक्त मैं निर्माणाधीन होटल मुगल, आगरा के लेखा विभाग में कार्यरत था । हमारे सिक्यूरिटी आफिसर साहब रिटायर्ड DSP इंटेलिजेंस थे वह मुझसे मित्रवत व्यवहार रखते थे । क्यों ? तो वही जानते होंगे मैं नहीं जान सका । उनके पास तत्कालीन इंटेलिजेंस इंस्पेक्टर्स मिलने आते रहते थे उनकी वजह से मेरी भी उन सबसे जान - पहचान हो गई थी। अतः हम लोगों को मालूम था कि, इन चुनावों में इन्दिरा जी अपनी पार्टी समेत बुरी तरह से हारने जा रही हैं और वही हुआ था।
यदि प्रेस सेंसरशिप नहीं होती विपक्षी नेता गण जेल में न होते तो सारी गतिविधियों का सरकार को सही - सही पता रहता और वह अपना बचाव सुचारु रूप से कर सकती थी।
आज फिर मोदी सरकार उसी किस्म की हेंकड़ी पर चलते हुये बिना सेंसरशिप के चापलूस प्रेस के जरिये जनता को अंधेरे में रखने का प्रयत्न कर रही है। फिर भी मुखर होने वाले पत्रकारों, चिंतकों, लेखकों, नेताओं की हत्यायें सरकार समर्थकों द्वारा की जा रही हैं।कल 10 नवंबर को छात्र नेता कन्हैया कुमार के साथ सत्ताधीशों के चहेतों द्वारा जो बर्ताव किया गया और आगे का कार्यक्रम जिलाधिकारी द्वारा रद्द कर दिया गया वह सब 1975 वाली एमर्जेंसी की पुनरावृत्ति ही है। हो सकता है इस बार का गुजरात और फिर 2019 का लोकसभा चुनाव सत्ताधारी गफलत से जीत भी लें लेकिन तब जो जनाक्रोश पनपेगा उसका किंचित मात्र भी आभास सत्तारूढों को पहले से कतई नहीं लग सकेगा लेकिन वह इन दमनकारियों को भी रसातल में पहुंचा ज़रूर देगा।
~विजय राजबली माथुर ©
Monday, November 6, 2017
स्त्री सत्तात्मक से पुरुष सत्तात्मक समाज का विकास कैसे हुआ ? ------ विजय राजबली माथुर
आजकल विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं, फेसबुक, ब्लाग वगैरह पर कुछ महिला और कुछ पुरुष लेखकों द्वारा भी समाज के पितृ सत्तात्मक होने व महिलाओं के दोयम दर्जे की बातें बहुतायत से देखने - पढ़ने को मिल जाती हैं। लेकिन ऐसा हुआ क्यों ? और कैसे ? इस पर कोई चर्चा नहीं मिलती है। अतः यहाँ इसी का विश्लेषण किया जा रहा है जो कि, समाजशास्त्रीय विधि पर आधारित है । समाजशास्त्रीय विश्लेषण अनुमान विधि को अपनाता है क्योंकि प्राचीन काल के कोई भी प्रमाण आज उपलब्ध नहीं हैं। इस पद्धति में जिस प्रकार 'धुआँ देख कर आग लगने ' का अनुमान और ' किसी गर्भिणी को देख कर संभोग होने ' का अनुमान किया जाता है जो कि, पूर्णतया सही निकलते हैं उसी प्रकार प्राप्त संकेतों के अनुसार समाज के विकास - क्रम का अनुमान किया जाता है ।
"अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था.इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था.कोई किसी की संपति (asset) न थी,समूहों का नेत्रत्व मातृसत्तात्मक (mother oriented) था.इस अवस्था को सतयुग पूर्व पाषाण काल (stone age) तथा आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है.परिवार के सम्बन्ध में यह ‘अरस्तु’ के अनुसार ‘communism of wives’ का काल था (संभवतः इसीलिए मातृ सत्तामक समूह रहे हों).