Friday, December 30, 2011

कारपोरेट घरानों की जीत/जनता की हार

स्कैन पर डबल क्लिक करके पढ़ें 

Hindustan-30/12/2011

इस वर्ष 2011 के शुरू मे धड़ाधड़ भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा CAG के प्रयासों के फल स्वरूप  हुआ था।एक एक कर राजनेता जेल भेजे गए। तह मे जाने पर जैसे ही लाभार्थियों मे रत्न टाटा,अनिल अंबानी,नीरा राडिया जैसे उद्योगपतियों और दलालों के नाम सामने आए और उनके विरुद्ध कारवाई की संभावना बनते दिखी वैसे ही कारपोरेट घरानों ने अपने अमेरिकी संपर्कों के सहयोग से पहले रामदेव फिर अन्ना को आगे करके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू करा दिया। जम कर राजनेताओं और संसदीय संस्थाओं को कोसा गया।  ऐसा वातावरण सृजित किया गया जैसे सभी भ्रष्टाचार की जड़ यह संसदीय लोकतन्त्र और राजनेता ही हैं। खाता-पीता सम्पन्न वर्ग जो एयर कंडीशंड कमरों मे बैठ कर आराम फरमाता है और वोट डालने भी नहीं जाता है नेताओं के पीछे हाथ धोकर पड़ गया। कारपोरेट मीडिया ने इसी आराम तलब वर्ग के जमावड़े को जन-आंदोलन की संज्ञा दी। परंतु मैंने इसे देश मे तानाशाही लाने का उपक्रम बताया था।

उस समय अमेरिकी प्रशासन ने खुल कर अन्ना आंदोलन का समर्थन किया था। भाजपा सरकार से नियम/कानून विरुद्ध हिमाचल प्रदेश मे चाय बागान लेने वाले वकील साहब ने तब अमेरिकी सरकार के निर्णय का बड़ी ही बेशर्मी से स्वागत किया था। लेकिन अब 20 दिसंबर 2011 को उसी अमेरिकी सरकार के गुप्तचर संगठन CIAने अन्ना को आर एस एस /हुर्रियत कान्फरेंस के समक्ष तौल दिया है। 

जो लोग और खासकर वे विद्वान जो अन्ना/रामदेव का समर्थन करते रहे हैं इस बदलाव का कारण बता सकते हैं? शायद नहीं। जब अमेरिका अर्थ संकट से घिरा था उसके नागरिक असंतोष व्यक्त कर रहे थे -आकूपाई वाल स्ट्रीट उभार पर था तो अमेरिका ने बड़ी ही चतुराई से भारतीय कारपोरेट घरानों से मिल कर भारत मे रामदेव/अन्ना आंदोलन शुरू करा दिये जिससे यहाँ के लोग यहीं उलझे रहें और अमेरिका की आंतरिक दुर्दशा देख कर उससे खिचे नहीं। जून 2011 मे साईबेरिया की एक अदालत मे ISCON के संस्थापक द्वारा व्याख्यायित गीता जो योगीराज श्री कृष्ण की गीता से कहीं से भी मेल नहीं खाती है के विरुद्ध केस वहाँ की सरकार ने चला दिया। ISCON कोई धार्मिक संगठन नहीं है वह तो CIA की ही एक इकाई है लेकिन भारत के बुद्धिमान लोगों की बुद्धि का कमाल देखिये संसद मे भाजपा/सपा/राजद सभी के सांसद उस कृष्ण विरोधी/धर्म विरोधी गीता के बचाव मे एकत्र हो गए और हमारे विदेश मंत्री एस एम कृष्णा साहब ने रूसी सरकार पर दबाव डाला की अदालत उस गीता पर प्रतिबंध न लगाए। इत्तिफ़ाक से रूस मे प्रधानमंत्री ब्लादीमीर पुतिन साहब की चुनावों मे जीत को वहाँ की जनता ने धांधली करार दिया। भारत से संबंध मधुर बनाए रखने के लिए परेशान रूसी सरकार ने अदालत मे कमजोर पैरवी की और अदालत ने रूसी सरकार की याचिका खारिज कर दी। यह जीत भारत की जनता की नहीं अमेरिकी CIA की जीत है कि उसके सहयोगी संगठन को निर्बाध छूट मिल गई। इन्हीं दलों के साथ यू पी मे लोकायुक्त से परेशान बसपा ने भी 'संवैधानिक लोकपाल' का गठन नहीं होने दिया।

अन्ना आंदोलन के दौरान सभी भ्रष्टाचार -अभियुक्त जमानत पर रिहा हो गए। अब इस आंदोलन की जरूरत भी नहीं रह गई। अमेरिकी प्रशासन और CIA ने अन्ना टीम से हाथ खींच लिया। अतः यह पूरी तरह से कारपोरेट घरानों और अमेरिकी नीतियों की जीत है। देश की जनता की यह हार है। लोकपाल मे NGOs और कारपोरेट घरानों को जब तक नहीं शामिल किया जाता तब तक उसका गठन बेमानी ही है। 

Tuesday, December 27, 2011

परमात्मा पढे-लिखों को बुद्धि प्रदान करें



हिंदुस्तान,लखनऊ के दिनांक 25 दिसंबर 2011 के समपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित ऊपर के स्कैन कापियों को डबल क्लिक करके देखें। अखबार के प्रधान संपादक श्री शशि शेखर जी के लेख का यह अंश भी गौर करने लायक है जिसमे वह कहते हैं-"इस समय हर शहर की सड़कों व गलियों मे हमारे नेताओं के चाल,चरित्र और चेहरे पर सवाल उछल रहे हैं। भ्रष्टाचार ने समूची व्यवस्था को अपनी चपेट मे ले लिया है। यही वजह है कि कुछ गावों मे अपना प्रभाव रखने वाले अन्ना हज़ारे अचानक लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच गए। सिर्फ दो दिन बाद लोकसभा लोकपाल पर चर्चा करने जा रही है । क्या यह बिल इस सत्र मे पास हो सकेगा?क्या सरकारी अथवा अन्ना और उनके साथियों द्वारा प्रस्तावित लोकपाल सारी बीमारियों का अकेला इलाज है?क्या हमारे माननीय सांसद अपनी साख पर उठ रहे सवालों पर चर्चा करेंगे?क्या इस बहस के बाद से राजनीतिक दल आत्मशुद्धि के बारे मे भी सोचेंगे?एक तरफ संसद सुलगते सवालों पर चर्चा कर रही होगी ,दूसरी तरफ अन्ना अपने आंदोलन की आग मे घी डाल रहे होंगे। सवाल उठता है कि यह देश संसद से चलेगा या सड़कों से?क्या यह बदगुमानी से शुरू हुये वर्ष का त्रासद अंत है?"

25 दिसंबर को ही प्रकाशित 'लोकसंघर्ष'के इस लेख को भी पढ़ें और मनन करें कि क्या अन्ना आंदोलन जन-हित मे है अथवा अर्द्ध सैनिक तानाशाही स्थापित करने के मंसूबों वाले शोषकों व उतपीडकों के हित मे।

http://loksangharsha.blogspot.com/2011/12/blog-post_25.html

जन पक्ष मे प्रकाशित इस कविता को भी ध्यान से पढ़ें और अन्ना के मंसूबों को समझें-


http://jantakapaksh.blogspot.com/2011/12/blog-post_14.html




अन्ना के वरदान-राष्ट्रध्वज के अपमान पर भी गौर फरमाये जो हिंदुस्तान मे पूर्व प्रकाशित है। और साथ-साथ अन्ना के मौसेरे भाई रामदेव जी की इस गाथा को भी पढ़ें जिसे 'तहलका' ने प्रकाशित किया है-



http://www.tehelkahindi.com/index.php?news=1050

'लोकसंघर्ष','जन पक्ष','समाजवादी जन-परिषद','मानवीय सरोकार','जंतर-मंतर',जैसे इने-गुने ब्लाग्स पर ही इनके संचालकों ने हकीकत बयान की है और अन्ना आंदोलन को आम जनता के शोषण-उत्पीड़न को पुख्ता करने वाला तथा कारपोरेट घरानों के भ्रष्टाचार का पोषण करने वाला बताया है। बाकी ब्लाग जगत झूठ,छल-फरेब ,तिकड़म से ओत -प्रेत ,अन्ना आंदोलन' के गुण गाँन  से रंगा हुआ पाया है। दुखद पहलू यह है कि पढे-लिखे इंटरनेटी शूर-वीर जो रामदेव-अन्ना के पक्षधर हैं बेहद बेहूदी और गंदी तथा भद्दी गलियों के साथ अन्ना/रामदेव  की पोल खोलने वालों के साथ  पेश आते हैंऔर खुद को 'खुदा' समझते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो दोहरा खेल खेलते हुये कहते हैं अन्ना जी ठीक हैं केवल उनका तरीका ही गलत है,उनसे निवेदन है कि वे निम्नलिखित वीडियो जरूर देखें-सुने-




यदि इतनी सब हकीकत जानने के बाद भी हमारे इंटरनेटी विद्वान अन्ना/रामदेव की भक्ति मे तल्लीन रहते हैं तब तो बाबू गोपाल राम गहमरी द्वारा व्यक्त विचार कि -'बुद्धि के रासभ और अक्ल के खोते ' ही उन पर चस्पा होता प्रतीत  होता है।

फेसबुक का हाल तो ब्लाग्स से भी ज्यादा बुरा है वहाँ तो अन्ना/रामदेव भक्त गलियों और भद्दी तसवीरों के प्रकाशन के लिए ही जाने जाते हैं। अधिकांश लोग गुमराह ही हैं किन्तु फिर भी अफलातून जी,अरुण प्रकाश मिश्रा जी,पंकज चतुर्वेदी जी,अमलेंदू उपाध्याय जी, ज़ोर शोर से और दबे -दबे स्वरों मे महेंद्र श्रीवास्तव जी
अन्ना और उनकी टीम की कारस्तानिये उजागर करते रहते हैं। हिन्दी साहित्य के जाने माने आलोचक वीरेंद्र यादव जी तो बुलंदगी के साथ कल (26 दिसंबर 2011) भी लिख रहे हैं ,पढ़िये और सोचिए-

अन्ना टीम के प्रमुख सदस्य प्रशांत भूषण को हिमाचल की भाजपा सरकार ने नियमों में विशेष छूट प्रदान कर एक बड़े चाय बागान की जमीन को खरीदने अनुमति प्रदान की . नियमानुसार हिमाचल के बाहर का व्यक्ति वहां जमीन नहीं खरीद सकता . प्रशांतभूषण की भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम और भाजपा सरकार द्वारा प्रदान की गयी इस छूट के निहितार्थों को समझा जाना चाहिए . क्या प्रशांत भूषण द्वारा यह छूट प्राप्त करना भ्रष्टाचार की सीमा में नहीं आता ? क्या यह कानून द्वारा स्वीकृत भ्रष्टाचार नहीं है ? ASSEMBLY
Prashant Bhushan’s society bought tea garden land
Tribune News Service

Dharamsala, December 23
A close aide of Anna Hazare, Prashant Bhushan, bought 4-68-28 hectares (122 kanals) of tea garden land in the Palampur area in the name of an educational society.

