Sunday, December 31, 2017

हिन्दुत्व की राजनीति का गलत मुक़ाबला और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना ------ विजय राजबली माथुर

हिन्दुत्व की राजनीति को समझते हुये उसका पर्दाफाश करना चाहिए और तर्क के आधार पर उसे अनैतिक व अधार्मिक सिद्ध करना चाहिए न कि, राहुल गांधी,अखिलेश यादव और ममता बनर्जी की भांति उसमें उलझ कर फंसना चाहिए। यदि हम सही मार्ग अपना सके तब ही आर एस एस और हिन्दुत्व की कार्पोरेटी राजनीति को परास्त कर सकेंगे अन्यथा  गलत राह पकड़ने पर  देश को दक्षिण पंथी तानाशाही का शिकार बना देंगे। 
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  हम डॉ भीम राव आंबेडकर के 27 फरवरी 1942 के वक्तव्य को देखें या डॉ जगदीश्वर चतुर्वेदी के 30 दिसंबर 2017 के फेसबुक स्टेटस को डॉ तेजल का वक्तव्य देखें अथवा प्रोफेसर अपूर्वा नन्द का साक्षात्कार सभी विद्वान आर एस एस के दुष्प्रचार के बढ़ते प्रसार से चिंतित दिखाई देते हैं । परंतु सिर्फ चिंता करने मात्र से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। हमें वैज्ञानिक - वैचारिक आधार पर उसका प्रतिवाद करना और जनता को वास्तविकता समझाना चाहिए केवल आलोचना करके उनको परास्त नहीं कर सकते बल्कि उनका काम सुगम करना होगा।                                                                                   





अपूर्वा नन्द : 



जिसका  अपना  जीवन ही  'संतुलित ' नहीं वह संत कैसे ? : 
बहुत बड़े - बड़े विद्वान, साहित्यकार और पत्रकार भी कुछ असामाजिक प्रवृति के लोगों के लिए साधु , संत , महात्मा, आध्यात्मिक गुरु आदि आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं। यह सब पढ़ कर वेदना होती है। मेरा अपना निजी विचार है कि, किसी भी शब्द का अपना एक विशेष महत्व और अर्थ होता है । मैंने जो निष्कर्ष निकाले हैं उनके अनुसार ------ 
समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है ? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है।
(1 ) धर्म= सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
(2 ) भगवान =  भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी) । 
(3 ) चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा  हैं। 
(4 ) इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
(5 ) अध्यात्म = अध्यन + आत्मा अपनी आत्मा का अध्यन करना आडंबर प्रदर्शन नहीं। 
(6 ) संत =  संतुलित हो जीवन जिसका। 
(7 ) साधु  =  साध चुका हो जो जीवन अपना। 
(8 ) भक्ति = "भक्ति"शब्द ढाई अक्षरों क़े मेल से बना है."भ "अर्थात भजन .कर्म दो प्रकार क़े होते हैं -सकाम और निष्काम,इनमे से निष्काम कर्म का (आधा क) और त्याग हेतु "ति" लेकर "भक्ति"होती है.आज भक्ति है कहाँ ?
(9 ) ज्योतिष =  अक्सर यह चर्चा सुनने को मिलती है की ज्योतिष का सम्बन्ध मात्र धर्म और आध्यात्म से है.यह विज्ञान सम्मत नहीं है और यह मनुष्य को भाग्य के भरोसे जीने को मजबूर कर के अकर्मण्य बना देता है.परन्तु ऐसा कथन पूर्ण सत्य नहीं है.ज्योतिष पूर्णतः एक विज्ञान है.वस्तुतः विज्ञान किसी भी विषय के नियम बद्ध  एवं क्रम बद्ध  अध्ययन को कहा जाता है.ज्योतिष के नियम खगोलीय गणना पर आधारित हैं और वे पूर्णतः वैज्ञानिक हैं  ********

वस्तुतः ज्योतिष में ढोंग पाखण्ड का कोंई स्थान नहीं है.परन्तु फिर भी हम देखते हैं कि कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों की खातिर जनता को दिग्भ्रमित कर के ठगते हैं और उन्हीं के कारण सम्पूर्ण ज्योतिष विज्ञान पर कटाक्ष किया जाता है.यह एक गलत क्रिया की गलत प्रतिक्रिया है.जहाँ तक विज्ञान के अन्य विषयों का सवाल है वे What & How का तो जवाब देते हैं परन्तु उनके पास Why का उत्तर नहीं है.ज्योतिष विज्ञान में इस Why का भी उत्तर मिल जाता है.
ज्योतिष को विकृत व बदनाम किया है ब्राह्मण पुजारियों ने  :
ज्योतिष वह विज्ञान है जो मानव जीवन को सुंदर, सुखद व समृद्ध बनाने 
हेतु चेतावनी व उपाय बताता है। लेकिन आज इस विज्ञान को स्वार्थी व 
धूर्त लोगों ने पेट-पूजा का औज़ार बना कर इसकी उपादेयता को गौड़ कर 
दिया व इसे आलोचना का शिकार बना दिया है।
किन्तु हमारे विद्वान धर्म और ज्योतिष की ही आलोचना करते हैं न कि, गलत प्रयोग करने वालों की जिसका परिणाम यह होता है कि जनता गलत लोगों के चंगुल में फँसती रहती और अपना शोषण- उत्पीड़न करवाती रहती है। 
हिन्दुत्व की राजनीति को समझते हुये उसका पर्दाफाश करना चाहिए और तर्क के आधार पर उसे अनैतिक व अधार्मिक सिद्ध करना चाहिए न कि, राहुल गांधी,अखिलेश यादव और ममता बनर्जी की भांति उसमें उलझ कर फंसना चाहिए। यदि हम सही मार्ग अपना सके तब ही आर एस एस और हिन्दुत्व की कार्पोरेटी राजनीति को परास्त कर सकेंगे अन्यथा  गलत राह पकड़ने पर  देश को दक्षिण पंथी तानाशाही का शिकार बना देंगे। 

 




 ~विजय राजबली माथुर ©

Monday, December 18, 2017

रानी तलाशकुंवरी भी झांसी की रानी से कम नहीं ------ कृष्ण प्रताप सिंह

  
1857 की क्रांति में जो भूमिका रानी लक्ष्मीबाई की रही वैसी ही अमोढ़ा ( बस्ती ) की रानी तलाशकुंवरी की भी रही उन्होने भी आत्म - समर्पण नहीं किया था  : 







~विजय राजबली माथुर ©

Sunday, December 17, 2017

' हम पंछी एक डाल के ( 1957 ) ' : आज के हालात में युवा पीढ़ी के लिए पूरी तरह प्रेरणादाई ------ विजय राजबली माथुर