इस समय मानव को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता था.मानव के ह्रास –विकास की कहानी सतत संघर्षों को कहानी है......................................... महाभारत काल के बाद समाज में स्थिति बिगड़ने लगी और पौराणिक काल में ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ्ने के साथ - साथ नारियों की स्थिति निम्न से निम्नतर होती गई किन्तु आज स्त्रियाँ संघर्ष के जरिये समाज में अपना खोया सम्मान प्राप्त करने में सफल हो रही हैं और विवेकवान पुरुष भी इस बात का समर्थन करने लगे हैं। आदिम अवस्था तो वापिस नहीं लौट पाएगी किन्तु केकेयी व सीता के युग को तो पुनः स्थापित किया ही जा सकता है। "
पृथ्वी की उत्पति और जीवन - विकास :
आज से दो अरब वर्ष पूर्व हमारी पृथ्वी और सूर्य एक थे.एस्त्रोनोमिक युग में सर्पिल,निहारिका,एवं नक्षत्रों का सूर्य से पृथक विकास हुआ.इस विकास से सूर्य के ऊपर उनका आकर्षण बल आने लगा .नक्षत्र और सूर्य अपने अपने कक्षों में रहते थे तथा ग्रह एवं नक्षत्र सूर्य की परिक्रमा किया करते थे.एक बार पुछल तारा अपने कक्ष से सरक गया और सूर्य के आकर्षण बल से उससे टकरा गया,परिणामतः सूर्य के और दो टुकड़े चंद्रमा और पृथ्वी उससे अलग हो गए और सूर्य की परिक्रमा करने लगे.यह सब हुआ कास्मिक युग में.ऐजोइक युग में वाह्य सतह पिघली अवस्था में,पृथ्वी का ठोस और गोला रूप विकसित होने लगा,किन्तु उसकी बाहरी सतह अर्ध ठोस थी.अब भारी वायु –मंडल बना अतः पृथ्वी की आंच –ताप कम हुई और राख जम गयी.जिससे पृथ्वी के पपडे का निर्माण हुआ.महासमुद्रों व महाद्वीपों की तलहटी का निर्माण तथा पर्वतों का विकास हुआ,ज्वालामुखी के विस्फोट हुए और उससे ओक्सिजन निकल कर वायुमंडल में HYDROGEN से प्रतिकृत हुई जिससे करोड़ों वर्षों तक पर्वतीय चट्टानों पर वर्षा हुई तथा जल का उदभव हुआ;जल समुद्रों व झीलों के गड्ढों में भर गया.उस समय दक्षिण भारत एक द्वीप था तथा अरब सागर –मालाबार तट तक विस्तृत समुद्र उत्तरी भारत को ढके हुए था;लंका एक पृथक द्वीप था.किन्तु जब नागराज हिमालय पर्वत की सृष्टि हुई तब इयोजोइक युग में वर्षा के वेग के कारण उससे ऊपर मिटटी पिघली बर्फ के साथ समुद्र तल में एकत्र हुई और उसे पीछे हट जाना पड़ा तथा उत्तरी भारत का विकास हुआ.इसी युग में अब से लगभग तीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय वनस्पतियों व बीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय का उदभव हुआ.एक कोशिकाएं ही भ्रूण विकास के साथ समय प्रत्येक जंतु विकास की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं.सबसे प्राचीन चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाए जाते,अस्तु उस समय लार्वा थे,जीवोत्पत्ति नहीं हुई थी.उसके बाद वाली चट्टानों में (लगभग बीस करोड़ वर्ष पूर्व)प्रत्जीवों (protojoa) के अवशेष मिलते हैं अथार्त सर्व प्रथम जंतु ये ही हैं.जंतु आकस्मिक ढंग से कूद कर(ईश्वरीय प्रेरणा के कारण ) बड़े जंतु नहीं हो गए,बल्कि सरलतम रूपों का प्रादुर्भाव हुआ है जिन के मध्य हजारों माध्यमिक तिरोहित कड़ियाँ हैं.मछलियों से उभय जीवी (AMFIBIAN) उभय जीवी से सर्पक (reptile) तथा सर्पकों से पक्षी (birds) और स्तनधारी (mamals) धीरे-धीरे विकास कर सके हैं.तब कहीं जा कर सैकोजोइक युग में मानव उत्पत्ति हुई।