The information came in response to a question raised by the Congress MLA from Baijnath, Sudhir Sharma, in the Himachal Assembly today.

Sharma had sought details from the government regarding the number of permissions given by the present government under Section 118 of the Land Tenancy Act to purchase tea gardens in the state during a period extending from 2008 to November 2011.

While replying to the query Minister for Revenue Ghulab Singh informed the House that just one permission, to buy tea garden land, had been given during the said period. He said the Kumud Bhushan Educational Society, Kandbari, through Prashant Bhushan, son of Shanti Bhushan, resident of Noida, had been given permission to buy 4-68-28 hectares of tea garden land.

The sale and conversion of status of tea garden land in Himachal is strictly prohibited under the revenue laws. The status of tea garden lands, most of which are located in Kangra district, cannot be changed without permission from the state government

फेसबुक के जनवादी जन मंच और कम्युनिस्ट पार्टी ग्रुप तो खुल कर सच्चाई के साथ और अन्ना-ड्रामे के विरुद्ध हैं। मै लगातार अपने 'क्रांतिस्वर' एवं 'कलम और कुदाल' के माध्यम से अन्ना और उनकी टीम के विरुद्ध कारवाई किए जाने की मांग कर रहा हूँ। इसी ब्लाग मे पहले भी लिख चुका हूँ और 'विद्रोही स्व-स्वर मे' तो विस्तार से लिखा है कि,ईमानदारी के कारण आभावों मे जीवन यापन पिताजी ने भी किया और मै भी कर रहा हूँ। मै तो प्राईवेट लिमिटेड,पब्लिक लिमिटेड ,पार्टनरशिप और प्रोपराइटरशिप कंपनियों द्वारा प्रताड़ित भी इसी ईमानदारती की वजह से हो चुका हूँ। मै बखूबी जानता हूँ कि ये व्यापारी और उद्योगपति किस प्रकार पहले नंबर दो कमाते और फिर उसे कैसे नंबर एक मे बदलते हैं। इसी प्रक्रिया मे NGOs उनके बहुत बड़े सहयोगी हैं,मंदिर आदि चैरिटेबल ट्रस्ट इन व्यापारियों के 'काले धन' को एक मे बदलने के उपकरण हैं। ये सभी अन्ना/रामदेव आंदोलनों की 'रीढ़'हैं। मैंने शुरू से ही अन्ना आंदोलन को भ्रष्टाचार संरक्षण का सबसे बड़ा रक्षा-कवच बताया है। 


कुछ ब्लाग्स को रामदेव और कुछ को अन्ना के चलते अनफालों करना पड़ा एवं फेसबुक से करीब एक दर्जन लोगों को अपनी फ्रेंड लिस्ट से हटाना पड़ा। मेरी सुस्पष्ट एवं सुदृढ़ अवधारणा है कि जो लोग अन्ना/रामदेव के समर्थक हैं वे सब राष्ट्र -भक्त नहीं हैं और आम जनता के हितैषी तो कतई नहीं हैं । इसी ब्लाग मे लेखों के माध्यम से बताया है कि आर एस एस की नीति है कि शहरों का 3 प्रतिशत व गावों का 2 प्रतिशत जन समर्थन हासिल करके वह अपनी अर्द्ध-सैनिक तानाशाही स्थापित कर सकता है। उसी की कड़ी हैं ये अन्ना/रामदेव आंदोलन जो 'संसदीय लोकतन्त्र ' को नष्ट-भ्रष्ट करने हेतु चलाये गए हैं और महाराष्ट्र हाई कोर्ट की फटकार के बावजूद रुके नहीं हैं। अब इन लोगों ने न्यायपालिका को भी चुनौती देनी शुरू कर दी है। सरकारी सर्जन,डाक्टर, इंजीनियर ,अफसर जो कहीं न कहीं भ्रष्टाचार मे संलिप्त रहे हैं  बड़ी ही बेशर्मी से अन्ना का समर्थन अपने-अपने ब्लाग्स मे कर रहे हैं। 21 वर्षों से जिनकी 'उदारवादी' नीतियों का स्व्भाविक परिणाम भ्रष्टाचार मे द्रुत-वृद्धि है वह पी एम साहब अन्ना की पीठ पर हैं ,इसलिए सरकारी मैनुयल्स का उल्लंघन करने वाले इन ब्लागर्स एवं फेसबुकियों के विरुद्ध कोई कारवाई नहीं हो सकी है।

मै सन 2011 की समाप्ती से पूर्व 'परमात्मा' से प्रार्थना करता हूँ कि 'पढे-लिखे' किन्तु घोर अज्ञानी इन इंटरनेटी विद्वानों को सद्बुद्धि प्रदान करें जिससे कि आने वाले वर्ष 2012 मे हमारे देश और इसकी बहुसंख्यक गरीब -उत्पीड़ित जनता के पक्ष मे ये इंटरनेटी शूर-वीर भी खड़े हो सकें और देश तथा देश की जनता का कल्याण हो सके। धनाढ्यो के 'रक्षस आंदोलनो' को इन विद्वानों का समर्थन समाप्त हो सके।क्योंकि जिसके पीछे वे भाग रहे हैं वह तो 21 सैनिकों की  बे-मौत जिंदगी छीनने का जिम्मेदार है जैसा कि प्रोफेसर अरुण प्रकाश मिश्रा जी ने कल फेसबुक पर सूचित किया है-


एक आदमी पूरे देश की आम जनता को गुमराह कर रहा है, उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहा है, दिवा-स्वप्न दिखा रहा है और पढ़े-लिखे लोग चुप देखते रहें, यह इतिहास के साथ विश्वासघात है | ज़रुरत हरेक पल इसके मसूबों के पर्दाफाश करने की है |

२१ बहादुर जवानों से भरे ट्रक को छोड़कर जो ड्राईवर भागकर अपनी जान बचा ले और बहादुर जवान उस के भागने से मारे जाएँ, उसे 'भगोड़ा' नहीं तो क्या 'भारत-रत्न' कहेंगे !! कृष्ण अगर रथ को छोड़कर भाग गए होते तो क्या अर्जुन जीवित बचते???

देखिये पूर्व फौजी जेनरल के विचार-http://vijaimathur.blogspot.com/2011/12/blog-post_27.html


Sunday, December 18, 2011

साहित्य समाज का दर्पण होता है

Saroj Mishra 
मुसलमान लेखक तो अमीर खुसरो ,रहीम और रसखान भी थे /जिन्हों ने भारतीय जन मानस को जीने की नई तहजीब दी/ जीने की कला सिखाई/....
बैठी थी पिय मिलन को खांची मन में रेख ,
अब मौनी क्यों हो गई चल नीके करि देख /अमीर खुसरो
सुरतिय नरतिय नागतिय सब चाहत यस होय ,
गोद लिए हुलसी फिरें ,तुलसी सो सूत होय/
रामचरित मानस बिमल सब ग्रंथन को सार.
हिंदुअन को बेद सम तुरकन प्रकट कुरान /रहीम
मानुष हों तो वाही रसखान बसों ब्रज गोकुल धेनु मझारन....



(सरोज मिश्रा जी  का उपरोक्त  दृष्टिकोण फेसबुक पर आया था जो एक सकारात्मक कदम है।)


 आजकल फेसबुक पर उसमे प्रयुक्त अनर्गल बातों,तसवीरों ,जातिवादी साहित्यिक खेमों आदि पर टकराहटपूर्ण चर्चाए चल रही हैं। एक ब्लाग पर इस संबंध मे प्रकाशित एक अच्छे लेख पर टिप्पणी के रूप मे मैंने लिखा था-



जैसे 'चाकू'रसोई मे भोजन सामग्री के काम आता है और आपरेशन थियेटर मे 'डॉ' के काम आता है तब उपयोगी है किन्तु 'डाकू' के हाथ मे जाकर वही गलत हो जाता है ठीक उसी प्रकार संचार माध्यम-'फेसबुक' आदि उनका प्रयोग करने वाले के अनुसार अच्छे या बुरे हो जाते हैं। जिसके जैसे संस्कार होंगे वैसी ही उसकी मानसिकता होगी। अश्लीलता का निषेध तो होना ही चाहिए।



कई ब्लाग्स मे भी लेखन छिछोरा और ढोंग-पाखंड को बल प्रदान करने वाला देखने को मिलता रहता है। फेसबुक अथवा ब्लाग्स के लेखक निश्चय ही सुशिक्षित और सुविधायुक्त हैं उनसे एक अच्छे और आदर्श लेखन की ही उम्मीद की जाती है। किन्तु कुछ समृद्ध और सुविधा-सम्पन्न लोग जिंनका कोई आदर्श या सिद्धान्त नहीं है सिर्फ अपने मनोरंजन या रौब-प्रदर्शन के लिए टिप्पणियाँ या अनर्गल कुछ भी लिखते -फिरते हैं जिनके कारण समाज का काफी कुछ अहित हो जाता है।

पुराने साहित्यकारों को भी लोक-प्रचलित धर्मों -जातियों और संप्रदाय के खांचों मे बांटने का घृणित प्रयास चल रहा है। इन सबके बीच सरोज मिश्रा जी ने अदम्य साहस के साथ उपरोक्त टिप्पणी की जो सरहनीय है। आजादी से पूर्व साहित्य-लेखन का उद्देश्य मानवीय-मूल्यों को ऊंचा उठाना होता था। साहित्य समाज का नेतृत्व करता था। आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी ने कहा था-


"साहित्य मे वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप,तलवार और बम के गोलों मे भी नहीं पाई जाती। "

अकबर इलाहाबादी ने भी कहा था-

" न खींचो तीर कमानों को,न तलवार निकालो।
जब तोप मुक़ाबिल हो ,तो अखबार निकालो। । "

उस वक्त साहित्य साम्राज्यवादी शासकों से लड़ने का एक प्रभावशाली शस्त्र था तो अपने देशवासियों को एकता के सूत्र मे बांधने वाला  अमोघ अस्त्र भी। आज प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यमों से जो साहित्य प्रकाश मे आ रहा है उसमे ऐसे तत्व क्षीण हैं जबकि विध्वंसक,अलगाव वादी ,शोषणवादी तत्व प्रभावशाली। सरकारी विभाग रेलवे मे कार्यरत एक सर्जन,सरकारी उपक्रम बी एच ई एल से अवकाश प्राप्त एक इंजीनियर जो विज्ञान के विषयों के ज्ञाता हैं अपने-अपने ब्लाग्स के माध्यम से जो साहित्य परोस रहे हैं वह अवैज्ञानिक और  प्रतिगामी,गुमराह करने और मानवता को क्षति पहुंचाने वाला है और ये दो अकेले नहीं हैं इनके जैसे कई इंटरनेटी वीर मौजूद हैं  परंतु दुर्भाग्य से इंटरनेटी विद्वजन उनकी वीरता के कसीदे पढ़ने मे मशगूल हैं बजाए उनके मंसूबों को समझ कर उनसे बचने के।  यह स्थिति साहित्य और समाज के लिए शुभ नहीं है।