  
पूजा के दो फूल चढ़ा कर कहता है इंसान कि, मुझको मिल जाये भगवान। .... भगवान बसे भैया खेतों में, भगवान बसे भैया खलिहानों में, वह तो बसे भैया बांधों में, खानों में, भैया वह तो बसे  कल- कारखानों में।..... माथे पे तिलक लगा कर , पूजा के दो फूल चढ़ा कर कहता है इंसान मुझको मिल जाये भगवान। ..... जो सोचा है बावले यदि मिल जाये भगवान तो जगा ले मन में इतना ध्यान, जगा ले मन में इतना ज्ञान कि, जग में है क्या अमीर और क्या गरीब सब एक समान। ............ 
इस फिल्म के माध्यम से संदेश दिया गया है कि, प्रिंसिपल सरीखे आदर्श शिक्षक नंदू जैसे होनहार बालकों को पहचान कर उनको समर्थन व सहयोग देकर अमीरों को भी गरीबों का हमदर्द बनाने में सफल हो सकते है। नौकर धामू की ही तरह आज के युवा भी पेट की खातिर (रोजगार बचाने की मजबूरी के चलते ) अमीरों के इशारे पर गलत कार्य में सहयोगी बन रहे हैं उनको भटकने से बचाने के लिए रेहमान चाचा जैसे सुधारकों की भी आज महती आवश्यकता है। 
आज के कारपोरेटी लूट के युग में युवाओं और बालकों के मध्य इस फिल्म के प्रसार - प्रचार से उस पर अंकुश लगाने का प्रयास किया जा सकता है जिसे योग्य और देशभक्त फिल्म निर्माताओं ने साठ वर्ष पूर्व दूरदृष्टियुक्त कल्पना के सहारे प्रस्तुत किया था। 
 



के ए नारायन राओ की कहानी पर आधारित निर्माता सदाशिव जे राओ की बाल फिल्म  ' हम पंछी एक डाल के ' जो पी एल संतोषी की पट - कथा व निर्देशन में बन कर 1957 में रिलीज़ हुई थी आज 60 वर्ष बाद की परिस्थितियों में  हमारी युवा पीढ़ी का मार्ग - दर्शन करने व उन्हें प्रेरणा देने में पूरी तरह समर्थ है,  नितांत आवश्यकता है आज इसके प्रचार - प्रसार की। पी एल संतोषी ने ही इसके गीत भी लिखे हैं जिनको  कर्णप्रिय संगीत से संवारा है एन दत्ता ने और स्वर दिये हैं शमशाद बेगम , आशा भोंसले, सुमन कल्याणपुर , उषा मंगेशकर और मोहम्मद रफी ने। 
पात्र परिचय : 
रोमी ------------ राजनलाल नाथ  मेहरा 
डेज़ी ईरानी -------------- चटपट 
जगदीप ----------------महमूद 
मोहन चोटी ------------गुरु 
घनश्याम --------------डाक्टर 
पप्पू ------------------पप्पू 
डेविड अब्राहम --------------मिर्ज़ा उस्मान 
मारुति --------------------- धामू 
मुराद ---------------------- राय बहादुर कैलाशनाथ मेहरा 
निरंजन शर्मा ---------------शक्तिनाथ शर्मा 
बी एम व्यास ------------------- रेहमान 
कृष्णकांत ---------------------- प्रिंसिपल 
वी डी पुराणिक ---------------पुराणिक 
अमीरबाई करनाटकी ---------------- नंदू की माँ 
अचला सचदेव ---------------- प्रेरणा के मेहरा ( रोमी की माँ ) 
छोंकर --------------------    ........................ 

https://www.youtube.com/watch?v=-bxXgAd3hxg&t=2s


राय बहादुर कैलाशनाथ का इकलौता पुत्र राजनलाल नाथ मेहरा एक स्कूल में नंदू,महमूद,चटपट आदि के साथ पढ़ता था उसे पहुंचाने  व बुलाने का काम नौकर धामू ड्राईवर के साथ कार से करता था। साथ के बच्चे उससे अलग - थलग रहते थे और उसको चिढ़ाते भी थे। उसे इस प्रकार अलग रहना अच्छा नहीं लगता था। स्कूल के प्रिंसिपल साहब नंदू के व्यवहार से संतुष्ट ही नहीं थे उनको उस पर बहुत भरोसा भी था जिसे उसने पूरा भी करके दिखाया । जब नंदू के नेतृत्व में बच्चों का एक ट्रिप आयोजित हुआ तब उसमें उसे शामिल करने के पक्ष में कुछ बच्चे नहीं थे लेकिन वह उनके साथ शामिल होना चाहता था तब नंदू ने उसे गले लगा कर साथ ले चलने का आश्वासन दे दिया था। अब समस्या कैलाशनाथ उसके पिताश्री की तरफ से थी लेकिन उसकी माँ प्रेरणा ने उसे नौकर के साथ भेजने की योजना बनाई तब चटपट के सहयोग से राजनलाल नौकर को चकमा देकर छोड़ जाने में कामयाब रहा और सभी सहपाठियों के साथ सभी कार्य स्वम्य  भी सम्पन्न करता रहा, उसके पिता ने नौकर को उसे वापिस लौटा लाने को भेजा था। राजन ने रेहमान साहब के सहयोग से उसे वापिस खाली लौट जाने में सफलता प्राप्त कर ली तब कैलाशनाथ ने मिर्ज़ा साहब को राजन को लौटा लाने को भेजा । मिर्ज़ा ने राजन को नंदू के खिलाफ तैयार करना चाहा थोड़ा भटकते हुये फिर संभल कर  उसने नाटक में मिर्ज़ा साहब को ही भालू बनवा दिया और वह भी खाली हाथ लौटने पर मजबूर हुये। 

अंततः कैलाशनाथ खुद ही राजन को लौटा लाने को पहुंचे लेकिन तब तक बच्चे घर पहुँच गए और वह भी अकेले ही लौटे। तब उन्होने राजन को स्कूल से हटाने का फैसला और उसे घर पर पढ़वाने का प्रबंध किया। पहले राजन के साथी बच्चे ही ट्यूटर बन कर पहुँच गए उनके पहचाने जाने के बाद सर्कस के रिंग मास्टर शक्तिनाथ शर्मा को रखा गया जिनको चटपट के सहयोग से चकमा देकर राजन स्कूल के नाटक की तैयारी और पढ़ाई दोनों करता रहा। नाटक के रोज़ कैलाशनाथ नाटक रुकवाने पहुंचे तब रिहर्सल चल रही थी उनके पहुँचने की खबर से राजन घबड़ा गया और उससे सीढ़ी गिर गई जिससे नंदू घायल हो गया। इस दुर्घटना के बाद नंदू ने राजन को ही निर्देशन सौंप दिया जिसने अपने पिता की उपस्थिती और अध्यक्षता में सम्पन्न नाटक का कुशल प्रस्तुतीकरण व संचालन किया। 

इतना ही नहीं राजन ने नंदू की बीमारी में सहयोग के ख्याल से उसके बदले हाकर की भूमिका भी अदा की इस दृश्य को राजन को उसकी माँ के दबाव में ढूँढने के क्रम में देख कर कैलाशनाथ को वेदना हुई और उसका पीछा करते हुये नंदू के घर पहुँच गए और वहाँ नंदू  की माँ को राजन को समझाते हुये देख कर उनकी आँखें खुल गईं और वह सब बच्चों के लिए पुस्तकालय और नाट्यशाला हेतु अपना एक भवन देने को प्रस्तुत हो गए। 

इस फिल्म के माध्यम से संदेश दिया गया है कि, प्रिंसिपल सरीखे आदर्श शिक्षक नंदू जैसे होनहार बालकों को पहचान कर उनको समर्थन व सहयोग देकर अमीरों को भी गरीबों का हमदर्द बनाने में सफल हो सकते है। नौकर धामू की ही तरह आज के युवा भी पेट की खातिर (रोजगार बचाने की मजबूरी के चलते ) अमीरों के इशारे पर गलत कार्य में सहयोगी बन रहे हैं उनको भटकने से बचाने के लिए रेहमान चाचा जैसे सुधारकों की भी आज महती आवश्यकता है। 