(यह उपरोक्त गणना आधुनिक विज्ञान क़े आधार पर है,परतु वस्तुतः अब से दस लाख वर्ष पूर्व मानव की उत्पत्ति तिब्बत ,मध्य एशिया और अफ्रीका में एक साथ युवा पुरुष - युवा महिला क़े रूप में हुई)। आधुनिक विज्ञान के दृष्टिकोण में पहला अंडा या पहले मुर्गी वाला विवाद मनुष्यों के संबंध में भी अनसुलझा है। आर्य = आर्ष = श्रेष्ठ गणना के अनुसार पहले -पहल युवा 'पुरुष ' और 'युवा स्त्री ' की सृष्टि की बात युक्तिसंगत है क्योंकि युवा नर - नारी ही प्रजनन करने में सक्षम हो सकते हैं। इसी प्रकार अन्य पशु , पक्षी आदि प्राण धारियों की भी पहले - पहल युवा रूप में ही सृष्टि हुई होगी। इन आदि युवाओं की ही सन्तानें हैं आज का यह संसार।
अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था.इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था.कोई किसी की संपति (asset) न थी,समूहों का नेत्रत्व मातृसत्तात्मक (mother oriented) था. संतति की पहचान सिर्फ माता से होती थी । किस संतान का पिता कौन है इस तथ्य को केवल माता ही जानती थी। उस समय जनसंख्या वृद्धि ही लक्ष्य था अतः स्त्री इस प्रजनन संबंध में ही पूर्ण स्वतंत्र न थी बल्कि परिवार व समाज पर भी स्त्रियॉं ही का नियंत्रण था। इस अवस्था को सतयुग पूर्व पाषाण काल (stone age) तथा आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है.परिवार के सम्बन्ध में यह ‘अरस्तु’ के अनुसार ‘communism of wives’ का काल था (संभवतः इसीलिए मातृ सत्तामक समूह रहे हों).इस समय मानव को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता था.मानव के ह्रास –विकास की कहानी सतत संघर्षों की कहानी है.malthas - माल्थस के अनुसार उत्पन्न संतानों में आहार ,आवास,तथा प्रजनन के अवसरों के लिए –‘जीवन के लिए संघर्ष’ हुआ करता है जिसमे प्रिंस डी लेमार्क के अनुसार ‘व्यवहार तथा अव्यवहार’ के सिद्दंतानुसार ‘योग्यता ही जीवित रहती है’.अथार्त जहाँ प्रकृति ने उसे राह दी वहीँ वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीँ रुक गया.कालांतर में तेज बुद्धि मनुष्य ने पत्थर और काष्ठ के उपकरणों तथा शस्त्रों का अविष्कार किया तथा जीवन पद्धति को और सरल बना लिया.इसे ‘उत्तर पाषाण काल’ की संज्ञा दी गयी.