सन 2011 मे कुछ विदेशी शक्तियों के उकसावे पर कुछ तथाकथित समाज के स्वंयभू ठेकेदारों ने अशांति -आंदोलन किए जिनके कारण इन्टरनेट जगत मे भी खूब जूतम-पैजार चली। बड़े-बड़े विद्वान ब्लागर्स खूब बहके और इन ठेकेदारों के मकड़जाल मे फंस गए।एक अवकाश -प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार जो विकीपीडीया  विशेषज्ञ  भी हैं तो बाकायदा अर्द्ध् सैनिक  तानाशाही हेतु चलाये गए गुमराह जलसों को जन-आंदोलन सिद्ध करने पर आमादा हैं। ये लोग भारत मे राष्ट्रीयता की भावना  को विदेशी शासन की देंन  मानते हैं।  ब्रिटिश दासता से अमेरिका को आजादी दिलाने वाले प्रथम राष्ट्रपति 'जार्ज वाशिंगटन' ने अमेरिकी ध्वज का अपमान करने वालों के संबंध मे कहा था-

Who hail the American Flag shoot him at the spot


हमारे देश मे अमेरिकी पिट्ठू भारत के राष्ट्रीय ध्वज का अपने जुलूसों मे दुरुपयोग करके खुल्लमखुल्ला अपमान कर रहे है देखिये इन चित्रों को-



(ऊपर वाला चित्र महेंद्र श्रीवास्तव जी के 'आधा सच' से साभार  तथा  नीचे वाला चित्र  हिंदुस्तान,लखनऊ,दिनांक 16-12-2011  से)
 मुझे किसी भी ब्लागर द्वारा इन निंदनीय कृत्यों की भर्त्सना  करने की भनक नहीं है। उल्टे एक ब्लागर साहब ने फेसबुक पर मुझे देश से बाहर फेंक देने की धमकी  जरूर दी और वह साहब सरकारी सेवा मे हैं। जाहिर है जब सरकार का मुखिया ही देशद्रोही आंदोलनों की पीठ पर है तो सरकारी अधिकारी तो उछलेंगे ही!लेकिन हम ब्लागर्स जो साहित्य सृजन कर रहे हैं अपने दायित्व का निर्वहन करते हुये समाज का दर्पण गंदा होने से क्यों नहीं रोकते?अन्ना की देशद्रोही मंडली का पुरजोर विरोध क्यों नहीं करते?एक ब्लागर साहब ने मेरे 'विद्रोही स्व-स्वर मे' टिप्पणी देकर मुझसे अपनी अन्ना समर्थक कविता पढ़ने को कहा-


"मेरी नई पोस्ट...... 
पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे






 हमारा लेखन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरक और मार्गदर्शक होना चाहिए। हम उम्मीद करते हैं कि इस वर्ष की समाप्ती के साथ ही यह विद्वेषक प्रवृति भी समाप्त हो जाएगी और आने वाले नव-वर्ष मे साहित्य सृजन अपनी मूल आत्मा को पुनः प्राप्त कर लेगा।

Friday, December 9, 2011

सन 2011 की राष्ट्रीय त्रासदी

हिंदुस्तान,लखनऊ,19-08-2011 

हिंदुस्तान,लखनऊ,05 -12-2011 

हिंदुस्तान,लखनऊ,19-08-2011 
हिंदुस्तान,लखनऊ 05 दिसंबर 2011 के अंक मे दिल्ली मे 04 दिसंबर 2011,रविवार को  अन्ना टीम की केजरीवाल/किरण बेदी द्वारा निकाली वाहन रैली का  फोटो छ्पा है। इसमे स्पष्ट रूप से दिखाया गया है कि भागीदार 'राष्ट्र ध्वज'लेकर जुलूस निकाल रहे हैं।

स्वाधीनता दिवस -15 अगस्त,गणतन्त्र दिवस -26 जनवरी और गांधी जयंती -02 अक्तूबर को राष्ट्र ध्वज सार्वजनिक रूप से सभी जगह फहराया जा सकता है। शेष दिनों मे केवल सरकारी कार्यालयों मे ही राष्ट्र ध्वज फहराया जा सकता है। राष्ट्र ध्वज लेकर आंदोलन करना राष्ट्र द्रोह है जिसके लिए आंदोलनकारियों के विरुद्ध 'राष्ट्रध्वज का अपमान' करने के नियम के अंतर्गत कारवाई होनी चाहिए। परंतु अन्ना टीम शुरू से ही राष्ट्र ध्वज का अपमान करती आ रही है और कोई कारवाई न किया जाना इसमे सरकारी मिली-भगत के षड्यंत्र की ओर इंगित करता है।

अन्ना आंदोलन अमेरिकी प्रशासन,अमेरिकी व भारतीय कारपोरेट घरानों के हित मे कांग्रेस के मनमोहन गुट के समर्थन से चल रहा है और आर एस एस का भी इसे खुला समर्थन है।

अमेरिका मे जार्ज वाशिंगटन ने कहा था- जो कोई अमेरिकन राष्ट्र ध्वज का अपमान करे उसे तत्काल गोली मार दो। (Who hail the American Flag shoot him at the spot ) और भारत मे खुलमखुल्ला राष्ट्र ध्वज का अपमान हो रहा है और अपराधी सिर-माथे पर बैठाये जा रहे हैं,क्यों?
निम्नाकिंत स्कैन देख कर आपको सच्चाई का आभास हो जाएगा। 

जिस अमेरिकी सरकार से वहाँ के नागरिक असंतुष्ट हैं और अपने देश के कारपोरेट घरानों की लूट के विरुद्ध 'आकुपाई वाल स्ट्रीट' आंदोलन एक लंबे अरसे से चला रहे हैं। उनकी देखा-देखी यूरोप के दूसरे देशों मे भी कारपोरेट अत्याचार के विरुद्ध आंदोलन चल रहे हैं। लेकिन हमारा देश जो 'भूतपूर्व विश्व गुरु ' है उल्टी गंगा बहाये जा रहा है। हमारे यहाँ प्रबुद्ध लोग 'कारपोरेट घरानों 'के आव्हान पर उनके हितों की रक्षा के लिए जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़  कर 'अन्ना आंदोलन' मे जोत रहे हैं। अपनी रोजी-रोटी,भूख-प्यास,बेरोजगारी,असमानता,शोषण,लूट,उत्पीड़न,अत्याचार आदि मूलभूत समस्याओं को न उठा कर भोली जनता दीवानों की तरह कारपोरेट-भक्त 'अन्ना-टीम' के पीछे भटक रही है। 


सरकारी अधिकारी भी अपने-अपने ब्लाग्स और फेसबुक स्टेटस द्वारा 'अन्ना आंदोलन' का समर्थन कर रहे हैं। वस्तुतः IAS अधिकारियों ने अपनी-अपनी पत्नियों के नाम पर NGOs गठित कर रखे हैं जिनके जरिये सरकारी अनुदान हड़प कर जाते हैं साथ ही विदेशी कंपनियों को अनुग्रहीत करने के बदले 'दान' या 'चन्दा' भी झटक लेते हैं। समस्त NGOs ने अपनी ताकत 'अन्ना आंदोलन' के समर्थन मे झोंक रखी है और वे 'लोकपाल' से NGOs को अलग रखने की मुहिम चला रहे हैं। अन्ना-आंदोलन चाहता है कि सरकारी अधिकारी और उनकी पत्नियों के NGOs के  भ्रष्टाचार को कारपोरेट भ्रष्टाचार के साथ ही बचाए रखा जाये तथा निम्न पदों के कर्मचारियों को 'लोकपाल' के डंडे के सहारे 'आतंकित' रखा जाये। अनपढ़ लोग तो 'अज्ञान'के कारण अन्ना की आंधी मे बह रहे हैं लेकिन 'इंटरनेटी विद्वान' क्यों अन्ना के अंध-भक्त बने हुये हैं?क्या उनमे अपने देश के प्रति कुछ भी स्वाभिमान नहीं बचा है?लगता ऐसा ही है और यही सन 2011 की सबसे बड़ी 'राष्ट्रीय त्रासदी' है। भावी इतिहास आज की पीढ़ी को कभी छमा नहीं करेगा। 


कृपया इस लिंक को अवश्य देखें-
http://jantakapaksh.blogspot.com/2011/12/blog-post_14.html

Sunday, December 4, 2011

वैज्ञानिक प्रगति ?/बढ़ता ढोंग






03/12/2011

01/12/2011














04/12/2011


" पहले तो उनका दबाव था कि स्वामी जी अपना उत्तराधिकारी उन्हें घोषित करें। उत्तराधिकारी भी सिर्फ आश्रम या स्कूल कालेज का ही नही बल्कि राजनीतिक उत्तराधिकारी भी बनना चाहतीं थीं। उन्होंने चुनाव लड़ने की इच्छा भी चिन्मयानंद से जाहिर की। इस पर स्वामी जी भड़क गए। उन्हें लगा कि ये साध्वी अब उन पर हावी होने की कोशिश कर रही है, लिहाजा उन्होंने जमकर फटकार लगा दी"---यह कथन है टी वी चेनल के एक  वरिष्ठ पत्रकार साहब का अपने ब्लाग मे । 


यदि पत्रकार साहब की खोज सही है तो कोमल गुप्ता उर्फ साध्वी के कदम की सराहना करनी चाहिए कि उन्होने छल और बल से स्थापित ढ़ोंगी सन्यासी के साम्राज्य को उसी छल और बल से हस्तगत करना चाहा जैसे ढ़ोंगी सन्यासी जी ने किया था। यदि पुरुष द्वारा किया कार्य ठीक था तो महिला द्वारा वही कार्य करने का प्रयास कैसे निंदनीय हो गया?
ढ़ोंगी सन्यासी द्वारा छात्रों को उकसा कर कोमल गुप्ता विरोधी आंदोलन चलवाने से वह पाक-साफ कैसे हो गए?जब वह केंद्रीय गृह राज्यमंत्री थे तो उनकी कार ने एक्सीडेंट मे एक निर्दोष पथिक की हत्या कर दी और वह सरपट कार ले गए। सन्यासी का चोला पहने गृह राज्यमंत्री के पद पर होते हुये भी उस व्यक्ति को बचाने का प्रयास उन्होने नहीं किया,अखबारों मे सुर्खियों मे छ्पा था। 


कहा जाता है आज विज्ञान का युग है,प्रगतिशीलता का युग है। फिर इन ढोंगियों के पास अकूत संपत्ति कहाँ से आ जाती है?इन के शिष्य और दान-दाता बड़े -बड़े नामी-गिरामी डॉ,इंजीनियर,वैज्ञानिक,भी हैं और शोषक-उत्पीड़क उद्योगपति-पूंजीपति भी। पढे-लिखे प्रगतिशील विचारक भी इन लोगों के प्रति भक्ति रखते हैं। तभी तो इनको बेनकाब करने वाली महिला को दोषी ठहराने का प्रयास चल रहा है जबकि उसके साहस की सराहना और उसे समर्थन देना चाहिए था। 


मै इसी ब्लाग पर लगातार ढोंगियों से सावधान रहने तथा वैज्ञानिक पूजा-पद्धति (हवन) अपनाने की अपीलें करता रहता हूँ परंतु इन ढोंगियों के समर्थक ब्लागर्स मेरे ऊपर ही कटाक्ष करते हैं बजाए एहितियात बरतने के। 