आज के कारपोरेटी लूट के युग में युवाओं और बालकों के मध्य इस फिल्म के प्रसार - प्रचार से उस पर अंकुश लगाने का प्रयास किया जा सकता है जिसे योग्य और देशभक्त फिल्म निर्माताओं ने साठ वर्ष पूर्व दूरदृष्टियुक्त कल्पना के सहारे प्रस्तुत किया था। 
~विजय राजबली माथुर ©

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Saturday, December 16, 2017

बांग्लादेश की आज़ादी का दिन मुबारक हो ------ विजय राजबली माथुर

  


16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश एक अलग मुल्क के रूप में आज़ाद हुआ था एक लंबे संघर्ष और कुर्बानी के बाद जिसमें भारत का भी सहयोग था॰
 रूडकी रोड क़े क्वार्टर में रहते हुए P .O .W .का जो नज़ारा देखा था उसके उल्लेख क़े बगैर बात अधूरी ही रहेगी.मेरठ कालेज की गतिविधियों में भाग लेते हुए मैंने बांग्ला -देश को मान्यता देने का विरोध किया था.नवभारत टाईम्स क़े समाचार संपादक हरी दत्त शर्मा अपने 'विचार-प्रवाह'में निरन्तर लिख रहे थे-"बांग्ला-देश मान्यता और सहायता का अधिकारी".पाकिस्तानी अखबार लिख रहे थे कि,सारा बांग्ला  देश आन्दोलन भारतीय फ़ौज द्वारा संचालित है.बांग्ला  देश क़े घोषित राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान को भारतीय एजेंट ,मुक्ति वाहिनी क़े नायक ताज्जुद्दीन अहमद को भारतीय फ़ौज का कैप्टन तेजा राम बताया जा रहा था.लेफ्टिनेंट जेनरल टिक्का खां का आतंक पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ता जा रहा था और उतनी ही तेजी से मुक्ति वाहिनी को सफलता भी मिलती जा रही थी.जनता बहुमत में आने पर भी याहिया खां द्वारा मुजीब को पाकिस्तान का प्रधान-मंत्री न बनाये जाने से असंतुष्ट थी ही और टिक्का खां की गतिविधियाँ आग में घी का काम कर रही थीं.रोजाना असंख्य शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से भाग कर भारत आते जा रहे थे. उनका खर्च उठाने क़े लिये अद्ध्यादेश क़े जरिये एक रु.का अतिरिक्त रेवेन्यु स्टेम्प(रिफ्यूजी रिलीफ) अपनी जनता पर इंदिरा गांधी ने थोप दिया था.असह्य परिस्थितियें होने पर इंदिरा जी ने बांग्ला - देश मुक्ति वाहिनी को खुला समर्थन दे दिया और उनके साथ भारतीय फौजें भी पाकिस्तानी सेना से  टकरा गईं.टिक्का खां को पजाब क़े मोर्चे पर ट्रांसफर करके लेफ्टिनेंट जेनरल ए.ए.क़े.नियाजी को पूर्वी पाकिस्तान का मार्शल ला एडमिनिस्ट्रेटर बना कर भेजा गया .राव फरमान अली हावी था और नियाजी स्वतन्त्र नहीं थे.लेकिन जब भारतीय वायु सेना ने ढाका में छाताधारी सैनिकों को उतार दिया तो फरमान अली की इच्छा क़े विपरीत नियाजी ने हमारे लेफ्टिनेंट जेनरल सरदार जगजीत सिंह अरोरा क़े समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया.९०००० पाक सैनिकों को गिरफ्तार किया गया था. इनमें से बहुतों को मेरठ में रखा गया था. इनके कैम्प हमारे क्वार्टर क़े सामने भी बनाये गये थे.
मेरठ से रूडकी जाने वाली सड़क क़े दायीं ओर क़े मिलेटरी क्वार्टर्स थे.गेट क़े पास वाले में हम लोग थे.सड़क उस पार सेना का खाली मैदान तथा शायद सिग्नल कोर की कुछ व्यवस्था थी.उसी खाली मैदान में सड़क की ओर लगभग ५ फुट का गैप देकर समानांतर विद्युत् तार की फेंसिंग करके उसमें इलेक्टिक करेंट छोड़ा गया था.उसके बाद अन्दर बल्ली,लकड़ी आदि से टेम्पोरेरी क्वार्टर्स बनाये गये थे.यह कैम्प परिवार वाले सैनिकों क़े लिये था जिसमें उन्हें सम्पूर्ण सुविधाएँ मुहैया  कराई गई थीं.सैनिकों/सैन्य-अधिकारियों की पत्नियाँ मोटे-मोटे हार,कड़े आदि गहने पहने हुये थीं.यह भारतीय आदर्श था कि वे गहने पहने ही सुरक्षित वापिस गईं.यही यदि पाकिस्तानी कैम्प होता तो भारतीय सैनिकों को अपनी पत्नियों एवं उनके गहने सुरक्षित प्राप्त होने की सम्भावना नहीं होती.पंजाब तथा गोवा क़े पूर्व राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल  जे.ऍफ़.जैकब ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक में लिखा है (हिंदुस्तान ७/ १ /२०११ ) ढाका में तैनात एक संतरी से जब उन्होंने उसके परिवार क़े बारे में पूंछा "तो वह यह कहते हुए फूट-फूट कर रो पड़ा कि एक हिन्दुस्तानी अफसर होते हुए भी आप यह पूछ रहे हैं जबकि हमारे अपने किसी अधिकारी ने यह जानने की कोशिश नहीं की".तो यह फर्क है भारत और पाकिस्तान क़े दृष्टिकोण का.इंदिराजी ने शिमला -समझौते में इन नब्बे हजार सैनिकों की वापिसी क़े बदले में तथा प.पाक क़े जीते हुए इलाकों क़े बदले में कश्मीर क़े चौथाई भाग को वापिस न मांग कर उदारता का परिचय दिया ? वस्तुतः न तो निक्सन का अमेरिका और न ही ब्रेझनेव का यू.एस.एस.आर.यह चाहता था कि कश्मीर समस्या का समाधान हो और जैसा कि बाद में पद से हट कर पी. वी.नरसिंघा राव सा :ने कहा (दी इनसाईडर) - हम स्वतंत्रता क़े भ्रम जाल में जी रहे हैं.भारत-सोवियत मैत्री संधी से बंधी इंदिराजी को राष्ट्र हित त्यागना पड़ा.अटल जी द्वारा दुर्गा का ख़िताब प्राप्त इंदिराजी बेबस थीं.