पत्थरों के घर्षण से अग्नि का अविष्कार हुआ और मांस को भून कर खाया जाने लगा. शिकार की तलाश और जल की उपलब्धता के आधार पर इन समूहों को परिभ्रमण करना होता था जिस क्रम में एक स्थान या जलाशय पर नियंत्रण हेतु इन समूहों में परस्पर संघर्ष होने लगे। अपनी शारीरिक संरचना के कारण संघर्ष - युद्धों में स्त्री- नारी - महिला कमजोर पड़ने लगी और बलिष्ठ होने के कारण पुरुषों का प्रभुत्व बढ्ने लगा। अब धीरे - धीरे परिवार व समाज में भी पुरुष वर्चस्व स्थापित होता गया और परिस्थितियों के चलते स्त्री ने भी इसे स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया। अब परिवार की पहचान स्त्री के बजाए पुरुष से होने के कारण संतान की पहचान भी माँ के बजाए पिता से होने लगी। इसी अवस्था से समाज पुरुष - प्रधान होता चला गया है।
धीरे धीरे मनुष्य ने देखा की फल खा कर फेके गए बीज किस प्रकार अंकुरित होकर विशाल वृक्ष का आकार ग्रहण कर लेते हैं.एतदर्थ उपयोगी पशुओं को अपना दास बनाकर मनुष्य कृषि करने लगा. कृषि के आविष्कार के कारण स्थाई रूप से निवास भी करने लगा।उत्पादित फसलों के आदान - प्रदान से समाज का निर्वहन होने लगा।
यहाँ विशेष स्मरणीय तथ्य यह है की जहाँ कृषि उपयोगी सुविधाओं का आभाव रहा वहां का जीवन पूर्ववत ही था यत्र - तत्र पाये जाने वाले आदिवासी समाज इसका उदाहरण हैं परंतु उनमें से भी अधिकांश आज पुरुष - प्रधान हो गए हैं। इस दृष्टि से गंगा-यमुना का दोआबा विशेष लाभदायक रहा और यहाँ उच्च कोटि की सभ्यता का विकास हुआ जो आर्य सभ्यता कहलाती है और यह क्षेत्र आर्यावर्त.कालांतर में यह समूह सभ्य,सुसंगठित व सुशिक्षित होता गया . व्यापर कला-कौशल और दर्शन में भी ये सभ्य थे । इनकी सभ्यता और संस्कृति तथा नागरिक जीवन एक उच्च कोटि के आदर्श थे.भारतीय इतिहास में यह काल ‘त्रेता युग’ कें नाम से जाना जाता है और इस का समय ६५०० इ. पू. आँका गया है(यह गणना आधुनिक गणकों की है,परन्तु अब से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व राम का काल आंका गया है तो त्रेता युग भी उतना ही पुराना होगा) .आर्यजन काफी विद्वान थे.उन्होंने अपनी आर्य सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रसार किया.इस प्रकार आर्य अर्थात भारतीय सभ्यता संस्कृति गंगा-सरस्वती के तट से पश्चिम की और फैली. आर्यों ने सिन्धु नदी की घाटी में एक सुद्रढ़ एवं सुगठित सभ्यता का विकास किया.यही नहीं आर्य भूमि से स्वाहा और स्वधा के मन्त्र पूर्व की और भी फैले तथा आर्यों के संस्कृतिक प्रभाव से ही इसी समय नील और हवांग हो की घाटियों में भी समरूप सभ्यताओं का विकास हो सका.
भारत से आर्यों की एक शाखा पूर्व में कोहिमा के मार्ग से चीन,जापान होते हुए अलास्का के रास्ते राकी पर्वत श्रेणियों में पहुच कर पाताल लोक(वर्तमान अमेरिका महाद्वीपों ) में अपनी संस्कृति एवं साम्राज्य बनाने में समर्थ हुई.मय ऋषि के नेत्रतव में मयक्षिको (मेक्सिको) तथा तक्षक ऋषि के नेत्रत्व में तकसास (टेक्सास) के आर्य उपनिवेश विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं कालांतर में कोलंबस द्वारा नयी दुनिया की खोज के बाद इन के वंशजों को red indians - रेड इंडियंस कहकर निर्ममता से नष्ट किया गया.