हमारे ब्लागर्स बंधु जो बड़े सरकारी ओहदेदार भी हैं और विज्ञान क्षेत्र से संबन्धित भी हैं अपने-अपने ब्लाग्स मे ढोंग-पाखंड बढ़ाने के लेख,कविता आदि लिख कर जनता को गुमराह करते और वाहवाही लूटते रहते हैं। एक इंजीनियर साहब के सुझाव पर ही मैंने 'जनहित मे' स्तुतियाँ देना प्रारम्भ किया परंतु किसी को उनसे लाभ उठाने की जरूरत नहीं है जिसमे कोई खर्च भी नही होगा उन्हें तो भारी-भरकम रकम खर्च करके वैष्णोदेवी,बालाजी,बद्रीनाथ/केदारनाथ,कामाख्या देवी वगैरह-वगैरह घूम कर पनडे-पुजारियों के हाथ लुट कर आने मे आनंद आता है। पिसती और मारी जाती है गरीब और भोली जनता जो इन पैसे वालों का अंधानुकरण करती है। कहते हैं न कि 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' -और यही सब खेल चल रहा है जो इन ढोंगियों को ताकत देता है। 

Saturday, December 3, 2011

डॉ राजेन्द्र प्रसाद की प्रासांगिकता




डॉ राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 03 दिसंबर 1884 को और  मृत्यु 28 फरवरी 1963 मे हुई थी । वह स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे और स्वाधीनता आंदोलन मे उनकी अग्रणी भूमिका रही थी। उनकी मृत्यु के 48 वर्ष बाद भी उनके विचारों की प्रासंगिकता आज भी है और आज का राजनीतिक संकट उन विचारों से हट जाने के कारण ही उत्पन्न हुआ है। राजेन्द्र बाबू का व्यक्तित्व कैसे प्रभावशाली बन सका इसका विवेचन गत वर्ष किया था। 

राजेन्द्र बाबू का जन्म एक जमींदार परिवार मे हुआ था और उन्हें सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त थीं। वह काफी प्रतिभाशाली थे। वकालत पास करने के बाद यदि प्रेक्टिस करते तो और धनशाली ही बनते। किन्तु उस समय के बड़े कांग्रेसी नेता गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें बुला कर उनसे कहा कि तुम्हें किसी चीज की कमी नहीं है और वकालत करके खूब पैसा कमा लोगो लेकिन मै चाहता हूँ कि तुम देश-सेवा मे लगो  तो तुम्हारी प्रतिभा का लाभ देशवासियों को भी मिल सके। राजेन्द्र बाबू ने गोखले जी की सलाह को आदेश मान कर शिरोधार्य कर लिया और आजीवन उसका निर्वहन किया। जन्म से प्राप्त सुख-सुविधाओं का परित्याग करके सादगी ग्रहण करके राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन मे कूद पड़ना राजेन्द्र बाबू को असहज नहीं लगा।

गांधी जी और नेताजी सुभाष के मध्य मतभेद होने की दशा मे सुभाष बाबू ही 'नीलकंठ' बन कर सामने आए और कांग्रेस की अध्यक्षता सम्हाली। निराश-हताश कांग्रेसियों मे नव-जीवन का संचार करके राजेन्द्र बाबू ने अपने कुशल नेतृत्व से स्वाधीनता आंदोलन को नई दिशा दी। स्वातंत्र्य -समर के योद्धा के रूप मे राजेन्द्र बाबू को कई बार जेल-यात्राएं भी करनी पड़ी। जेल मे भी चिंतन-मनन उनकी दिनचर्या रहते थे। यहाँ तक कि जब एक बार जेल मे उनको कागजों का आभाव हो गया तो उन्होने कागज के नोटों पर भी अपने विचार लिख कर रख लिए थे। 'खंडित भारत' की रचना भी उन्होने जेल-प्रवास के दौरान ही की थी। इस पुस्तक से राजेन्द्र बाबू की दूर-दर्शिता का आभास होता है जो उन्होने आजादी से काफी पहले विभाजन से होने वाले दुष्परिणामों की कल्पना कर ली थी। लेकिन अफसोस कि उनकी सीख को नजर-अंदाज कर दिया गया और नतीजा भारत,पाकिस्तान तथा बांग्ला देश की जनता आज तक भोग रही है।

राष्ट्रपति बनने पर उन्होने 'राष्ट्रपति भवन' से रेशमी पर्दे आदि हटवा कर खादी का सामान -चादर,पर्दे आदि लगवाए थे जो उनकी सादगी-प्रियता का प्रतीक है। वह विधेयकों पर आँख बंद करके हस्ताक्षर नहीं करते थे बल्कि अपने कानूनी ज्ञान का उपयोग करते हुये खामियों को इंगित करके विधेयक को वांछित संशोधनों हेतु वापस कर देते थे और सुधार हो जाने के बाद ही उसे पास करते थे। उनके लिए जनता का हित सर्वोप्परि था। स्व . फख़रुद्दीन अली अहमद  द्वारा विदेश मे एमेर्जेंसी पर और श्री ए पी जे कलाम साहब द्वारा बिहार की राजद सरकार हटा कर राष्ट्रपति शासन लगाने के आदेश विदेश से देना राष्ट्रपति पद का अवमूल्यन करना है और  जो राजेन्द्र बाबू की नीतियों के उलट है। उनके उत्तराधजीकारी डॉ राधा कृष्णन भी कांग्रेस अध्यक्ष कामराज नाडार के षड्यंत्र मे फंस कर एक बार तो संविधान विरोधी कार्य मे तत्पर हो गए थे जो नेहरू जी की सतर्कता से विफल हो गया था। किन्तु डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी ने नेहरू जी से तमाम मतभेदों के बावजूद कभी भी संविधान विरोधी कदम उठाने की बात नहीं सोची जबकि उन्हें तो जनता और सत्तारूढ़ पार्टी मे आदर -सम्मान भी प्राप्त था और समर्थन भी मिल सकता था।

आम धारणा है कि संविधान निर्मात्री समिति के चेयरमेन डॉ भीम राव अंबेडकर ही संविधान निर्माता हैं परंतु संविधान सभा के सभापति की हैसियत से राजेन्द्र बाबू का संविधान निर्माण मे अमिट योगदान है। उनकी कुशल अध्यक्षता मे ही संविधान की धाराओं पर सम्यक विचार-विमर्श और बहसें सम्पन्न हुई। 26 जनवरी 1950 से लागू संविधान डॉ राजेन्द्र प्रसाद के हस्ताक्षरों से ही पारित हुआ है। अतः उनके योगदान को नकारा नहीं जाना चाहिए ।

संसद और विधान सभाओं मे आए दिन जो गतिरोध देखने को मिलते हैं वे राजेन्द्र बाबू की विचार-धारा के परित्याग का ही परिणाम हैं। आज देश-हित का तकाजा है कि फिर से राजेन्द्र बाबू की नीतियों को अपनाया जाए और देश को अनेकों संकट से बचाया जाये। 

Thursday, December 1, 2011

स्वेतलाना स्टालिन और साम्यवाद


Hindustan-01/12/2011
कालाकांकर राजघराने के राजा बृजेश सिंह मेहनतकश जनता के हितैषी थे और इसीलिए वह सब कुछ त्याग कर कम्यूनिस्ट बने थे। कैसरबाग ,लखनऊ स्थित अपनी निजी संपत्ति उन्होने भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी को दान कर दी थी और उत्तर-प्रदेश भाकपा का कार्यालय आज भी वहाँ है। ऐसे कामरेड बृजेश सिंह ने रूस प्रवास के दौरान वहाँ के शासक रहे जोसफ स्टालिन की छोटी पुत्री 'स्वेतलाना' से विवाह किया था। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी स्वेतलाना भारत आई और यहाँ से अमेरिका वाया स्विट्जरलैंड चली गई तथा वहीं उनका 85 वर्ष की आयु मे गुमनामी मे निधन हो गया। जिस प्रकार डॉ हरगोविंद खुराना के निधन का समाचार देर से आया था उसी प्रकार स्वेतलाना के निधन का समाचार भी बहुत देर से ही आया। स्वेतलाना अपने पिता की 'तानाशाहीपूर्ण' नीतियों की घोर विरोधी थीं। इसी कारण उन्हें रूस छोडना पड़ा था। एक भारतीय कम्यूनिस्ट नेता की पत्नी और रूसी तानाशाह (अपने पिता की विरोधी) स्वेतलाना का निधन एक ऐसे समय मे हुआ है जब पूंजीवादी अमेरिका आर्थिक संकट से जूझ रहा है और उसे उबारने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 'वालमार्ट' सरीखी कंपनियों के लिए भारतीय बाजार खोल रहे हैं। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ने उत्तर प्रदेश मे तीन दूसरे बामपंथी दलों से मिल कर एक मोर्चा बनाया है और उसके तहत आगामी विधान सभा चुनाव 2012 मे लड़ने का निर्णय लिया है। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी,उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव डा. गिरीश ने एक वक्तव्य जारी कर  कहा है  कि ,"चूंकि इस समय पूंजीवादी दल अपनी कारगुजारियों के चलते पूरी तरह बेनकाब हो गये हैं, अतएव उत्तर प्रदेश की जनता एक साफ सुथरे नये विकल्प की तलाश में है। एक हद तक इस कमी को वामपंथी दल पूरा कर सकते हैं जो आम जनता की समस्याओं पर लगातार संघर्ष करते रहे हैं, भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त हैं और उनके पास संगठन का एक ठीक-ठाक ताना-बाना पूरे प्रदेश में मौजूद हैं। इस उद्देश्य से भाकपा, माकपा, फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी पहले ही एकजुट हो चुके हैं और अब दूसरे वाम समूहों का आह्वान किया गया है कि ऐतिहासिक इस घड़ी में मोर्चे के साथ आयें। कुछ धर्मनिरपेक्ष और भ्रष्टाचार से मुक्त छोटे दलों को भी साथ लेने पर विचार किया जा रहा है।"


भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को सबसे अधिक नुकसान डॉ राम मनोहर लोहिया के राजनीतिक दर्शन से हुआ है ,इस संबंध मे जून 2011 मे सत्य नारायण ठाकुर साहब ने डा. लोहिया के विचारों के विरोधाभास को उजागर करते हुए तीन कड़ियों में विस्तार से बताया है उस पर ध्यान देने की पर्मावाश्यक्ता है.साथ ही साथ निम्न-लिखित तथ्यों पर भी यदि ध्यान दिया जाये तो भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को लाभ हो सकता है-




वस्तुतः डा.लोहिया ने १९३० में 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी'की स्थापना १९२५ में स्थापित भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी'और इसके आंदोलन को विफल करने हेतु की थी.


स्वामी दयानंद के नेतृत्व में 'आर्य समाज'के माध्यम से देश की आजादी की जो मांग १८७५ में उठी थी उसे दबाने हेतु १८८५ में कांग्रेस की स्थापना रिटायर्ड आई .सी.एस.श्री ह्यूम द्वारा वोमेश बेनर्जी की अध्यक्षता में हुयी थी जिसमें आर्य समाजियों ने घुस कर आजादी की मांग उठाना शुरू कर दिया था.बाद में कम्यूनिस्ट भी कांग्रेस में घुस कर ही स्वाधीनता आंदोलन चला रहे थे.