~विजय राजबली माथुर ©
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Thursday, December 14, 2017

विज्ञान किसी भी विषय के नियम बद्ध एवं क्रम बद्ध अध्ययन को कहा जाता है ------ विजय राजबली माथुर


अक्सर यह चर्चा सुनने को मिलती है की ज्योतिष का सम्बन्ध मात्र धर्म और आध्यात्म से है.यह विज्ञान सम्मत नहीं है और यह मनुष्य को भाग्य के भरोसे जीने को मजबूर कर के अकर्मण्य बना देता है.परन्तु ऐसा कथन पूर्ण सत्य नहीं है.ज्योतिष पूर्णतः एक विज्ञान है.वस्तुतः विज्ञान किसी भी विषय के नियम बद्ध  एवं क्रम बद्ध  अध्ययन को कहा जाता है.ज्योतिष के नियम खगोलीय गणना पर आधारित हैं और वे पूर्णतः वैज्ञानिक हैं वस्तुतः ज्योतिष में ढोंग पाखण्ड का कोंई स्थान नहीं है.परन्तु फिर भी हम देखते हैं कि कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों की खातिर जनता को दिग्भ्रमित कर के ठगते हैं और उन्हीं के कारण सम्पूर्ण ज्योतिष विज्ञान पर कटाक्ष किया जाता है.यह एक गलत क्रिया की गलत प्रतिक्रिया है.जहाँ तक विज्ञान के अन्य विषयों का सवाल है वे What & How का तो जवाब देते हैं परन्तु उनके पास Why का उत्तर नहीं है.ज्योतिष विज्ञान में इस Why का भी उत्तर मिल जाता है.
ज्योतिष को विकृत व बदनाम किया है ब्राह्मण पुजारियों ने  :

ज्योतिष वह विज्ञान है जो मानव जीवन को सुंदर, सुखद व समृद्ध बनाने 

हेतु चेतावनी व उपाय बताता है। लेकिन आज इस विज्ञान को स्वार्थी व 

धूर्त लोगों ने पेट-पूजा का औज़ार बना कर इसकी उपादेयता को गौड़ कर 

दिया व इसे आलोचना का शिकार बना दिया है।

http://krantiswar.blogspot.in/2016/01/blog-post_31.html


इसी प्रकार सरस्वती को ब्रह्मा की पुत्री बताना और पौराणिक गलत आख्यानों के आधार पर पूजा करवाना एक ऐसा घिनौना खेल है जिसने भारत में चारित्रिक पतन  ला दिया है। 'वेदों' में  'सरस्वती', 'गोमती' आदि  शब्दों के व्यापक अर्थ हैं न कि संकुचित जैसा कि इन ब्राह्मणों ने पुरानों में लिख डाला है और पुरानों को वेद आधारित बताने का कुचक्र रच रखा है। वस्तुतः पुराण वेदों में निहित उद्देश्यों से जनता को भटकाने हेतु ब्राह्मणों ने बड़ी चालाकी से गढ़े हैं। 'नास्तिक' संप्रदाय अपने गलत कदमों से इन ढ़ोंगी ब्राह्मणों की चालों को और मजबूत करता रहता है। जनता के सामने बचाव के बजाए भुगतने का ही विकल्प इस प्रकार बचा रह जाता है। इसी वजह से अब भी कोई एहतियात नहीं बरती जाएगी और आपको आगे भी दुखद घटनाओं के समाचार सुनने-पढ़ने को मिलते रहेंगे। 







Thursday, September 23, 2010
ज्योतिष और हम:  :
अक्सर यह चर्चा सुनने को मिलती है की ज्योतिष का सम्बन्ध मात्र धर्म और आध्यात्म से है.यह विज्ञान सम्मत नहीं है और यह मनुष्य को भाग्य के भरोसे जीने को मजबूर कर के अकर्मण्य बना देता है.परन्तु ऐसा कथन पूर्ण सत्य नहीं है.ज्योतिष पूर्णतः एक विज्ञान है.वस्तुतः विज्ञान किसी भी विषय के नियम बद्ध  एवं क्रम बद्ध  अध्ययन को कहा जाता है.ज्योतिष के नियम खगोलीय गणना पर आधारित हैं और वे पूर्णतः वैज्ञानिक हैं वस्तुतः ज्योतिष में ढोंग पाखण्ड का कोंई स्थान नहीं है.परन्तु फिर भी हम देखते हैं कि कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों की खातिर जनता को दिग्भ्रमित कर के ठगते हैं और उन्हीं के कारण सम्पूर्ण ज्योतिष विज्ञान पर कटाक्ष किया जाता है.यह एक गलत क्रिया की गलत प्रतिक्रिया है.जहाँ तक विज्ञान के अन्य विषयों का सवाल है वे What & How का तो जवाब देते हैं परन्तु उनके पास Why का उत्तर नहीं है.ज्योतिष विज्ञान में इस Why का भी उत्तर मिल जाता है.
जन्म लेने वाला कोई भी बच्चा अपने साथ भाग्य (प्रारब्ध) लेकर आता है.यह प्रारब्ध क्या है इसे इस प्रकार समझें कि हम जितने भी कार्य करते हैं,वे तीन प्रकार के होते हैं-सद्कर्म,दुष्कर्म और अकर्म.
यह तो सभी जानते हैं की सद्कर्म का परिणाम शुभ तथा दुष्कर्म का अशुभ होता है,परन्तु जो कर्म किया जाना चाहिए और नहीं किया गया अथार्त फ़र्ज़ (duity) पूरा नहीं हुआ वह अकर्म है और इसका भी परमात्मा से दण्ड मिलता है.अतएव सद्कर्म,दुष्कर्म,और अकर्म के जो फल इस जन्म में प्राप्त नहीं हो पाते वह आगामी जन्म के लिए संचित हो जाते हैं.अब नए जन्मे बच्चे के ये संचित कर्म जो तीव्रगामी होते हैं वे प्रारब्ध कहलाते हैं और जो मंदगामी होते हैं वे अनारब्ध कहलाते हैं.मनुष्य अपनी बुद्धि व् विवेक के बल पर इस जन्म में सद्कर्म ही अपना कर ज्ञान के द्वारा अनारब्ध कर्मों के दुष्फल को नष्ट करने में सफल हो सकता है और मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है.मोक्ष वह अवस्था है जब आत्मा को कारण और सूक्ष्म शरीर से भी मुक्ति मिल जाती है.और वह कुछ काल ब्रह्मांड में ही स्थित रह जाता है.ऐसी मोक्ष प्राप्त आत्माओं को संकटकाल में परमात्मा पुनः शरीर देकर जन-कल्याण हेतु पृथ्वी पर भेज देता है.भगवान् महावीर,गौतम बुद्ध,महात्मा गांधी,स्वामी दयानंद ,स्वामी विवेकानंद,आदि तथा और भी बहुत पहले मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम एवं योगी राज श्री कृष्ण तब अवतरित हुए जब पृथ्वी पर अत्याचार अपने चरम पर पहुँच गया था.
जब किसी प्राणी की मृत्यु हो जाती है तो वायु,जल,आकाश,अग्नि और पृथ्वी इन पंचतत्वों से निर्मित यह शरीर तो नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा के साथ-साथ कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर मोक्ष प्राप्ति तक चले चलते हैं और अवशिष्ट संचित कर्मफल के आधार पर आत्मा भौतिक शरीर को प्राप्त कर लेती है जो उसे अपने किये कर्मों का फल भोगने हेतु मिला है.यदि जन्म मनुष्य योनी में है तो वह अपनी बुद्धि व विवेक के प्रयोग द्वारा मोक्ष प्राप्ति का प्रयास कर सकता है.
बारह राशियों में विचरण करने के कारण आत्मा के साथ चल रहे सूक्ष्म व कारण शरीर पर ग्रहों व नक्षत्रों का प्रभाव स्पष्ट अंकित हो जाता है.जन्मकालीन समय तथा स्थान के आधार पर ज्योतिषीय गणना द्वारा बच्चे की जन्म-पत्री का निर्माण किया जाता है और यह बताया जा सकता है कि कब कब क्या क्या अच्छा  या बुरा प्रभाव पड़ेगा.अच्छे प्रभाव को प्रयास करके प्राप्त क्या जा सकता है और लापरवाही द्वारा छोड़ कर वंचित भी हुआ जा सकता है.इसी प्रकार बुरे प्रभाव को ज्योतिष विज्ञान सम्मत उपायों द्वारा नष्ट अथवा क्षीण किया जा सकता है और उस के प्रकोप से बचा जा सकता है.जन्मकालीन नक्षत्रों की गणना के आधार पर भविष्य फल कथन करने वाला विज्ञान ही ज्योतिष विज्ञान है.
ज्योतिष कर्मवान बनाता है
ज्योतिष विज्ञान से यह ज्ञात करके कि समय अनुकूल है तो सम्बंधित जातक को अपने पुरुषार्थ व प्रयास से लाभ उठाना चाहिए.यदि कर्म न किया जाये और प्रारब्ध के भरोसे हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहे तो यह अवसर निष्फल चला जाता है.इसे एक उदहारण से समझें कि माना आपके पास कर्णाटक एक्सप्रेस से बंगलौर जाने का reservation है और आप नियत तिथि व निर्धारित समय पर स्टेशन पहुँच कर उचित plateform पर भी पहुँच गए पर गाड़ी आने पर सम्बंधित कोच में चढ़े नहीं और plateform पर ही खड़े रह गए.इसमें आपके भाग्य का दोष नहीं है.यह सरासर आपकी अकर्मण्यता है जिसके कारण आप गंतव्य तक नहीं पहुँच सके.इसी प्रकार ज्योतिष द्वारा बताये गए अनुकूल समय पर तदनुरूप कार्य न करने वाले उसके लाभ से वंचित रह जाते हैं.लेकिन यदि किसी की महादशा/अन्तर्दशा अथवा गोचर ग्रहों के प्रभाव से खराब समय चल रहा है तो ज्योतिष द्वारा उन ग्रहों को ज्ञात कर के उनकी शान्ति की जा सकती है और हानि से बचा भी जा सकता है,अन्यथा कम किया जा सकता है.
ज्योतिष अकर्मण्य नहीं बनाता वरन यह कर्म करना सिखाता है.परमात्मा द्वारा जीवात्मा का नाम क्रतु रखा गया है.क्रतु का अर्थ है कर्म करने वाला.जीवात्मा को अपने बुद्धि -विवेक से कर्मशील रहते हुए इस संसार में रहना होता है.जो लोग अपनी अयोग्यता और अकर्मण्यता को छिपाने हेतु सब दोष भगवान् और परमात्मा पर मढ़ते हैं वे अपने आगामी जन्मों का प्रारब्ध ही प्रतिकूल बनाते हैं.
ज्योतिष अंधविश्वास नहीं
कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने ज्योतिष विज्ञान का दुरूपयोग करते हुए इसे जनता को उलटे उस्तरे से मूढने का साधन बना डाला है.वे लोग भोले भाले एवं धर्मभीरु लोगों को गुमराह करके उनका मनोवैज्ञानिक ढंग से दोहन करते हैं और उन्हें भटका देते हैं.इस प्रकार से पीड़ित व्यक्ति ज्योतिष को अंधविश्वास मानने लगता है और इससे घृणा करनी शुरू कर देता है.ज्योतिषीय ज्ञान के आधार पर होने वाले लाभों से वंचित रहकर ऐसा प्राणी घोर भाग्यवादी बन जाता है और कर्महीन रह कर भगवान को कोसता रहता है.कभी कभी कुछ लोग ऐसे गलत लोगों के चक्रव्यूह में फंस जाते हैं,जिन के लिए ज्योतिष गंभीर विषय न हो कर लोगों को मूढने का साधन मात्र होता है.इसी प्रकार कुछ कर्म कांडी भी कभी -कभी ज्योतिष में दखल देते हुए लोगों को ठग लेते हैं. साधारण जनता एक ज्योतिषी और ढोंगी कर्मकांडी में विभेद नहीं करती और दोनों को एक ही पलड़े पर रख देती है.इससे ज्योतिष विद्या के प्रति अनास्था और अश्रद्धा उत्पन्न होती है और गलतफहमी में लोग ज्योतिष को अंधविश्वास फैलाने का हथियार मान बैठते हैं.जबकि सच्चाई इसके विपरीत है.मानव जीवन को सुन्दर,सुखद और समृद्ध बनाना ही वस्तुतः ज्योतिष का अभीष्ट है.
क्या ग्रहों की शांति हो सकती है?

