Sunday, February 2, 2020

क्या शांतिबहाली का काम भी पीड़ितों का है? स्टेट स्पोंसर्ड वायलेंस को भी याचिकाकर्ता ही रोकेंगे? ------ श्याम मीरा सिंह




Shyam Meera Singh

'मीडिया के बाद 'न्यायपालिका' का 'शव' भी आने के लिए तैयार है. इस पूरी क्रोनोलॉजी पर आपका ध्यान नहीं गया होगा~

●12 जून, 1975 
को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस देश की सबसे ताकतवर महिला को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया!   ***

I repeat "Prime Minister Post" !

● 28 अक्टूबर, 1998
Three judges Case, में, सुप्रीम कोर्ट ने खुद को और अधिक मजबूत किया, और कोलेजियम सिस्टम को इंट्रोड्यूस किया, इससे ये हुआ कि अब जजों की नियुक्ति खुद न्यायपालिका करेगी, न कि सरकार करेगी. इससे सरकार का हस्तक्षेप कुछ कम हुआ, तो न्यायपालिका पर दबाव भी कम हुआ, कुलमिलाकर इसके बाद न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अधिक बढ़ी. इसे न्यायपालिका की शक्ति का चर्मोत्कर्ष मान सकते हैं.

••••••••••••इसके बाद आई मोदी सरकार••••••••

●16 मई, 2014
मैं नरेंद्र मोदी शपथ लेता हूँ.......

●1 दिसम्बर 
जज लोया की मौत रहस्यमयी ढंग से हो जाती है, अमित शाह पर मर्डर और किडनैपिंग के मामले की सुनवाई इन्हीं जज लोया के अंडर हो रही थी. carvan मैगज़ीन ने इसपर डिटेल्ड स्टोरी की थी.

●13 अप्रैल, 2015
मोदी सरकार ने National Judicial Appointments Commission (NJAC) एक्ट पास किया, इसका मोटिव था कोलेजियम व्यवस्था को तोड़ना, और जजों की नियुक्ति में सरकार का हस्तक्षेप लाना था. एकतरह से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर मोदी सरकार का ये पहला स्पष्ट हमला था.

●16 अक्टूबर, 2015 
चूंकि अभी मोदी सरकार अपने शुरुआती दिनों में थी. न्यायपालिका में भी कुछ दम बचा हुआ था. सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 के बहुमत के साथ, NJAC कानून को अनकॉन्स्टिट्यूशनल करार देते हुए, खत्म कर दिया. इस तरह इस पहले टकराव में न्यायपालिका की जीत हुई.

● इसके बाद न्यायपालिका मोदी सरकार के निशाने पर आ गई. अब मोदी सरकार ने जजों की नियुक्तियों को मंजूरी देने में जानबूझकर देर लगाना शुरू कर दिया. पूर्व चीफ जस्टिस टी. एस. ठाकुर ने तो सार्वजनिक मंचों से कई बार इस बात के लिए नरेंद्र मोदी सरकार मुखालफत की. चूंकि मोदी सरकार प्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका में हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी, इसलिए उसने बैक डोर से हस्तक्षेप करना शुरू किया. एक जज को, उनसे उम्र में 2 बड़े जजों को पास करते हुए देश का चीफ जस्टिस बना दिया.

● 11 जनवरी, 2018
अब तक न्यायपालिका की हालत वहां तक आ पहुंची थी कि सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों को प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ गई. ऐसा देश के न्यायिक इतिहास में पहली बार हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस की हो. अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार में भी ऐसा कभी नहीं हुआ. जजों ने मीडिया में आकर कहा - "All is not okay, democracy at stake"

● आज पूरे देश की हालत क्या है, सबको पता है. पूरे देश भर में प्रदर्शन हो रहे हैं, नागरिक अधिकारों का इतना स्पष्ट हनन कभी नहीं हुआ. देश में नागरिक अधिकारों का संरक्षण करने की जिम्मेदारी न्यायपालिका की है. संसद के एक कानून से लोग सहमत भी हो सकते हैं, असहमत भी हो सकते हैं. लेकिन सरकार ने एक ही विकल्प छोड़ा सिर्फ सहमत होने का, अन्यथा जेल. यदि आप No CAA का पोस्टर लेकर अपने घर के सामने भी खड़े होते हैं तो पुलिस उठाकर ले जा रही है. छात्रों के प्रदर्शन पर गोलियां बरस रही हैं. आसूं गैस, और वाटर कैनन का यूज तो आम बात हो गई. लेकिन न्यायालय एक मृत संस्था की भांति मौन हुआ पड़ा है.