१९२० में स्थापित हिन्दू महासभा के विफल रहने पर १९२५ में आर.एस.एस. की स्थापना अंग्रेजों के समर्थन और प्रेरणा से हुयी जिसने आर्य समाज को दयानंद के बाद मुट्ठी में कर लिया तब स्वामी सहजानंद एवं गेंदा लाल दीक्षित सरीखे आर्य समाजी कम्यूनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए थे.
सी.एस. पी की वजह से जनता भ्रमित रही और क्रांतिकारी ही कम्यूनिस्ट हो सके.


डा.लोहिया ने अपनी पुस्तक'इतिहास चक्र'में साफ़ लिखा है 'साम्यवाद' और पूंजीवाद'सरीखा कोई भी वाद भारत के लिए उपयोगी नहीं है .
हम कम्यूनिस्ट जनता को यह नहीं समझाते थे -कम्यूनिज्म भारतीय अवधारणा है जिसे मैक्समूलर साहब की मार्फ़त महर्षि मार्क्स ने ग्रहण करके 'दास केपिटल'लिखा था.हमने धर्म को अधर्मियों के लिए खुला छोड़ दिया और कहते रहे-'मैन हेज क्रियेटेड गाड फार हिज मेंटल सिक्यूरिटी आनली'.हम जनता को यह नहीं समझा सके -जो शरीर को धारण करे वह धर्म है.नतीजा यह रहा जनता को भटका कर धर्म के नाम पर शोषण को मजबूत किया गया. डा.लोहिया भी रामायण मेला आदि शुरू कराकर जनता को जागृत करने के मार्ग में बाधक रहे.

आज यदि हम धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करके जनता को स्वामी दयानद,विवेकानंद,कबीर और कुछ हद तक गौतम बुद्ध का भी सहारा लेकर समझा सकें तो मार्क्सवाद को भारत में सफल कर सकते हैं जो यहीं सफल हो सकता है.यूरोपीय दर्शन जो रूस में लागू हुआ विफल हो चुका है.केवल और केवल भारतीय दर्शन ही मार्क्सवाद को उर्वर भूमि प्रदान करता है,यदि हम उसका लाभ उठा सकें तो जनता को राहत मिल सके.व्यक्तिगत स्तर पर मैं अपने 'क्रान्ति स्वर 'के माध्यम से ऐसा ही कर रहा हूँ.परन्तु यदि सांगठनिक-तौर पर किया जाए तो सफलता सहज है.

भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन के एक बड़े संगठनकर्ता कामरेड बृजेश सिंह की पत्नी स्वेतलाना के निधन के बाद अब तो यह स्वीकार कर ही लिया जाना चाहिए कि,रूस मे जिस तरीके से साम्यवाद को लागू किया गया था वह गलत था तभी स्टालिन की पुत्री स्वेतलाना को ही विद्रोह करना पड़ा था और इसी कारण रूस मे साम्यवाद विफल हो गया था। साम्यवाद जो मूलतः भारतीय अवधारणा है भारतीय संदर्भों से ही भारत मे प्रसार पा सकेगा। जो लोग आज भी संकीर्ण(दक़ियानूसी) सिद्धांतों पर कम्यूनिस्ट आंदोलन को चलाने की जिद्द करते हैं वे वास्तव मे 'साम्यवाद' के हितैषी नहीं हैं और न ही भारत मे साम्यवाद को सफल होते देखना चाहते हैं चाहे संगठन मे वे कितने ही प्रभावशाली पदों पर क्यों न आसीन हों।  

Monday, November 28, 2011

1991 के अप्रकाशित लेख-(3 )/ 'मानवता का हत्यारा -जार्ज बुश' ------ विजय राजबली माथुर

सन 1991 मे राजनीतिक परिस्थितिए कुछ इस प्रकार तेजी से मुड़ी कि हमारे लेख जो एक अंक मे एक से अधिक संख्या मे 'सप्त दिवा साप्ताहिक',आगरा के प्रधान संपादक छाप देते थे उन्हें उनके फाइनेंसर्स जो फासिस्ट  समर्थक थे ने मेरे लेखों मे संशोधन करने को कहा। मैंने अपने लेखों मे संशोधन करने के बजाए उनसे वापिस मांग लिया जो अब तक कहीं और भी प्रकाशित नहीं कराये थे उन्हें अब इस ब्लाग पर सार्वजनिक कर रहा हूँ और उसका कारण आज फिर देश पर मंडरा रहा फासिस्ट तानाशाही का खतरा है। जार्ज बुश,सद्दाम हुसैन आदि के संबंध मे उस वक्त के हिसाब से लिखे ये लेख ज्यों के त्यों उसी  रूप मे प्रस्तुत हैं-

'मानवता का हत्यारा -जार्ज बुश'

वह दिन अब दूर नहीं जब आज के नौनिहालों की संताने डाक्ट्रेट हासिल करने के लिए अपने शोध-ग्रन्थों मे अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश को मानवता का निर्मम संहार करने वाला एक जघन्य अपराधी और क्रूरतम -हत्यारा लिख कर वर्तमान काल का ऐतिहासिक मूल्यांकन करेंगी। काश साम्राज्यवादी लूट के सौदागरों का सरगना अमेरिका शोषण-प्रवृत्ति के लोभ को त्याग सकता और अपने राष्ट्रपति की भावी छीछालेदर को बचा सकता! 


आज नहीं तो कल वर्ना परसों तो तृतीय विश्वमहायुद्ध अब छिड़ने ही जा रहा है। पूंजीवादी प्रेस और आंध्राष्ट्रीयतावादी ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को इसके लिए उत्तरदाई ठहरा रहे हैं। पश्चिम के साम्राज्यवादी प्रेस ने तो प्रेसीडेंट सद्दाम की तुलना नाजी हिटलर से की है। परंतु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है।

सिक्किम ने वैधानिक रूप से भारत मे अपना विलय कर लिया था परंतु पुर्तगाली साम्राज्य से मुक्त कराने के लिए 1961 मे हमे भी गोवा मे बल -प्रयोग करना पड़ा था। इसी प्रकार कुवैत जो मूलतः ईराकी गणराज्य का अभिन्न अंग था,पाश्चात्य साम्राज्यवादी लुटेरे देशों की दुरभि संधि से ईराक से अलग किया गया था और तथाकथित स्वतन्त्रता के लबादे मे साम्राज्यवाड़ियों का ही उपनिवेश था। अतः 02 अगस्त 1990 को ईराक ने  बलपूर्वक  पुनः कुवैत का ईराक मे विलय कर लिया। एक प्रकार से यह पुराने षड्यंत्र को विफल किया गया था।

संयुक्त राष्ट्रसंघ दोषी-

जिस प्रकार लीग आफ नेशन्स की गलतियों से 1939 मे जर्मनी द्वारा पोलैंड पर आक्रमण करने से द्वितीय विश्वमहायुद्ध भड़का था;ठीक उसी प्रकार आज भी संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा ईराक को कुवैत न छोडने पर युद्ध का आल्टीमेटम देने और अमेरिका द्वारा उस पर अमल करने की आड़ मे ईराक पर हमला करने से तृतीय विश्वमहायुद्ध महाप्रलय लाने हेतु छिड़ने की संभावना प्रबल है।

जब लीबिया पर अमेरिकी राष्ट्रपति बमबारी की ;राष्ट्रसंघ मौन रहा,जब पनामा मे हमला कर वहाँ के राष्ट्रपति को कैद करके अमेरिका ले जाया गया,राष्ट्रसंघ मौन रहा। इससे पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर ने फाकलैंड द्वीप पर हमला करके उसे अर्जेन्टीना से छीन लिया राष्ट्रसंघ मौन रहा। इज़राईल लगातार राष्ट्रसंघ प्रस्तावों की अवहेलना करके जार्डन के गाजा पट्टी इत्यादि इलाकों को जबरन हथियाए बैठा है-राष्ट्रसंघ नपुसंक बना रहा। सिर्फ ईराक का राष्ट्रीय एकीकरण राष्ट्रसंघ की निगाह मे इसलिए गलत है कि,अमेरिका के आर्थिक और साम्राज्यवादी हितों को ठेस पहुँच रही है।

बाज़ारों की लड़ाई है-

ब्रिटेन ,फ्रांस,पुर्तगाल और हालैण्ड सम्पूर्ण विश्व पर अपने कुटिल व्यापार और शोषण के सहारे प्रभुत्व जमाये हुये थे। यूरोप मे भी और अपने उपनिवेशों मे भी अपने-अपने बाजार फैलाने के लिए ये परस्पर सशस्त्र संघर्ष करते रहते थे। परंतु जर्मनी द्वारा प्रिंस बिस्मार्क के प्रधान् मंत्रित्व और विलियम क़ैसर द्वितीय के शासन मे तीव्र औद्योगिक विकास कर लेने के बाद उसे भी अपना तैयार माल बेचने के लिए 'बाजार' की आवश्यकता थी। इसलिए वह पहले से स्थापित साम्राज्यवाड़ियों का साझा शत्रु था। 'प्रशिया 'प्रांत को जर्मनी से निकाल देने पर समस्त साम्राज्यवादी प्रतिद्वंदी इकट्ठे हो कर जर्मनी पर टूट पड़े और 1914 मे प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया। पराजित जर्मनी को बाँट डाला गया। विश्व शांति के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन की पहल पर 'लीग आफ नेशन्स'की स्थापना हुई।


द्वितीय विश्व महायुद्ध भी बाजारू टकराव था-

अमेरिका स्वंय लीग का सदस्य नहीं बना। पराजित जर्मनी मे हर एडोल्फ़ हिटलर,इटली मे बोनीटो मुसोलिनी और जापान मे प्रधानमंत्री टोजो के नेतृत्व मे द्रुत गति से औद्योगिक विकास हुआ और ये तीनों अमेरिका,ब्रिटेन व फ्रांस के समकक्ष आ गए परंतु बाज़ारों पर कब्जा न कर पाये। इटली ने 'अबीसीनिया' पर आक्रमण कर अपने साम्राज्य मे मिला लिया। लीग लुंज-पुंज रहा। 1939 मे जर्मनी ने अपने पुराने भाग पोलैंड पर आक्रमण कर दिया और द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया जिसकी समाप्ती 1945 मे जापान के हीरोशिमा और नागासाकी पर अणु-बमों द्वारा अमेरिकी प्रहार से हुई। पुनः विश्व शांति के लिए 'संयुक्त राष्ट्रसंघ' की स्थापना हुई जिसमे विजेता पाँच राष्ट्रों -अमेरिका,ब्रिटेन,फ्रांस,रूस और चीन को विशेषाधिकार -वीटो दे कर व्यवहार मे इसे पंगु बना दिया गया। इज़राईल के विरुद्ध यू एन ओ का कुछ न कर पाना अमेरिकी वीटो का ही करिश्मा हा।