यह संसार एक परीक्षालय(Examination Hall) है और यहाँ सतत परीक्षा चलती रहती है.परमात्मा ही पर्यवेक्षक(Invegilator) और परीक्षक (Examiner) है. जीवात्मा कार्य क्षेत्र में स्वतंत्र है और जैसा कर्म करेगा परमात्मा उसे उसी प्रकार का फल देगा.आप अवश्य ही जानना चाहेंगे कि तब ग्रहों की शांति से क्या तात्पर्य और लाभ हैं?मनुष्य पूर्व जन्म के संचित प्रारब्ध के आधार पर विशेष ग्रह-नक्षत्रों की परिस्थिति में जन्मा है और अपने बुद्धि -विवेक से ग्रहों के अनिष्ट से बच सकता है.यदि वह सम्यक उपाय करे अन्यथा कष्ट भोगना ही होगा.जिस प्रकार जिस नंबर पर आप फोन मिलायेंगे बात भी उसी के धारक से ही होगी,अन्य से नहीं.इसी प्रकार जिस ग्रह की शांति हेतु आप मंत्रोच्चारण करेंगे वह प्रार्थना भी उसी ग्रह तक हवन में दी गयी आपकी आहुति के माध्यम से अवश्य ही पहुंचेगी.अग्नि का गुण है उसमे डाले गए पदार्थों को परमाणुओं (Atoms) में विभक्त करना और वायु उन परमाणुओं को मन्त्र के आधार पर ग्रहों की शांति द्वारा उनके प्रकोप से बच सकता है.प्रचलन में लोग अन्य उपाय भी बताते हैं परन्तु उन से ग्रहों की शांति होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं मिलता,हाँ मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है
~विजय राजबली माथुर ©

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Saturday, December 9, 2017

गुजरात चुनाव में मोदी को हराने की भगवा अपील क्यों ? ------ विजय राजबली माथुर

  











जिन बातों का अब भगवादधारियों और संघ की ओर से खुलासा हो रहा है उनके संबंध में हमने पहले ही लिख दिया था। 
~विजय राजबली माथुर ©

Monday, December 4, 2017

परंपरागत गुजराती मतदाता भाजपा के विरोध की ओर क्यों ? ------ विजय राजबली माथुर






















 जिस प्रकार 1980 में इन्दिरा कांग्रेस और फिर 1984 में राजीव गांधी की अध्यक्षता वाली कांग्रेस को आर एस एस का पूर्ण समर्थन मिला था भाजपा के स्थान पर कुछ उसी प्रकार से गुजरात चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही कांग्रेस को पुनः आर एस एस का समर्थन मिलने जा रहा है। जिस प्रकार पी एम मोदी ने भाजपा को नियंत्रण में लेने के बाद आर एस एस को नियंत्रित करने का अभियान चला रखा है उससे आर एस एस नेतृत्व उनको कमजोर करने का मार्ग ढूंढ रहा था। यू एस ए के हितार्थ  लागू की गई नोटबंदी फिर गलत तरीके से लागू की गई जी एस टी पर जिस प्रकार आर एस एस व भाजपा नेता मोदी सरकार पर हमलावर हुये हैं और आर एस एस के आनुषंगिक संगठन  भामस द्वारा मोदी सरकार के विरुद्ध दिल्ली में प्रदर्शन किया गया है उससे ऐसे स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। 