सरकार के पास सबका इलाज है, पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई पर एक लड़की के साथ छेड़छाड़ का आरोप है. जिसकी जांच भी उन्होने स्वयं ही की. अंततः लड़की को ही समझौता करना पड़ा. इसके पीछे का गणित समझना उतना मुश्किल भी नहीं है. ऐसा भी अनुमान लगाया जाता है कि इसके पीछे सरकार और मुख्य न्यायाधीश के बीच कोई समझौता रहा है.

●9 जनवरी, 2020
CAA पर सुप्रीम कोर्ट में पहली सुनवाई हुई, अब आप मुख्य न्यायाधीश का बयान सुनिए 
" देश मुश्किल वक्त से गुजर रहा देश, आप याचिका नहीं शांति बहाली पर ध्यान दें! जब तक प्रदर्शन नहीं रुकते, हिंसा नहीं रुकती, किसी भी याचिका पर सुनवाई नहीं होगी."

आप अनुमान लगा सकते हैं कि उच्च न्यायालय के सबसे बड़े न्यायाधीश किस हद तक असंवेदनशील हो चुके हैं. क्या शांतिबहाली का काम भी पीड़ितों का है? सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है? स्टेट स्पोंसर्ड वायलेंस को भी याचिकाकर्ता ही रोकेंगे? और जब तक हिंसा नहीं रुकती न्याय लेने का अधिकार स्थगित रहेगा? ये कैसा न्याय है?

चीफ जस्टिस बोबड़े के अगली पंक्ति पर तो आप सर पकड़ लेंगे, बोबड़े कहते हैं- "हम कैसे डिसाइड कर सकते हैं कि संसद द्वारा बनाया कानून संवैधानिक है कि नहीं?"

ऊपर वाली पंक्ति इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि न्यायपालिका, सरकार की तानाशाही के आगे नतमस्तक हो चुकी है. अगर न्यायपालिका नहीं जाँचेगी तो कौन जाचेगा? ये कैसी बेहूदी और मूर्खाना बात है कि न्यायपालिका जांच नहीं करेगी!

सच तो ये है कि आज किसी भी जज की हिम्मत नहीं है कि जजों का "लोया" कर देने वाले अमित शाह के सामने मूंह खोलने की हिम्मत कर लें.

डेमोक्रेसी का एक फोर्थ पिलर मीडिया पहले ही गिर चुका है। आज मीडिया का प्रत्येक एंकर, सरकार का भौंपू बन चुका है. चैनल का मालिक गृहमंत्री के स्तुति गान में लगा हुआ है, ऐसे में लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण खम्बा यानी न्यायपालिका भी अब लगभग गिरने को है.

न्यायपालिका कोई बहुमंजिला इमारत नहीं है, जिसकी, ईंट, पत्थर, दरवाजे गिरते हुए दिखेंगे. न्यायपालिका एक तरह से जीवंत संविधान है. जो हर रोज आपके-हमारे सामने मर रहा है.


बीते दशकों में न्यायपालिका एक 'प्रधानमंत्री' को बर्खास्त करने से लेकर एक 'गृहमंत्री' के चरणों में लिपट जाने तक का सफर तय कर चुकी है. बस उसका शव आपके सामने आना बाकी है.

https://www.facebook.com/shyammeerasingh/posts/1049426585430685

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*** Rajshekhar Dravid :  क्या 12 जून 1975 के अपने निर्णय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने आदरणीया इंदिरा जी को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त किया था?

Vijai RajBali Mathur :  केवल रायबरेली से उनका निर्वाचन टेक्निकल ग्राउंड पर अवैध घोषित किया था।
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~विजय राजबली माथुर ©

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