तृतीय विश्वयुद्ध का प्रयास भी साम्राज्यवादी बाजार की रक्षा का प्रयास है-

ईराक द्वारा विश्व के पांचवे भाग का तेल उत्पादक क्षेत्र वापिस अपने देश मे मिलाने से साम्राज्यवादी लुटेरे देशों और उनके आका अमेरिका को अपने हाथ से विश्व बाजार खिसकता नज़र आया और उसी बाज़ार को बचाने के असफल प्रयास मे अमेरिका समस्त मानवता को विनष्ट करने पर तुला हुआ है। पैसा नहीं तो जी कर क्या करेगा पैसों वाला और अकेला क्यों मारे सभी को ले मरेगा अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश।

खाड़ी देशों से प्राप्त होने वाला तेल एक ऐसा ऊर्जा स्त्रोत है जिस पर आज का सम्पूर्ण औद्योगिक विकास व आर्थिक प्रगति निर्भर हो गई है। कल-कारखानों के लिए ईधन हो या विद्युत जेनेरेटर के लिए अथवा खेतों के पंप सेटों के लिए तेल ही की आवश्यकता है। रेलें,यान,पोत सभी को तो तेल चाहिए। अब तक साम्राज्यवादी देश तेल का अधिकांश भाग अपने दबदबे से हड़प लेते थे। राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने ईराक की सत्ता समहालते ही साम्राज्यवाड़ियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया और ईराक को एक प्रगतिशील-समृद्ध -सुदृढ़ राष्ट्र का स्वरूप प्रदान किया जबकि,अन्य खाड़ी देश अब भी साम्राज्यवाड़ियों के पिछलग्गू हैं। कुवैत लेकर सद्दाम ने साम्राज्यवाड़ियों का बाजार छीन लिया अतः उन पर युद्ध थोपा जा रहा है,उद्देश्य है ईराक मे तख़्ता पलट अथवा पराजय से साम्राज्यवाड़ियों का विश्व बाजार चंगुल मे फंसाए रखा जाये। (मेरा 1991 मे यह आंकलन गलत नहीं था ,बाद मे ऐसा ही हुआ और अभी-अभी लीबिया मे भी गद्दाफ़ी के खात्मे से इसकी पुष्टि होती है। )


महा विनाश होगा-

विश्व मे अब तक उपलब्ध परमाणु भंडार मे इतनी संहारक क्षमता है कि सम्पूर्ण प्रथ्वी को छप्पन (56)बार समूल विनष्ट किया जा सकता है। शायद परमाणु युद्ध अपने पूरे यौवन के साथ न भी खेला जाये । परंतु युद्ध प्रारम्भ हो जाने पर ईराक समर्थक जारदन,अल्जीरिया आदि राष्ट्र व विरोधी सऊदी अरब,मिश्र और उनके गुरुघंटाल अमेरिका,ब्रिटेन आदि शत्रु देशों के तेल-कूपों पर प्रहार करेंगे। समस्त खाड़ी क्षेत्र जन-संख्या से वीरान तो हो ही जाएगा उनका भूमिगत तेल-भंडार ज्वालामुखी के विस्फोटों के साथ जल उठेगा। वैज्ञानिकों के अनुसार तब कई वर्षों तक वर्षा नहीं होगी और जब होगी तो अम्लीय जिससे भूमि ऊसर हो जाएगी। अकाल और महामारियों से जन-विनाश होगा। अनुमान है कि,तृतीय महायुद्ध जब भी होगा उसकी समाप्ती होते-होते विश्व की एक चौथाई आबादी ही बचेगी। यदि परमाणु युद्ध भी हुआ तो वायु मण्डल मे ओज़ोन गैस की परतें फट जाएंगी जिससे सूर्य का प्रकाश सीधे प्रथ्वी पर पद कर समस्त जीवों का दहन कर देगा और बचेगा ज्वालामुखी का लावा,खंधर,वीरान प्रथवी मण्डल तब कहाँ साम्राज्यवाद होगा?कहाँ बाजार?और कहाँ जार्ज बुश और उनका अमेरिका। क्या पृथ्वी  पर मानवता का संचार होने की कोई संभावना है?

Friday, November 18, 2011

नाच न आवे आँगन टेढ़ा

आज कल बैठे ठाले कुछ लोग 'ज्योतिष' की आलोचना करना अपना कर्तव्य और बड़प्पन समझ रहे हैं। बे सिर पैर की बातों को लेकर आधार हींन  और अतार्किक प्रश्न उठा कर ज्योतिष को चेलेंज देना तो कोई इनसे बड़ी सरलता से सीख सकता है। वस्तुतः 'काला अक्षर भैंस बराबर' इंनका ज्योतिष ज्ञान है और फुटपाथ पर बैठे 'तोता 'वाले या सड़क पर घूमते 'बैल'वाले को ही ये ज्योतिषी मानते हैं और ज्योतिष की 'धुआंधार आलोचना' करने लग जाते हैं।                                                                                                                                          

'ढोंग पाखंड और ज्योतिष'  मे मैंने ऐसे लोगों की पोल खोल कर सावधान रहने का जनता से आह्वान किया था। परंतु भाषा और साहित्य के ये प्रचंड विद्वान मुझ जैसे अज्ञात व्यक्ति के विचारों को कैसे स्वीकार कर सकते हैं?


मैंने 'ज्योतिष और हम'  द्वारा मानव जीवन पर पड़ने वाले ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव को सरलतम ढंग से स्पष्ट करने का भी प्रयास किया था। जो लोग जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ते हैं उन्हें तो सच्चाई कभी स्वीकार हो ही नहीं सकती परंतु खेद का विषय यह है कि जो लोग खुद को प्रगतिशील और जनता का हमदर्द बताते हैं वे भी झूठ को ही बल प्रदान करते हैं । अफसोसजनक ही है कि जिस 'ज्योतिष' का उद्देश्य 'मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध'बनाना है उसे ही तथाकथित प्रगतिशील विद्वान त्याज्य बताते हुये भर्त्सना  करते हैं।

ज्योतिष = ज्योति अर्थात प्रकाश का ज्ञान। 'ज्योतिष' का विरोध करके प्रकाश और ज्ञान से जनता को वंचित करके ये विद्वान किसका हितसाधन कर रहे हैं यह स्वतः स्पष्ट है। इसी प्रकार 'धर्म' का विरोध भी एक प्रगतिशील फैशन के तहत किया जा रहा है। 'धर्म'वह नहीं है जिसे पुरोहितवादी उत्पीड़न और लूट को पुख्ता बनाने के लिए घोषित करते हैं परंतु ये विद्वान उसी ढोंग को ही 'धर्म' माने बैठे है । वे  ढोंगियों और ढोंगवाद की तो भर्त्सना करते नहीं ,उनका विरोध करते नहीं और बिना जाने-बूझे 'धर्म' पर हमला करते हैं। अधर्म के अलमबरदारों और इनमे कोई मौलिक अंतर नहीं है।


'धर्म और विज्ञान' शीर्षक से लिखे लेख मे मैंने 'धर्म' का वैज्ञानिक अर्थ स्पष्ट करने की चेष्टा की है,परंतु सुधी विद्वजन उस पर कोई ध्यान ही नहीं देना चाहते और अपनी गलत धारणाओं को जबरिया सब पर थोप देना चाहते हैं। यही नहीं 'श्रद्धा,विश्वास और ज्योतिष' तथा 'ज्योतिष और अंध विश्वास' के माध्यम से मैंने वैज्ञानिक तर्क सहित 'ज्योतिष' और ढोंग के अंतर को भी स्पष्ट किया है। ढोंग और पाखंड किसी भी रूप मे ज्योतिष नहीं हैं और उनका न केवल विरोध बल्कि उन्मूलन भी होना चाहिए। लेकिन थोथे  वक्तव्यों द्वारा ज्योतिष की आलोचना करने वाले कई ऐसे कामरेड्स को मै जानता हूँ जो प्रत्येक ब्रहस्पतिवार को मजार पर जाकर दीप जलाते है। धर्म और ज्योतिष की आलोचना करने वाले सी पी एम के एक नेता ने तो मुझ से अपनी पुत्री तथा पुत्र की जन्म-पत्री बनवाकर उनका भविष्य इन्टरनेट के जरिये मंगवाया था।  एक बड़बोले आर्यसमाजी ( जो अब अपने पुत्र के पास बेंगलोर चले गए हैं)ने आगरा मे अपनी पुत्री की शादी हेतु जन्म-पत्र आर्यसमाज के ही पूर्व मंत्री से बनवाकर भेजी थी। सरला बाग (दयाल बाग),आगरा मे राधास्वामी मत के अनुयायियों ने मुझसे जन्म-पत्र बनवाए और अपने बच्चों का भविष्य ज्ञात किया लेकिन प्रवचनों मे ज्योतिष की आलोचना करते रहे। जिनकी कथनी और करनी मे अंतर है ऐसे लोग जनता और समाज के शत्रु ही हैं ,हितैषी नहीं। अतः ऐसे लोगों की 'ज्योतिष' अथवा 'धर्म' संबंधी आलोचना को 'जन-विरोधी' समझा जाना चाहिए। 

Saturday, November 12, 2011

विलंबित समाचार


हिंदुस्तान ,लखनऊ,12 नवंबर,2011 के समपादकीय और उसी पृष्ठ पर प्रकाशित वैज्ञानिक सुमन सहाय जी  के लेख के स्कैन से विस्तृत वर्णन मिल जाएगा। ब्लाग जगत मे अनेक डॉ,इंजीनियर और वैज्ञानिक भी हैं और एक वैज्ञानिक ब्लाग एसोसिएशन भी है परंतु ब्लाग्स मे या फेस बुक पर तीन दिनो तक कोई समाचार नहीं दीखा और आज प्रथम पृष्ठ पर छोटी सी खबर के साथ ये लेख पढ़ने को मिले। डॉ खुराना का निधन विश्व के साथ -साथ भारतीय विज्ञान जगत की भी क्षति है।

एक महान वैज्ञानिक को हमारे देश की सरकारों ने तथा साथ ही हमारे वैज्ञानिकों ने भी उपेक्षित रखा। इसी वजह से जब उन्हे 'नोबुल'पुरस्कार मिला और भारत मे उन्हे अपना बताने की होड मची तो उन्होने बड़ी पीड़ा के साथ कहा था कि वह अब भारतीय नहीं हैं और उन्होने अमेरिकी नागरिकता ले ली है एवं अमेरिकी नागरिक की हैसियत से ही उन्हे यह पुरस्कार मिला है। तब यहाँ के समाचार पत्रों ने स्व अमृत लाल नागर समेत अनेक साहित्यकारों तथा दूसरे लोगों के साक्षात्कार छाप कर यह बताया था कि उनमे से किसी को ऐसा पुरस्कार मिलने पर वे अपने को भारतीय ही बताएँगे। एक प्रकार से यह डॉ खुराना का तिरस्कार करना ही था।

अब भी उनके निधन का समाचार विलंब से ही प्रकाश मे आया है। जो भी हो वह जन्म से भारतीय थे और भारत सरकार तथा यहाँ के लोगों को चाहिए जैसा कि 'सुमन सहाय 'जी ने सुझाव भी दिया है कि अब भी डॉ हर गोविंद खुराना के नाम पर उनकी स्मृति मे पुरस्कार या शिक्षा संस्थानों का नामकरण कर के उन्हे श्रद्धांजली दे सकते हैं। 