यदि गुजरात में मोदी - शाह की भाजपा परास्त होती है तो वह राहुल गांधी के चमत्कार या कांग्रेस के  बढ़ते प्रभाव का दिग्दर्शक न होकर आर एस एस की वह रणनीति होगी जिसके द्वारा वह सत्ता और विपक्ष दोनों को अपने नियंत्रण में लाकर भविष्य के लिए अपना मार्ग निष्कंटक बनाना चाहता है। यदि यह प्रयोग सफल रहा तो मेनका व वरुण गांधी को कांग्रेस में शामिल करवाकर मेनका गांधी को कांग्रेसी पी एम के रूप में  सुनिश्चित करना आर एस एस का लक्ष्य होगा। इस प्रकार देश को आगामी लोकसभा  चुनावों में मोदी से तो मुक्ति मिल जाएगी लेकिन आर एस एस का शिंकजा और मजबूत हो जाएगा।  
इस तथ्य  को हाल ही में सम्पन्न उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों  के रुझान से भी समझने में मदद मिलेगी। विधानसभा चुनावों के बाद यहाँ  पी एम और भाजपा अध्यक्ष की चाहत केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा जी को सी एम बनाने की थी यदि ऐसा हो जाता तो यह  जोड़ी आर एस एस  को झुकाने में कामयाब हो जाती । अतः आर एस एस ने पी एम की नापसंद के के योगी जी को सी एम बनवा दिया जिनको वर्तमान पी एम के विकल्प के रूप में मजबूती देने हेतु यहाँ भाजपा को आर एस एस का समर्थन प्राप्त हुआ है। 
लेकिन गुजरात में भाजपा का परंपरागत मतदाता भाजपा के विरोध की ओर झुका हुआ है और उसे आर एस एस का समर्थन प्राप्त है। हालांकि इसी वजह से भाजपा की गुप्त नीति के तहत अराजकता उत्पन्न कर भाजपा विरोधियों को मतदान से विरक्त करने की योजना बनी होगी। किन्तु सफलता उनको आर एस एस का समर्थन न मिलने से नहीं मिल पाएगी और तभी भाजपा की गुजरात में शिकस्त से आर एस एस पर आसन्न संकट से मुक्ति मिल सकेगी। 


 ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, November 25, 2017

वर्तमान शासकों को जनमत के आगे झुकाने हेतु नेहरू की प्रासंगिकता ------ विजय राजबली माथुर









26 नवंबर 1949 को संविधानसभा ने वर्तमान संविधान को स्वीकृत किया था जिसे 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया है ।  वर्तमान सत्तारूढ़ दल जिसे ध्वस्त करने की दिशा में बढ़ रहा है उस संविधान को भले ही डॉ बी आर अंबेडकर की अध्यक्षता वाली समिति ने बनाया और डॉ राजेन्द्र प्रसाद के सभापतित्व वाली संविधानसभा ने स्वीकृत किया किन्तु इसे स्वीकृत कराने और फिर लागू करने में टटकाली प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का भारी अतुलनीय योगदान रहा है। अतः संविधान की रक्षा हेतु नेहरू युग की नीतियों को पुनः बहाल करना जनहित में आवश्यक है । 


नेहरू जी द्वारा तानाशाही के प्रति चेतावनी  : 
धर्मयुग 13 नवंबर 1977 के  अंक में शिव प्रसाद सिंह जी ने अपने लेख में ज़िक्र किया है कि ," नेहरू जी का  सांस्कृतिक व्यक्तित्व एक स्वप्न दृष्टा का व्यक्तित्व था " । उन्होने यह भी उल्लेख किया है कि नेहरू जी जनता की उनके प्रति प्रतिक्रिया को काफी महत्व देते थे। इसी क्रम में नेहरू जी ने 'चाणक्य ' नामक छद्यम रूप से एक लेख लिखा था -"एक हल्का सा झटका और बस जवाहर लाल मंथर गति से चलने वाले जनतंत्र के टंट-घंट को एक तरफ करके तानाशाह में बदल सकते हैं। वे तब भी शायद प्रजातन्त्र और समाजवाद की शब्दावली और नारे दोहराते रहेंगे, लेकिन हम जानते हैं कि किस तरह तानाशाहों ने इस तरह के नारों से अपने को मजबूत किया है। और कैसे समय आने पर इन्हें बकवास कह कर एक तरफ झटक दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वे शायद सफल और योग्य शासक बने रहते , परंतु इस  क्रांतिकारी युग में , सीजरशाही हमेशा ताक में बैठी रहती है और क्या यह संभव नहीं है कि नेहरू सीजर की भूमिका में उतरनेकी कल्पना कर रहे हों। "

शिव प्रसाद जी ने लिखा है कि इस लेख में व्यक्त विचारों के कारण जनता उस 'चाणक्य' को मारने/ फांसी देने को इच्छुक हो गई तब नेहरू जी को खुलासा करना पड़ा कि वह खुद इसके लेखक है इस खुलासे ने विस्मय उत्पन्न कर दिया था। 


नेहरू जी की उदारता : 

पूर्व पी एम बाजपेयी साहब ने भी नेहरू जी की उदारता का ज़िक्र करते हुये बताया था कि जब वह पहली बार सांसद बने थे तो लोकसभा की एक बैठक में जम कर नेहरू जी के परखचे उघाड़े थे लेकिन नेहरू जी चुपचाप सुनते रहे थे। उसी शाम राष्ट्रपति भवन में एक भोज था जिसमें वह नेहरू जी का सामना करने से बच रहे थे, किन्तु नेहरू जी खुद चल कर उनके पास आए और उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा 'शाबाश नौजवान ' इसी तरह डटे रहो तुम एक दिन ज़रूर इस देश के प्रधानमंत्री बनोगे।  


पीटर रोनाल्ड डिसूजा साहब का  लेख ज़िक्र करता है कि, बाद में नेहरू जी की इस सहिष्णुता का परित्याग कर दिया गया। भीष्म नारायण सिंह जी ने भी उदारीकरण के इस दौर में नेहरू जी की प्रासंगिकता की और ज़रूरत को रेखांकित किया है। 


नेहरू जी और उनकी नीतियों पर आक्रामक प्रहार  : 