पश्चिम की ओर हिन्दुकुश पर्वतमाला को पार कर आर्य जाति आर्य नगर (ऐर्यान-ईरान) में प्रविष्ट हुई.कालांतर में यहाँ के प्रवासी आर्य,अ-सुर (सुरा न पीने के कारण) कहलाये.दुर्गम मार्ग की कठिनाइयों के कारण इनका अपनी मातृ भूमि आर्यावर्त से संचार –संपर्क टूट सा गया,यही हाल धुर-पश्चिम -जर्मनी आदि में गए प्रवासी आर्यों का हुआ.एतदर्थ प्रभुसत्ता को लेकर निकटवर्ती प्रवासी-अ-सुर आर्यों से गंगा-सिन्धु के मूल आर्यों का दीर्घकालीन भीषण देवासुर संग्राम हुआ.हिन्दुकुश से सिन्धु तक भारतीय आर्यों का नेतृत्व एक कुशल सेनानी इंद्र कर रहा था.यह विद्युत् शास्त्र का प्रकांड विद्वान और हाईड्रोजन बम का अविष्कारक था.इसके पास बर्फीली गैसें थीं.इसने युद्ध में सिन्धु-क्षेत्र में असुरों को परास्त किया,नदियों के बांध तोड़ दिए,निरीह गाँव में आग लगा दी और समस्त प्रदेश को पुरंदर (लूट) लिया.यद्यपि इस युद्ध में अंतिम विजय मूल भारतीय आर्यों की ही हुई और सभी प्रवासी(अ-सुर) आर्य परांग्मुख हुए.परन्तु सिन्धु घाटी के आर्यों को भी भीषण नुकसान हुआ।
आर्यों ने दक्षिण और सुदूर दक्षिण पूर्व की अनार्य जातियों में भी सांस्कृतिक प्रसार किया.आस्ट्रेलिया (मूल द्रविड़ प्रदेश) में जाने वाले सांस्कृतिक दल का नेतृत्व पुलस्त्य मुनि कर रहे थे.उन्होंने आस्ट्रेलिया में एक राज्य की स्थापना की (आस्ट्रेलिया की मूल जाति द्रविड़ उखड कर पश्चिम की और अग्रसर हुई तथा भारत के दक्षिणी -समुद्र तटीय निर्जन भाग पर बस गयी.समुद्र तटीय जाति होने के कारण ये-निषाद जल मार्ग से व्यापार करने लगे,पश्चिम के सिन्धी आर्यों से इनके घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध हो गए.) तथा लंका आदि द्वीपों से अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए उनकी मृत्यु के पश्चात् राजा बनने पर उन के पुत्र विश्र्व मुनि की गिद्ध दृष्टि लंका के वैभव की ओर गयी.उसने लंका पर आक्रमण किया और राजा सोमाली को हराकर भगा दिया(सोमाली भागकर आस्ट्रेलिया के निकट एक निर्जन द्वीप पर बस गया जो उसी के नाम पर सोमालिया कहलाता है.)इस साम्राज्यवादी लंकेश्वर के तीन पुत्र थे-कुबेर,रावण,और विभीषण -ये तीनों परस्पर सौतेले भाई थे.पिता की म्रत्यु के पश्चात् तीनों में गद्दी के लिए संघर्ष हुआ.अंत में रावण को सफलता मिली.(आर्यावर्त से परे दक्षिण के ये आर्य स्वयं को रक्षस - राक्षस अथार्त आर्यावर्त और आर्य संस्कृति की रक्षा करने वाले ,कहते थे;परन्तु रावण मूल आर्यों की भांति सुरा न पीकर मदिरा का सेवन करता था इसलिए वह भी अ-सुर अथार्त सुरा न पीने वाला कहलाया)।
लंका के रावण ने पाताल ( वर्तमान यू एस ए ) के ऐरावण और साईबेरिया के कुंभकरण के साथ मिल कर सम्पूर्ण विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद आर्यावृत को भी अपने आधिपत्य में लेना चाहा।किन्तु राष्ट्र वादी केकेयी व कूटनीतिज्ञ सीता जैसी विदुषी नारियों की सूझ - बूझ व सहयोग से राम ने रावण के साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया था। तब तक समाज में नारियों का मान - सम्मान कायम था। महाभारत काल के बाद समाज में स्थिति बिगड़ने लगी और पौराणिक काल में ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ्ने के साथ - साथ नारियों की स्थिति निम्न से निम्नतर होती गई किन्तु आज स्त्रियाँ संघर्ष के जरिये समाज में अपना खोया सम्मान प्राप्त करने में सफल हो रही हैं और विवेकवान पुरुष भी इस बात का समर्थन करने लगे हैं। आदिम अवस्था तो वापिस नहीं लौट पाएगी किन्तु केकेयी व सीता के युग को तो पुनः स्थापित किया ही जा सकता है।
~विजय राजबली माथुर ©
Wednesday, November 1, 2017
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