Thursday, November 10, 2011

"सद्दाम हुसैन "/गरीबों का मसीहा-एशिया का गौरव-1991 का अप्र.लेख(2) ------ विजय राजबली माथुर



सन 1991 मे राजनीतिक परिस्थितिए कुछ इस प्रकार तेजी से मुड़ी कि हमारे लेख जो एक अंक मे एक से अधिक संख्या मे 'सप्त दिवा साप्ताहिक',आगरा के प्रधान संपादक छाप देते थे उन्हें उनके फाइनेंसर्स जो फासिस्ट  समर्थक थे ने मेरे लेखों मे संशोधन करने को कहा। मैंने अपने लेखों मे संशोधन करने के बजाए उनसे वापिस मांग लिया जो अब तक कहीं और भी प्रकाशित नहीं कराये थे उन्हें अब इस ब्लाग पर सार्वजनिक कर रहा हूँ और उसका कारण आज फिर देश पर मंडरा रहा फासिस्ट तानाशाही का खतरा है। जार्ज बुश,सद्दाम हुसैन आदि के संबंध मे उस वक्त के हिसाब से लिखे ये लेख ज्यों के त्यों उसी  रूप मे प्रस्तुत हैं-


नेताजी सुभाष चंद्र बॉस ने कहा था-"एशिया एशियाईओ के लिये"। ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने साम्राज्यवाद के आगे न झुक कर एशिया का मस्तक ऊंचा किया है। जार्ज वाशिंगटन यदि संयुक्त राज्य अमेरिका का संगठक था तो जार्ज बुश विध्वंसक बन रहा है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के खात्मे के साथ ही विश्व से शोषण और दमन का युग समाप्त होगा। यदि राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन सफल रहे तो इसका श्रेय उन्ही को जाएगा।

शोषणवादी-पूंजीवादी लुटेरी मनोवृत्ति के लोग लगातार सद्दाम हुसैन के विरुद्ध विष-वामन किए जा रहे हैं। भाजपा की घोंघावादी नीतियों के समर्थक और प्रशंसक हिन्दू/मुस्लिम के आधार पर और हाल ही मे साम्राज्यवादियों की एजेंट विहिप द्वारा संचालित कमल 'रथ-यात्रा'से फूल कर कुप्पा हुये विचारक ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को तृतीय विश्व महायुद्ध के प्रारम्भ होने का खतरा बता कर दोषी ठहरा रहे हैं और जार्ज बुश का समर्थन कर रहे जो कि,भारत के राष्ट्रीय हितों के सर्वथा विपरीत है ।

संयुक्त राज्य अमेरिका का उदय-

जब स्पेन का कोलंबस भारत की खोज मे भटक कर अमेरिका महाद्वीप पर पहुंचा और इसके पिछड़ेपन के समाचार यूरोप पहुंचे तो यूरोप के साम्राज्यवादी देशों ने अपनी बढ़ती हुई आबादी को नियंत्रित करने के लिये अपने-अपने उपनिवेश कायम करके वहाँ के मूल-आदिवासियों (तथाकथित रेड इंडियन्स)को समाप्त कर दिया।

हालांकि अमेरिका मे कायम उपनिवेश यूरोपीय नस्ल की आबादी के ही थे परंतु उन्होने अपने-अपने मूल राज्यों के विरुद्ध बगावत कर दी और संयुक्त रूप से जार्ज वाशिंगटन के नेतृत्व मे आजादी की लड़ाई लड़ी। लार्डकारनावालिस जो साम्राज्यवाड़ियों की सेना का नायक था जार्ज वाशिंगटन द्वारा कैद कर लिया गया (यही लार्ड कार्नावालिस भारत मे वाईस राय बन कर आया और यहाँ स्थाई बंदोबस्त नाम से किसानों के शोषण के लिये जमींदारी प्रथा लागू कर गया)। चौदह (14) उपनिवेशों ने आजादी पाकर मिल कर एक राष्ट्र 'संयुक्त राज्य अमेरिका' की स्थापना की।

अमेरिकी साम्राज्यवाद-

प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जकड़न ढीली पड़ने लगी और इसका स्थान अमेरिका लेता गया । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब भारत से ब्रिटिश साम्राज्य का उखड़ना प्रारम्भ हुआ तो अमेरिका विश्व के साम्राज्यवादियों के सरगना के रूप मे स्थापित हो चुका था। अमेरिकी गुप्तचर संस्था सी आई ए का मुख्य कार्य लोकतान्त्रिक देशों मे उखाड़-पछाड़ करना और तानाशाहों का समर्थन करना हो गया जिससे अमेरिकी साम्राज्यवाद के हित सुरक्षित  रखे जा सकें। पाकिस्तान,बांग्ला देश आदि के तानाशाह अमेरिकी कठपुतली साबित हो चुके हैं। पश्चिम एशिया मे अरब शेख भी अमेरिकी साम्राज्यवाद के मजबूत पाएदान रहे हैं। इन शेखों ने अपने-अपने देश की पेट्रो -डालर सम्पदा अमेरिकी बैंकों मे विनियोजित कर रखी है।

जो अमेरिका साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की उपज था वही साम्राज्यवाद का क्रूरत्तम  सरगना बना यह भी विडम्बना और खेद की ही बात है।

सद्दाम का संघर्ष-

सद्दाम हुसैन ने ईराक की सत्ता समहालते ही ईराक मे द्रुत गति से विकास कार्य सम्पन्न किए। जनता को समानता और लोकतन्त्र के अधिकार दिये एवं इस्लामी घोंघावाद का पर्दाफाश 
सऊदी अरब आदि शेखों वाले अरब देश जहां सामाजिक आधार पर आज भी उन्नत्त नहीं हैं। सद्दाम ने ईराक मे स्त्री-पुरुष की समानता पर बल दिया और पर्दा-प्रथा को समाप्त कर दिया। सद्दाम हुसैन ईरान के कठमुल्ला आयतुल्ला रूहैल्ला खोमेनी की नीतियों के सख्त विरोधी रहे और आठ वर्षों तक ईरान से युद्ध किया।

हाल मे ईराक ने ईरान से सम्झौता करके उसका विजित  प्रदेश लौटा दिया और अमेरिका के पिट्ठू कुवैत के शेख को भगा कर पुनः कुवैत का ईराक  मे विलय कर लिया । जार्ज बुश को सद्दाम का यह कार्य अमेरिकी साम्राज्यवाद की जड़ों पर प्रहार प्रतीत हुआ। अमेरिका ने अपने धौंस-बल पर संयुक्त राष्ट्र संघ से 29 नवंबर 1990 को ईराक पर आक्रमण करने का प्रस्ताव पास करा लिया और 15 जनवरी 1991 तक का समय झुकाने के लिए तय किया गया।

वीर ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को दाद दी जानी चाहिए की,उन्होने साम्राज्यवादी लुटेरे अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के समक्ष घुटने नहीं टेके और समस्त एशिया से साम्राज्यवाद का खात्मा करने का बोझ ईराक के कंधों पर उठा लिया। 


भारतीय समयानुसार -17 जनवरी 1991 की प्रातः 03 बज कर 40 मिनट पर खूंखवार अमेरिका ने सोते हुये ईराक पर रात्रि के घुप्प अंधकार मे वीभत्स आक्रमण कर दिया और दोपहर  तक 18 हजार टन  गोला बारूद गिरा कर ईराक को जन-धन से काफी क्षति पहुंचाई है। 


पूर्व घोषणानुसार सद्दाम ने 18 ता .को इज़राईल पर मिसाइलों से आक्रमण कर दिया और लेबनान व फिलीसतीं न  की मुक्ति का संकल्प दोहराया। अमेरिका अरब जगत को धौंस जमाने के लिए इज़राईल को अंतर्राष्ट्रीय गुंडागर्दी के लिए उकसाता रहा है और इज़राईल के विरुद्ध राष्ट्रसंघ के सभी प्रस्तावों को वीटो करता रहा है जबकि,ईराक के विरुद्ध राष्ट्रसंघ प्रस्ताव की आड़ मे बर्बर हमला करके तृतीय विश्वयुद्ध की शुरुआत कराना चाहता है।

विहिप आंदोलन और अमेरिका-


1980 से ही अमेरिका विश्व हिन्दू परिषद को आर्थिक सहायता पहुंचा कर भारत मे अस्थिरता फैलाने का प्रयत्न करता रहा है। अमेरिकी कार निर्माता कंपनी फोर्ड का 'फोर्ड फाउंडेशन' खुले रूप मे विहिप को चन्दा देता रहा है। अमेरिकी धन के बल पर 25 सितंबर 1990 से विहिप ने आडवाणी-कमल-रथ यात्रा आयोजित कर समस्त भारत को सांप्रदायिक संघर्ष की आग मे झोंक दिया है।

अमेरिका संभावित युद्ध की विभीषिका के मद्दे नज़र भारत को कमजोर करना चाहता था जिससे एशियाईओ की अस्मिता की रक्षा मे भारत न खड़ा हो सके। कुछ हद तक अमेरिका को अपनी भारतीय शक्तियों -भाजपा/आर एस एस,विश्व हिन्दू परिषद,मौलाना बुखारी,सैयद शहाबुद्दीन,जमाते -इस्लामी,मुस्लिम लीग आदि के सहयोग से सफलता भी मिली। 17 ता को दिल्ली मे बुखारी और शहाबुद्दीन  द्वारा ईराक विरोधी बयान जारी करने और असम मे आडवाणी द्वारा ईराक की कड़ी आलोचना करने से अमेरिकी साजिश की ही पुष्टि होती है।