लेकिन हम व्यवहार में देखते हैं कि 1977 के मुक़ाबले आज 40  वर्षों बाद नेहरू जी और उनकी नीतियों पर आक्रामक प्रहार किए जा रहे हैं। उस समय की  मोरारजी देसाई की जपा सरकार के मुक़ाबले आज की भाजपाई मोदी सरकार तो नेहरू जी का नामोनिशान तक मिटा देने पर आमादा है। नेहरू जी ने यू एस ए अथवा रूस के खेमे में जाने के बजाए यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो तथा मिश्र के कर्नल अब्दुल गामाल नासर के साथ मिल कर एक 'गुट निरपेक्ष' खेमे को खड़ा करके दोनों के मध्य संतुलन बनाने का कार्य किया था। आज की मोदी सरकार ने यू एस ए के समक्ष ही नहीं देश के कारपोरेट घरानों के समक्ष भी आत्म समर्पण कर दिया है। नेहरू जी ने देश में मिश्रित अर्थ व्यवस्था लागू की थी और योजना आयोग के माध्यम से  विकास का खाका खींचा था जिसने देश को आत्म-निर्भर बना दिया था। अब योजना आयोग समाप्त किया जा चुका है और सार्वजानिक क्षेत्र को समाप्त किए जाने की जो प्रक्रिया बाजपेयी नीत  भाजपा सरकार ने शुरू की थी उसे पूर्ण सम्पन्न करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए बने क़ानूनों को समाप्त या निष्प्रभावी किया जा रहा है।'चाणक्य ' नाम से नेहरू जी ने जो लिखा था वह मोदी साहब पर लागू होने के आसार साफ-साफ नज़र आ रहे हैं।  जनता त्राही-त्राही कर रही है जो नेहरू जी जनता की प्रतिक्रिया को महत्व देते थे उनके आज के उत्तराधिकारी जनता को महत्वहीन मानते हुये कुचलने पर आमादा हैं। ऐसे में वर्तमान शासकों को जनमत के आगे झुकने के लिए मजबूर करने के लिए नेहरू जी के कार्यों व उनकी नीतियों को बहाल करने की मांग उठाना आज वक्त की जोरदार ज़रूरत है। 

~विजय राजबली माथुर ©

Sunday, November 19, 2017

इंदिराजी की जल्दबाजी और अदूरदर्शी चूकों पर भी गौर कर लिया जाये ------ विजय राजबली माथुर

****** इंदिराजी के जन्मदिन पर   आज  उनको याद करने,नमन करने और उनकी प्रशंसा के गीत गाने के साथ-साथ ज़रा उनकी जल्दबाजी और अदूरदर्शी चूकों पर भी गौर कर लिया जाये और उनसे बचने का मार्ग ढूँढना शुरू किया जाये तो देशहित में होगा व इंदिराजी को भी सच्ची श्रद्धांजली होगी।****** 




 
इतिहासकार सत्य का अन्वेषक होता है उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल में प्रविष्ट होकर ' तथ्य के मोतियों ' को सामने लाती हैं । इन्दिरा जी का कार्यकाल इतना भी भूतकाल नहीं है जो उसको ज्ञात करने के लिए किसी विशेष अनुसंधान की आवश्यकता पड़े। खेद की बात है कि, प्रोफेसर मृदुला मुखर्जी साहिबा ने इन्दिरा जी के कार्यकाल के प्रथम भाग के आधार पर उनका चित्रण किया है जबकि, उनके कार्यकाल के दिवतीय भाग के अलग आचरण की अवहेलना नज़र आती है। दो वर्ष पूर्व प्रकाशित अपने एक लेख का ज़िक्र इस अवसर पर पुनः  करना अपना दायित्व समझता हूँ ------
इन्दिरा गांधी का वर्तमान केंद्र सरकार के निर्माण में योगदान  : 
VIJAI RAJBALI MATHUR·THURSDAY, NOVEMBER 19, 2015

1966 में लाल बहादुर शास्त्री जी के असामयिक निधन के बाद सिंडीकेट (के कामराज नाडार, अतुल घोष, सदाशिव कान्होजी पाटिल, एस निज लिंगप्पा, मोरारजी देसाई ) की ओर से मोरारजी देसाई कांग्रेस संसदीय दल के नेता पद के प्रत्याशी थे जबकि कार्यवाहक प्रधानमंत्री नंदा जी  व अन्य नेता गण की ओर से इंदिरा जी । अंततः इन्दिरा जी का चयन गूंगी गुड़िया समझ कर हुआ था और वह प्रधानमंत्री बन गईं थीं। 1967 के आम चुनावों में उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस का पराभव हो गया व संविद सरकारों का गठन हुआ। पश्चिम बंगाल में अजोय मुखर्जी (बांग्ला कांग्रेस ),बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा (जन क्रांति दल ),उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह (जन कांग्रेस - चन्द्र् भानु  गुप्त के विरुद्ध बगावत करके ) , मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह (द्वारिका प्रसाद मिश्र के विरुद्ध बगावत करके ) मुख्यमंत्री बने ये सभी कांग्रेस छोड़ कर हटे थे। केंद्र में फिर से मोरारजी देसाई ने इंदिरा जी को टक्कर दी थी लेकिन उन्होने उनसे समझौता करके उप-प्रधानमंत्री बना दिया था। 1969 में 111 सांसदों के जरिये सिंडीकेट ने कांग्रेस (ओ ) बना कर इन्दिरा जी को झकझोर दिया लेकिन उन्होने वामपंथ के सहारे से सरकार बचा ली। 1971 में बांगला देश निर्माण में सहायता करने से उनको जो लोकप्रियता हासिल हुई थी उसको भुनाने से 1972 में उनको स्पष्ट बहुमत मिल गया किन्तु 1975 में एमर्जेंसी के दौरान हुये अत्याचारों ने 1977 में उनको करारी शिकस्त दिलवाई। मोरारजी प्रधानमंत्री बन गए और उनके विदेशमंत्री ए बी बाजपेयी व सूचना प्रसारण मंत्री एल के आडवाणी। इन दोनों ने संघियों को प्रशासन में ठूंस डाला। इसके अतिरिक्त गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह के पीछे ए बी बाजपेयी,पी एम मोरारजी के पीछे सुब्रमनियम स्वामी तथा जपा अध्यक्ष चंद्रशेखर के पीछे नानाजी देशमुख छाया की तरह लगे रहे और प्रशासन को संघी छाप देते चले। संघ की दुरभि संधि के चलते मोरारजी व चरण सिंह में टकराव हुआ और इंदिराजी के समर्थन से चरण सिंह पी एम बन गए। 

एमर्जेंसी के दौरान हुये मधुकर दत्तात्रेय 'देवरस'- इन्दिरा (गुप्त ) समझौते  को आगे बढ़ाते हुये चरण सिंह सरकार गिरा दी गई और 1980 में संघ के पूर्ण समर्थन से इन्दिरा जी की सत्ता में वापसी हुई। अब संघ के पास (पहले की तरह केवल जनसंघ ही नहीं था ) भाजपा के अलावा जपा और इन्दिरा कांग्रेस भी थी। संघ के इशारे पर केंद्र में सरकारें बनाई व गिराई जाने लगीं। सांसदों पर उद्योपातियों का शिकंजा कसता चला गया। 1996 में 13 दिन, 1998 में 13 माह फिर 1999 में पाँच वर्ष ए बी बाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र सरकार का भरपूर संघीकरण हुआ। 2004 से 2014 तक कहने को तो मनमोहन सिंह कांग्रेसी पी एम रहे किन्तु संघ के एजेंडा पर चलते रहे। 1991 में जब वह  वित्तमंत्री बन कर ‘उदारीकरण ‘ लाये थे तब यू एस ए जाकर आडवाणी साहब ने उसे उनकी नीतियों को चुराया जाना बताया था। स्पष्ट है कि वे नीतियाँ संघ व यू एस ए समर्थक थीं। जब सोनिया जी ने प्रणव मुखर्जी साहब को पी एम बना कर मनमोहन जी को राष्ट्रपति बनाना चाहा  था तब तक वह हज़ारे /रामदेव/केजरीवाल आंदोलन खड़ा करवा चुके थे। 2014 के चुनावों में 100 से अधिक कांग्रेसी मनमोहन जी के आशीर्वाद से भाजपा सांसद बन कर वर्तमान केंद्र सरकार के निर्माण में सहायक बने हैं। 

यदि इंदिरा जी ने 1975 में  'देवरस'से समझौता  नहीं किया होता व 1980 में संघ के समर्थन से चुनाव न जीता होता तब 1984 में राजीव जी भी संघ का समर्थन प्राप्त कर बहुमत हासिल नहीं करते। विभिन्न दलों में भी संघ की खुफिया घुसपैठ न हुई होती। 

इंदिराजी के जन्मदिन पर   आज  उनको याद करने,नमन करने और उनकी प्रशंसा के गीत गाने के साथ-साथ ज़रा उनकी जल्दबाजी और अदूरदर्शी चूकों पर भी गौर कर लिया जाये और उनसे बचने का मार्ग ढूँढना शुरू किया जाये तो देशहित में होगा व इंदिराजी को भी सच्ची श्रद्धांजली होगी। 
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प्रोफेसर मृदुला मुखर्जी साहिबा ने इस तथ्य को भी नहीं इंगित किया है कि, 1977 के  चुनावों में पराजित होने के बाद इंदिराजी भयभीत हो गईं थीं और उनको पुनः सत्ता वापिसी की उम्मीद नहीं थी इसलिए मोरारजी देसाई की सरकार को परेशान करने हेतु पंजाब में भिंडरावाला के माध्यम से खालिस्तान आंदोलन खड़ा करवाया था उनके सम्मेलन में भाग लेने अपने पुत्र संजय गांधी को भी भेजा था। परंतु संजय के प्रयासों से  1980 में पुनः सत्तासीन होने और फिर संजय के निधन के बाद वह चाह कर भी इस आंदोलन को ठंडा नहीं कर पाईं और अपने दूसरे पुत्र राजीव गांधी से भिंडरावाला को 'इस सदी के महान संत ' का खिताब दिलवाने के बावजूद भी उनके राज़ी न होने पर जून 1984 में सैनिक कारवाई के जरिये भिंडरावाला को खत्म किया गया जिसकी प्रतिक्रिया में उसी वर्ष अक्तूबर में उनकी हत्या हुई और जिसके बाद  देशव्यापी सिख विरोधी दंगे हुये। ये गतिविधियेँ निश्चित तौर पर ' सांप्रदायिक ' ही थीं। 
(होने जा रहे गुजरात के इन चुनावों में इन्दिरा जी के पौत्र और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जिस साफ्ट हिन्दुत्व का सहारा ले रहे हैं उसके पीछे भी आर एस एस से प्रभावित वहाँ की जनता और उस संगठन की सहानुभूति प्राप्त करना ही है। यदि वहाँ कांग्रेस सरकार गठित होती है तो 1980 व 1984 की भांति उसके पीछे आर एस एस का समर्थन ही होगा जो मोदी को नियंत्रित करने की उसकी एक चाल मात्र ही होगी। )
~विजय राजबली माथुर ©
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Saturday, November 18, 2017

शहीद - ए - आजम के क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के जन्मदिवस दिवस पर नमन्

  बटुकेश्वर दत्त (१८ नवंबर १९०८ - २० जुलाई १९६५) : 





बटुकेश्वर दत्त एक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी हैं जिनका जन्म  18 नवम्बर, 1908 में कानपुर में हुआ था। उनका पैतृक गाँव बंगाल के 'बर्दवान ज़िले ' में था, पर पिता 'गोष्ठ बिहारी दत्त ' कानपुर में नौकरी करते थे। बटुकेश्वर ने 1925 ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की और तभी माता व पिता दोनों का देहान्त हो गया। इसी समय वे सरदार भगतसिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद के सम्पर्क में आए और क्रान्तिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’ के सदस्य बन गए। सुखदेव और राजगुरु के साथ भी उन्होंने विभिन्न स्थानों पर काम किया।
प्रतिशोध की भावना : 
विदेशी सरकार जनता पर जो अत्याचार कर रही थी, उसका बदला लेने और उसे चुनौती देने के लिए क्रान्तिकारियों ने अनेक काम किए। 'काकोरी' ट्रेन की लूट और लाहौर के पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या इसी क्रम में हुई। तभी सरकार ने केन्द्रीय असेम्बली में श्रमिकों की हड़ताल को प्रतिबंधित करने के उद्देश्य से एक बिल पेश किया। क्रान्तिकारियों ने निश्चय किया कि वे इसके विरोध में ऐसा क़दम उठायेंगे, जिससे सबका ध्यान इस ओर जायेगा।
असेम्बली बम धमाका : 
8 अप्रैल, 1929 ई. को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दर्शक दीर्घा से केन्द्रीय असेम्बली के अन्दर बम फेंककर धमाका किया। बम इस प्रकार बनाया गया था कि, किसी की भी जान न जाए। बम के साथ ही ‘लाल पर्चे’ की प्रतियाँ भी फेंकी गईं। जिनमें बम फेंकने का क्रान्तिकारियों का उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। दोनों ने बच निकलने का कोई प्रयत्न नहीं किया, क्योंकि वे अदालत में बयान देकर अपने विचारों से सबको परिचित कराना चाहते थे। साथ ही इस भ्रम को भी समाप्त करना चाहते थे कि काम करके क्रान्तिकारी तो बच निकलते हैं, अन्य लोगों को पुलिस सताती है।
आजीवन कारावास : 
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त दोनों गिरफ्तार हुए, उन पर मुक़दमा चलाया गया। 6 जुलाई, 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अदालत में जो संयुक्त बयान दिया, उसका लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। इस मुक़दमें में दोनों को आजीवन कारावास की सज़ा हुई। बाद में लाहौर षड़यंत्र केस में भी दोनों अभियुक्त बनाए गए। इससे भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा हुई, पर बटुकेश्वर दत्त के विरुद्ध पुलिस कोई प्रमाण नहीं जुटा पाई। उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा भोगने के लिए अण्डमान भेज दिया गया।
रिहाई : 
इसके पूर्व राजबन्दियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार के लिए भूख हड़ताल में बटुकेश्वर दत्त भी सम्मिलित थे। यही प्रश्न जब उन्होंने अण्डमान में उठाया तो, उन्हें बहुत सताया गया। गांधीजी के हस्तक्षेप से वे 1938 ई. में अण्डमान से बाहर आए, पर बहुत दिनों तक उनकी गतिविधियाँ प्रतिबन्धित रहीं। 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में भी उन्हें गिरफ्तार किया गया था। छूटने के बाद वे पटना में रहने लगे थे।

12  जून 1929  को इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी. बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए। बटुकेश्वर दत्त अपनी आखिरी दिनों में अभाव में गुजारे! चाहते तो वो भी अपनी पहचान का उपयोग करके आसानी से ऐश की जिंदगी जीते . पर ऐसे मतवाले क्रांतिकारियों को देश ही सब कुछ होता है और इन्हें सिद्धानतों के सिवा कुछ भी मंजूर नहीं होता
निधन : 
 एक दुर्घटना में घायल हो जाने के कारण दत्त की मृत्यु 20 जुलाई, 1965 को नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। मृत्यु के बाद इनका दाह संस्कार इनके अन्य क्रांतिकारी साथियों-भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की समाधि स्थल पंजाब के हुसैनी वाला,फिरोजपुर में किया गया आज वहीं  उनकी समाधि है। 

साभार : 





~विजय राजबली माथुर ©