भारत का दायित्व-


भारत भरसक प्रयास के बावजूद युद्ध नहीं रोक सका है। रूस युद्ध मे अमेरिका का साथ नहीं देगा ,यह घोषणा करके राष्ट्रपति गोर्बाछोव ने एशिया के हित मे कदम उठाया है। चीन ने भी अमेरिका को चेतावनी दी थी कि,वह ईराक पर आक्रमण न करे। भारत का यह दायित्व हो जाता है कि,एशिया की तीनों शक्तियों-भारत,रूस और चीन को एकता -बद्ध करे और साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध ईराक को नैतिक समर्थन दे जिससे विश्व से शोशंणकारी शक्तियों को निर्मूल किया जा सके। विश्व की शोषित जनता के मसीहा के रूप मे सद्दाम हुसैन का नाम सदैव अमर रहेगा। 
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K Vikram Rao
एंग्लो-अमरीकी पाप उजागर आज हुआ
अन्ततः बारह साल बाद आज सच उभरा कि अमरीकी-ब्रिटिश फौज द्वारा Iraq पर हमला झूठी गुप्तचर रपट का नतीजा था। सब-कुछ प्रायोजित था। नवउपनिवेशवाद की साजिश थी। लार्ड जान चिलकोट की अध्यक्षता वाली जांच समिति के बारह खण्डों में छब्बीस लाख शब्दों में लिखे गये इस जाँच रपट से राष्ट्रपति जार्ज बुश George H. W. Bush और प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर Tony Blair पर युद्ध अपराधी का मुकदमा चलना चाहिये। मानवता का यह तकाजा है। डेढ लाख इराकी जनता का बमबारी से संहार किया गया था। राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन Saddam Hussein को फांसी दी गई थी। लार्ड चिलकोट ने लिखा कि ईराक की अपार हानि हुई। सद्दाम पर अणु बम बनाने का आरोप भी मनगढ़त पाया गया। 
अमरीकी हमले के बाद में IFWJ - Indian Federation of Working Journalists के पत्रकारों को लेकर मैं बगदाद गया था। सद्दाम हुसैन तब जीवित थे। उनके पुत्र इराकी श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के अध्यक्ष उदय हुसैन से भेंट भी की थी। ईराकी जर्नलिस्ट्स यूनियन के तमाम पदाधिकारियों से वार्ता भी मेरी हुई थी। वास्तविकता तभी उभर आई थी।
विद्रूपता देखिये। ब्रिटेन के समाजवादी प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर ने बाथ सोशलिस्ट नेता सद्दाम हुसैन के समतामूलक राष्ट्र पर अमरीकी साम्राज्यवादियों के पुछलगू बनकर आक्रमण किया। कांग्रेस-समर्थित भारत की समाजवादी जनता पार्टी सरकार के प्रधान मंत्री ठाकुर चन्द्रशेखर सिंह ने अमरीकी ब्रमवर्षक वायुयानों को मुम्बई में ईंधन भरने की विशेष अनुमति भी दे डाली थी।
बांग्लादेशी और पाकिस्तानी इस्लामी सेना ने इन उपनिवेशवादियों की नौकरी बजायी। सऊदी अरब और ईमाम बुखारी ने भी सद्दाम हुसैन के विरूद्ध पुरजोर अभियान चलाया। अमरीकियों की झण्डाबरदारी की। अमरीकी पूंजीवादी दबाव में शाही सऊदी अरब ने सद्दाम हुसैन के सोशिलिस्ट ईराक को नेस्तनाबूद करने में कसर नहीं छोड़ी। सऊदी अरब के बादशाह ने पैगम्बरे इस्लाम की जन्मस्थली के निकट अमरीकी हमलावर जहाजी बेड़े को जगह दी। नाना की मसनद (जन्म स्थली) के ऊपर से उड़कर अमरीकी आततायियों ने नवासे की मजारों पर कर्बला में बम बरसाए थे। मीनारों को क्षतिग्रस्त देखकर मुझ जैसे गैर-इस्लामी व्यक्ति का दिल भर आया था कि सऊदी अरब के इस्लामी शासकों को ऐसा नापाक काम करते अल्लाह का भी खौफ नही रहा | शकूर खोसाई के राष्ट्रीय पुस्तकालय में अमरीकी बमों द्वारा जले ग्रन्थों को देखकर उस दौर की याद बरबस आ गई जब चंगेज खाँ ने (1258) मुसतन्सरिया विश्वविद्यालय की किताबों का गारा बना कर युफ्रेट्स नदी पर पुल बनवाया था। 
हिन्दुस्तान के हिन्दुवादियों ने सद्दाम हुसैन को मात्र मुसलमान माना। अटल बिहारी पाजपेयी की जीभ उन दिनों जम गई थी। इसीलिये अब फिर हिन्दू राष्ट्रवादियों को याद दिलाना होगा कि ईराकी समाजवादी गणराज्य के अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन अकेले मुस्लिम राष्ट्राध्यक्ष थे जिन्होंने कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग कहा था। उनके राज में सरकारी कार्यालयों में नमाज़ अदायगी हेतु अवकाश नहीं मिलता था। कारण यही कि वे मज़हब को निजी आस्था की बात मानते थे। अयोध्या काण्ड पर जब इस्लामी दुनिया में बवण्डर उठा था तो बगदाद शान्त था। सद्दाम ने कहा था कि एक पुरानी इमारत गिरी है, यह भारत का अपना मामला है। उन्हीं दिनों ढाका में प्राचीन ढाकेश्वरी मन्दिर ढाया गया था। तस्लीमा नसरीन Tasleema Nasreen ने अपनी कृति (लज्जा) में बांग्लादेश में हिन्दू तरूणियों पर हुए वीभत्स जुल्मों का वर्णन किया है। इसी पूर्वी पाकिस्तान को भारतीय सेना द्वारा मुक्त कराने पर शेख मुजीब के बांग्लादेश को मान्यता देने में सद्दाम सर्वप्रथम थे। इन्दिरा गांधी की (1975 ईराक यात्रा पर मेज़बान सद्दाम ने उनका सूटकेस उठाया था। जब रायबरेली लोकसभा चुनाव में वे हार (1977 गईं थीं तो इन्दिरा गांधी को बगदाद में स्थायी आवास की पेशकश सद्दाम ने की थी। पोखरण द्वितीय (मई, 1988, पर भाजपावाली राजग सरकार को सद्दाम ने बधाई दी थी, जबकि कई परमाणु शक्ति वाले राष्ट्रों ने आर्थिक प्रतिबन्ध लादे थे। सद्दाम के नेतृत्ववाली बाथ सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में शिरकत करते रहे। भारतीय राजनेताओं को स्मरण होगा कि भारतीय रेल के असंख्य कर्मियों को आकर्षक अवसर सद्दाम ने वर्षों तक उपलब्ध कराए। उत्तर प्रदेश सेतु निर्माण निगम ने तो ईराक से मिले ठेकों द्वारा बहुत लाभ कमाया। पैंतीस लाख भारतीय श्रमजीवी सालाना एक खरब रुपये भारत भेजते थे। भारत को ईराकी तेल सस्ते दामों पर मुहय्या होता रहा। इस सुविधा का दुरूपयोग करने में कांग्रेस विदेश मंत्री (नटवर सिंह जैसे) तक नहीं चूके थे। आक्रान्त ईराक के तेल पर कई भारतीयों ने बेशर्मी से चाँदी काटी। भारत के सेक्युलर मुसलमानों को फक्र होगा याद करके कि ईराक में बुर्का लगभग लुप्त हो गया था। नरनारी की गैरबराबरी का प्रतीक यह काली पोशाक सद्दाम के ईराक में नागवार बन गई थी। कर्बला, मौसूल, टिकरीती आदि सुदूर इलाकों में मुझे तब बुर्का दिखा ही नहीं। स्कर्ट और ब्लाउज़ राजधानी बगदाद में आम लिबास था। माथे पर वे बिन्दिया लगाती थीं और उसे “हिन्दिया” कहती थीं। आधुनिक स्कूलों में पढ़ती छात्राओं, मेडिकल कालेजों में महिला चिकित्सकों और खाकी वर्दी में महिला पुलिस और सैनिकों को देखकर आशंका होती थी कि कहीं हिन्दूबहुल भारत से आगे यह इस्लामी देश न बढ़ जाए।
सद्दाम हुसैन के समय में हुई प्रगति में आज परिवर्तन आया है। अधोगति हुई है। टिग्रिस नदी के तट पर या बगदाद की सड़कों पर राहजनी और लूट अब आम बात है। एक दीनार जो साठ रूपये के विनिमय दर पर था, आज रूपये में दस मिलता है। दुपहियों और तिपहियों को पेट्रोल मुफ्त मिलता था, केवल शर्त थी कि चालक खुद उसे भरे। भारत में बोतल भर एक लीटर पानी दस रूपये का है। सद्दाम के ईराक में उसके चैथाई दाम पर लीटर भर पेट्रोल मिलता था।
अमरीका द्वारा थोपे गये “लोकतांत्रिक” संविधान के तहत सेक्युलर निज़ाम का स्थान आज कठमुल्लों ने कब्जाया है। नरनारी की गैरबराबरी फिर मान्य हो गई है। दाढ़ी और बुर्का भी प्रगट हो गये हैं। ईराकी युवतियों के ऊँचे ललाट, घनी लटें, गहरी आंखें, नुकीली नाक, शोणित कपोल, उभरे वक्ष अब छिप गये। यदि आज बगदाद में कालिदास रहते तो वे यक्ष के दूत मेघ के वर्ण की उपमा एक सियाह बुर्के से करते। ईराक में ठीक वैसा ही हुआ जो सम्राट रजा शाह पहलवी के अपदस्थ होने पर खुमैनी.राज में ईरान में हुआ, जहां चांद को लजा देने वाली पर्शियन रमणियां काले कैद में ढकेल दी गईं। नये संविधान में बहुपत्नी प्रथा, ज़ुबानी तलाक का नियम और जारकर्म पर केवल स्त्री को पत्थर से मार डालना फिर कानूनी बन गया हैं।
अतः चर्चा का मुद्दा है कि आखिर अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का अंजाम ऐसा क्यों हुआ मजहब के नाम पर बादशाहत और सियासत करने वालों को सद्दाम कभी पसन्द नहीं आए। उनकी बाथ सोशलिस्ट पार्टी ने रूढ़िग्रस्त ईराकी समाज को समता-मूलक आधार पर पुनर्गठित किया। रोटी, दवाई, शिक्षा, आवास आदि बुनियादी आवश्यकताओं को मूलाधिकार बनाया था। पड़ोसी अरब देशों में मध्यकालीन बर्बरता राजकीय प्रशासन की नीति है, मगर बगदाद में कानूनी ढांचा पश्चिमी न्याय सिद्धान्त पर आधारित था। ईराक में चोरी का दण्ड हाथ काटना नहीं था, वरन् जेल की सज़ा होती थी। 
सद्दाम को जार्ज बुश ने सेटन (शैतान) कहा। टिकरीती का एक यतीम तरूण सद्दाम हुसैन चाचाओं की कृपा पर पला। पैगम्बरे इस्लाम की पुत्री फातिमा का यह वंशज जब मात्र उन्नीस वर्ष का था तो बाथ सोशलिस्ट पार्टी में भर्ती हुआ। श्रम को उचित महत्व देना उसका जीवन दर्शन था। अमरीकी फौजों ने अपदस्थ राष्ट्रपति की जो मूर्तियां ढहा दी है, उनमें सद्दाम हुसैन हंसिया से बालियाँ काटते और हथौड़ा चलाते दिखते थे। अक्सर प्रश्न उठा कि सद्दाम हुसैन ईराक में ही क्यों छिपे रहे, क्योंकि उन्होंने हार मानी नहीं, रार ठानी थी। अमूमन अपदस्थ राष्ट्रनेतागण स्विस बैंक में जमा दौलत से विदेश में जीवन बसर करते हैं। बगदाद से पलायन कर सद्दाम भी कास्त्रों के क्यूबा, किम जोंग इल के उत्तरी कोरिया अथवा चेवेज़ के वेनेजुएला में पनाह पा सकते थे। ये तीनों अमरीका के कट्टर शत्रु रहे। जब अमरीकी सैनिकों ने उन्हें पकड़ने के बाद पूछा कि आप कौन हैं, तो इसी दृढ़ता के साथ सद्दाम का सीधा जवाब था, “सार्वभौम ईराक का राष्ट्रपति हूँ”। महज भारत के लिये ही सद्दाम हुसैन का अवसान साधारण हादसा नहीं हैं क्योंकि इस्लामी राष्ट्रनायकों में एक अकेला सेक्युलर व्यक्ति बिदा हो गया था। केवल चरमपन्थी लोग ही इस पीड़ा से अछूते रहेंगे। कारण-दर्द की अनुभूति के लिए मर्म होना चाहिए !
K Vikram Rao
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